- शिक्षा पर जो खर्चा हो,बजट का दसवां हिस्सा हो
- वामपंथी छात्र संगठनों के प्रत्याशियों ने दर्ज करवाई मजबूत उपस्थिति
इन्द्रेश मैखुरी
श्रीनगर (गढ़वाल) : उत्तराखंड के हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर यानि बिड़ला परिसर, श्रीनगर(गढ़वाल) का ए. सी. एल. हाल 8 सितंबर को एकाएक ”इंकलाब जिंदाबाद”, “लाल सलाम”, “शिक्षा पर जो खर्चा हो,बजट का दसवां हिस्सा हो”,जैसे नारों से गूंज उठा। दरअसल इस परिसर में कल ही छात्र संघ चुनाव हुए हैं । नारा लगने का मौका था-चुनाव जीते हुए प्रत्याशियों का शपथ ग्रहण। इन चुनावों में अन्य प्रत्याशियों के अलावा वामपंथी छात्र संगठनों के प्रत्याशियों ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाई। आइसा ने छात्र संघ उपाध्यक्ष पर जीत दर्ज की तो ए.आई. डी. एस. ओ. ने सहसचिव पद पर जीत हासिल की। ये नारे बता रहे थे कि वाम राजनीति का स्वर गढ़वाल विश्वविद्यालय में काफी बुलंद है।
वामपंथी छात्र संगठनों का प्रभाव गढ़वाल विश्वविद्यालय के श्रीनगर परिसर में कई दशकों से रहा है। खास तौर पर आइसा तो 1990 में अपने स्थापना काल से ही गढ़वाल विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में एक संघर्षशील छात्र संगठन के तौर पर निरंतर मौजूद रहा है। आइसा के पूर्ववर्ती छात्र संगठन पी.एस. ओ. (प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स ऑर्गनाइज़ेशन) की भी यहाँ मजबूत उपस्थिती थी। वामपंथी छात्र संगठनों को पहली चुनावी सफलता भी पी. एस. ओ. के जरिये ही हासिल हुई। 1988-89 में पी. एस. ओ. के विनोद किमोठी ने महासचिव पद पर जीत हासिल की थी।
हालांकि चुनावी संघर्ष में दमदार उपस्थिती तो वामपंथी छात्र संगठनों ने 1981 में भी दर्ज करवाई थी। इस वर्ष के छात्र संघ चुनाव में ए। आई। एस। एफ। के ललिता प्रसाद भट्ट ने अध्यक्ष पद पर मजबूत दावेदारी पेश की। उम्मीद थी कि भट्ट चुनाव जीत भी जाते,लेकिन उनके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पात और अराजकता का माहौल बनाया गया और ऐसे हालात पैदा किए गए कि इस चुनाव का परिणाम घोषित नहीं हो सका।
नब्बे के दशक से गढ़वाल विश्वविद्यालय में आइसा ने छात्र आंदोलनों के प्रतिनिधि संगठन के तौर पर अपनी पहचान बनाई। खास तौर पर आइसा के तत्कालीन नेता कामरेड योगेश पाण्डेय के नेतृत्व में तब के कुलपति के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया गया,जिसमें योगेश पाण्डेय का विश्वविद्यालय से निष्कासन तक हुआ। पर आंदोलन के मोर्चे से वे डिगे नहीं और कानूनी लड़ाई के जरिये उनका निष्कासन भी रद्द हुआ। वर्ष 2000 के छात्र संघ चुनाव में आइसा ने अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की। इसके बाद के वर्षों में छात्र आंदोलनों के एक महत्वपूर्ण संगठन के तौर पर गढ़वाल विश्वविद्यालय में आइसा की निरंतरता बनी रही। इस दौर में यहाँ ए। आई। एस। एफ। और एस। एफ। आई। की सक्रीयता भी थी।
वर्ष 2007 से छात्र संघ चुनावों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिंगदोह समिति की सिफ़ारिशों को लागू कर दिया गया। यह फैसला छात्र संघ चुनावों में धनबल के प्रभाव को रोकने के नाम पर किया गया था। लेकिन तब से अब तक के तमाम छात्र संघ चुनाव इस बात के गवाह हैं कि धनबल का प्रयोग चुनावों में कई गुना बढ़ गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित लिंगदोह समिति की सिफ़ारिशों में यह प्रावधान है कि मुख्य पदों पर एक प्रत्याशी,एक ही बार चुनाव लड़ सकेगा। एक बार चुनाव लड़ने की पाबंदी ने छात्र संगठनों के सामने यह चुनौती खड़ी कर दी कि उन्हें हर बार नया प्रत्याशी ले कर चुनाव में उतरना पड़ता था। यह चुनौती आइसा के सामने भी थी। लेकिन चुनाव में उनकी उपस्थिति निरंतर बनी रही।
