हैल्थ सिस्टम सुधारने के नाम पर एक के बाद एक प्रयोग
योगेश भट्ट
देहरादून : इलाज के अभाव में पहाड़ पर एक और गर्भवती ने दमतोड़ दिया। सालभर के आंकड़े पर गौर करें, तो अभी तक सौ से अधिक महिलाएं इलाज के अभाव में दम तोड़ चुकी हैं। क्या यह आंकड़ा दिल दहलाने वाला नहीं है? आम आदमी भले ही विचलित होता हो, लेकिन प्रदेश का सिस्टम तो मानो संवेदनहीन हो चुका है।
जिस राज्य के स्वास्थ्य महकमे में अफसरों और डाक्टरों की बड़ी लंबी फौज हो, वहां इस तरीके की घटनाएं पूरे महकमे पर बड़ा सवालिया निशान हैं। आश्चर्यजनक यह है कि जिम्मेदारों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। डेढ दशक में राज्य का स्वास्थ्य महकमा यह सुनिश्चित नहीं कर पाया है कि राज्य में इलाज के अभाव में कोई महिला दम न तोड़ पाए।
किसी भी प्रदेश के लिए इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि उसकी जनता इलाज के अभाव में सड़क पर दम तोड़ने लगे। गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित प्रसव न कराया जा सके। सरकारें हैल्थ सिस्टम सुधारने के नाम पर एक के बाद एक प्रयोग जरूर करती रहीं, लेकिन इनसे प्रदेश को हासिल हुआ क्या? इनमें से अधिकांश प्रयोग घोटालों में तब्दील हो गए।
स्वास्थ्य विभाग में चाहे दवा घोटाला हो, उपकरण खरीद घोटाला हो, अस्पतालों को पीपीपी मोड में दिए जाने में हुआ घोटाला हो या सचल चिकित्सा वाहन घोटाला। और भी तमाम घोटाले इन वर्षों में हुए हैं। सवाल यह है कि आखिर ये सब घोटाले किसकी कीमत पर हुए? इन्हीं महिलाओं की कीमत पर ना, जिन्होंने इलाज के अभाव में सड़क पर दम तोड़ दिया? साफ है कि सरकार और सिस्टम की नजर में इनकी कोई अहमियत नहीं। वरना साल भर में मौतों का यह आंकड़ा किसी भी सिस्टम को झकझोरने के लिए काफी है।
सरकार एक मात्र यह कह कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रही है कि, डाक्टर पहाड़ चढने को तैयार नहीं हैं। हर सरकार दावा करती है कि उसने स्वास्थ्य सेवाएं बढाई हैं। डाक्टरों की कमी खत्म करने को योजनाएं भी तैयार की हैं। हालांकि यह दीगर बात है कि इस दौरान बड़ी संख्या में अस्पताल और नए मेडिकल कालेज भी खुले। नए कालेज इस तर्क के साथ खुले कि इनसे निकलने वाले डाक्टर पहाड़ों में सेवा देंगे।
लेकिन दुर्भाग्य देखिए, जो हालत पहाड़ के अस्पतालों की है, कमोबेश वही हाल मेडिकल कालेजों का भी है। श्रीनगर मेडिकल कालेज की ही बात करें तो, यह बंदी की कगार पर पहुंच चुका है। कहां तो इस कालेज से पहाड़ के लिए डाक्टर तैयार करने का सपना देखा गया था, और आज हालत ये है कि न यहां पढाने के लिए पर्याप्त फैकल्टी हैं और ना ही पर्याप्त संसाधन।
इलाज न मिलने के कारण अब तो मरीजों का भी इस मेडिकल कालेज से भरोसा उठ चुका है, और यह मेडिकल कॉलेज एक रेफरल हॉस्पिटल बन कर रह गया है । सामान्य बीमारियों के लिए भी मरीज निजी अस्पतालों या देहरादून का रूख कर रहे हैं। आम तौर पर मेडिकल कालेजों को मान्यता देने वाली एमसीआई, दस फीसदी फैकल्टी कम होने पर विभाग बंद कर देती है। यहां का आलम तो ये है कि यहां पढ रहे छात्र भगवान भरोसे हैं। कई विभाग शत प्रतिशत खाली हैं, तो कइयों में चालीस से पचास फीसदी पद रिक्त हैं।
इससे भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर मेडिकल कालेज और अस्पतालों की स्थिति एक जैसी है। दोनों ही जगह न इलाज है और न इलाज करने वाले डाक्टर। प्रदेश में यह अब एक लाइलाज मर्ज बन चुका है। फिलवक्त तो सिस्टम से कोई उम्मीद करना बेमानी है। सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। लेकिन कब तक?