अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा कर लगता है कि जैसे इसे हमारी उत्तराखंडी लोक-गायिकाओं ने कभी गाया ही नहीं हो, या जैसे इतना अच्छा कोई गा भी नहीं सकता हो …..
मैथिली ठाकुर का मांगल ..
बंधुओ, आजकल उत्तराखंड के सामाजिक संचार में मैथिली ठाकुर का गाया हुआ मांगल गीत चर्चा का विषय बना हुआ है । बने भी क्यों नहीं, जब मिथिला की उभरती लोक-गायिका मैथिली ठाकुर ने हमारे मांगलिक गीत को इतनी मधुरता के साथ गाया हो । हम इस हेतु मैथिली ठाकुर को हार्दिक धन्यवाद देते हुए उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं और आशा करते हैं कि वह भविष्य में हमारे और भी गीतों को गाकर उनकी शोभा बढ़ाएंगी । परंतु प्रश्न यहां दूसरा भी खड़ा होता है कि जिस प्रकार से हम उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा कर रहे हैं, उससे लगता है कि जैसे इसे हमारी उत्तराखंडी लोक-गायिकाओं ने कभी गाया ही नहीं हो, या जैसे इतना अच्छा कोई गा भी नहीं सकता हो ।
अभी गत वर्ष ही तो जब हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी देहरादून आए थे, तो उनके स्वागत में हमारी लगभग समस्त लोक-कोकिलाओं ने इसी मांगल गीत को इतनी मधुरता और भव्यता के साथ प्रस्तुत किया था कि उसे सुनकर माननीय प्रधानमंत्री जी भी मंत्रमुग्ध हो गए थे । लोक-गायिकाएं ही क्यों, हमारे पहाड़ों के गांवों में आज भी हजारों माताएं बहनें होंगी, जो कि मैथिली से कई गुना अच्छा मांगल गाती होंगी, पर उनका प्रचार तो कभी उनके गांव वालों ने भी शायद ही किया होगा ।
आज मैथिली अपने ओजस्वी स्वर से शिखर को छू रही है और वह प्राय: भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोकगीत गा रही हैं, परंतु इसका मतलब यह तो नहीं कि उसके समक्ष हम अपनी लोक-गायिकाओं को कम आंके ? हम उत्तराखंडियों की यही विशेषता है कि हमने आजतक अपने पहाड़ियों को राजनीति हो, साहित्य हो या कला का कोई भी क्षेत्र हो, कभी भी ऊंचाइयों तक पहुंचाने मे सामुहिक प्रयास नहीं किया है ।
हमारे धोनी भी झारखंड से व महाकवि कालिदास जी, उज्जैन जाकर ही विख्यात हुए । राजनीति में भी हेमवती नंदन बहुगुणा जी हों या नारायण दत्त तिवारी जी, इन्हें प्रयागराज और लखनऊ के लोगों ने ही शिखर तक पहुंचाया और वर्तमान में योगी जी भी गोरखपुर से ही भारत के भाग्य विधाता बनकर सामने दिखाई दे रहे हैं । जबकि यही मैथिली हो या शारदा सिन्हा जी हों या मालिनी अवस्थी जी हों, इनको मैथिली व भोजपुरी समाज ने वैश्विक शिखर तक पहुंचाने में सार्थक प्रयास किया है ।
हां, किंतु परंतु हर जगह होता है, लेकिन यदि बसंती बिष्ट को पद्मश्री नहीं मिलता तो उन्हें उत्तराखंड के कितने महानुभाव जानते थे ? क्या जब हमारे मांगलिक को मैथिली गाएंगी, हम तभी उसका प्रचार करेंगे या जब बेडू पाको आर्मी के बैंड में बजेगा, तभी प्रसिद्ध होगा । क्या हमारी धरोहरों को उजागर करने में हमारी प्रतिभाएं कमतर हैं । प्रतिभाएं अपना काम कर रही हैं, पर क्या हमारा समाज उस दायित्व को निभा रहा है ? कभी मंथन अवश्य करें ।
हां कुछ संस्कृति प्रेमी अपने चहेते गायक, गायिका, कलाकार, साहित्यकार या राजनीतिक का दिल खोलकर प्रचार अवश्य करते हैं, परंतु वे यदि निष्पक्ष मन से आगे बढ़ें तो इससे हमारी लोक संस्कृति को ही लाभ होगा । मैथिली ने मांगल बहुत अच्छा गाया, लेकिन जिस प्रकार हमने उसे सामाजिक संचार माध्यम में हाथों हाथ उठाया है, अब इसी बहाने सही, पर हमें अपनी पहाड़ी प्रतिभाओं को भी इसी तरह से उजागर करना चाहिए । वैसे हिंदी में एक कहावत है कि घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध .. यह हम उत्तराखंडियों में प्राय: चरितार्थ होता रहता है ।
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