वर्ष 2009 में गढ़वाल विश्वविद्यालय,केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के साथ ही तत्कालीन कुलपति ने छात्र संघ चुनाव बंद करने का मंसूबा बुना। इसके खिलाफ आइसा समेत तमाम छात्र संगठन आंदोलन में उतरे। छात्र आंदोलन ने विश्वविद्यालय में छात्र संघ पर ताला लगाने का तत्कालीन कुलपति का मंसूबा कामयाब नहीं होने दिया। छात्र संघ बचाने की इसी लड़ाई के आवेग के बीच में 2010 में विश्वविद्यालय प्रतिनिधि पद पर आइसा के वर्गीश बमोला विजयी रहे।
छात्र संगठनों को अपने जीवनकाल में निरंतर उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है। एक सत्र में शिखर पर दिखने वाला छात्र संगठन,अचानक अगले सत्र में अपने अस्तित्व को जूझता नजर आता है। ऐसा दौर आइसा के साथ भी गढ़वाल विश्वविद्यालय में भी कई बार आया। लेकिन यह आइसा की विचारधारा का आकर्षण ही है कि गतिरुद्धता के हर दौर में छात्र-छात्राओं का नया जत्था आइसा का परचम उठाने को सामने आता रहा है।
लिंगदोह समिति की सिफ़ारिशों के चलते यह भी हुआ कि छात्र संघ में छात्राओं के प्रतिनिधित्व की गुंजाइश सीमित हो गयी। इसके खिलाफ आइसा ने छात्राओं के लिए पद सृजित करने की मांग की। आइसा की मांग पर 2016 में पहली बार छात्र संघ में छात्रा प्रतिनिधि पद सृजित हुआ और इस पद पर आइसा की शिवानी पाण्डेय चुनी गयी। इसी समय में श्रीनगर में ए। आई। डी। एस। ओ। की सक्रीयता भी शुरू हुई। 2016 में ही छात्र संघ में सहसचिव पद पर ए. आई. डी. एस. ओ.की कुसुम पाण्डेय चुनाव जीती। और यह वर्ष 2018 तो विशेष है। इस वर्ष में उपाध्यक्ष पद पर आइसा के अंकित उछोली 2914 वोट हासिल कर विजयी रहे। सहसचिव पद पर ए. आई. डी. एस.ओ. की पूजा भण्डारी ने 3366 मत प्राप्त करके जीत हासिल की। इतना ही नहीं विश्वविद्यालय प्रतिनिधि पद पर एस. एफ.आई.के हरीश तिवारी को भी 868 वोट प्राप्त हुए।
इस तरह देखें तो गढ़वाल विश्वविद्यालय के इस छात्र संघ चुनाव में वामपंथी छात्र संगठन बड़े पैमाने पर छात्र-छात्राओं को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हुए। छात्र संघ का चुनाव इतना मंहगा हो गया है कि उसमें लाखों रुपया बहाया जा रहा है। शराब और मुर्गे की कौन कितनी पार्टियां करेगा,यह प्रतिस्पर्द्धा चुनाव लड़ने वालों के बीच हो रही है। सांसद-विधायक के चुनाव की तरह ही रिकॉर्डेड प्रचार गीत बज रहे थे। छ्पे हुए पोस्टर-फ़्लेक्स- कट आउटों की असंख्य तादाद थी। इसके बीच वामपंथी छात्र संगठन हाथ से बनाए गए कलात्मक पोस्टरों के सहारे चुनाव लड़ रहे थे। भाषण,जनगीत,नुक्कड़ नाटक ही उनकी ताकत थे और पूंजी के नाम पर उनके पास वर्ष भर के छात्र आंदोलनों की सक्रीयता की पूंजी थी। उनको न केवल धनबल का मुक़ाबला करना था,बल्कि अपने खिलाफ चलाये जा रहे मिथ्या प्रचार का मुकबला भी करना था। ऐसे में यदि वामपंथी छात्र संगठनों ने इतने बड़े पैमाने पर छात्र-छात्राओं का वोट हासिल किया तो यह निश्चित ही उल्लेखनीय और उम्मीद जगाने वाला है। यह इस बात का भी द्योतक है कि आज के दौर का युवा सिर्फ आई. टी. सेल के घृणा अभियान का वाहक और मॉब लिंचिंग गिरोहों का हिस्सा नहीं बन रहा है,वह आदर्शों,उसूलों वाली बेहतर दुनिया,बेहतर समाज का ख्वाब देखने और उसके लिए संघर्ष करने वाली राजनीति की लाल पताका भी उठा रहा है।