उत्तराखंड और चुनाव की चुनौती

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दाताराम चमोली
चुनावी समर में हर कोई उत्तराखण्ड का कायाकल्प कर देने का दावा कर रहा है। पलायन और बेरोजगारी दूर करने के भी वादे हो रहे हैं। लेकिन उन्हें बताना होगा कि यह कैसे संभव है। इसका तरीका क्या है।  जनता को सोचना होगा कि वह किन हाथों में अपना भविष्य सौंपे।

उत्तरायण में सूर्य के पहुँचने के बाद उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों के सम्मुख अपनी सरकार बनाने की चुनौती है तो निर्दलीय भी विधानसभा पहुंचने के लिए जोर आजमाइश कर रहे हैं। चुनावी समर में एक  – दूसरे को पटखनी देने के लिए हर संभव रणनीति अपनाई जा रही है। हर प्रत्याशी के सम्मुख करो या मरो जैसी स्थिति है। लेकिन राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों से बड़ी चुनौती जनता की है। पांच साल बाद आए इस चुनावी महाकुंभ में उसे विचार मंथन करना होगा कि अगले पांच साल के लिए कौन से ऐसे उम्मीदवारों को चुनकर भेजे जो प्रदेश में एक सक्षम सरकार दे सकें। इतनी सक्षम कि उसकी नीति और नीयत में कोई खोट न हो और राज्य के समग्र विकास की दिशा में निरंतर आगे बढ़ सके। जिन कल्पनाओं को लेकर पृथक उत्तराखण्ड राज्य के लिए कुर्बानियां दी गई थीं वे साकार हो सकें और दुनिया देखे की हिमालय में कोई दिव्य&भव्य ही नहीं बल्कि संपन्न राज्य अस्तित्व में है।

हर विधानसभा क्षेत्र की जनता को देखना होगा कि कौन सा प्रत्याशी उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकता है। सोचना होगा कि आखिर 80 साल से अधिक की उम्र जो कि संन्यास आश्रम के लिए उपयुक्त होती है उसमें भी कोई व्यक्ति चुनाव लड़ने का मोह क्यों नहीं छोड़ पा रहा है क्या उसका उद्देश्य वाकई जनहित है या फिर वह ऐशोआराम की जिंदगी नहीं छोड़ना चाहताअगर हम किसी ऐसे बूढ़े और बूढ़ी सोच को ढ़ोते रहेंगे जिसके पास भविष्य का न कोई सपना हो और न संकल्प का साहस तो फिर युवा नेतृत्व और युवा सोच की कल्पना कैसे कर सकते हैंलेकिन सवाल यह भी है कि क्या युवा नेतृत्व के नाम पर ऐसे युवा को विधानसभा में भेजा जाना चाहिए जिसकी सोच महज नौकरशाही और माफिया का पार्टनर बनकर अनुचित तरीकों से धन कमाने तक सीमित होक्या किसी ऐसे निर्दलीय को अपना भविष्य सौंप देना चाहिए जिसका मकसद सिर्फ अपना हित साधना रह जाए ब्लैकमेलिंग के बूते मंत्री पद हथियाने वाले प्रत्याशियों को चुनने से क्या राज्य का कोई भला हो पाएगा उन प्रत्याशियों को चुनने से भी कुछ नहीं होगा जो सदन में सिर्फ उंघते रहें और जनता के सवाल पूछने की जिन्हें तमीज ही न हो।

बहुत सोच समझकर फैसला लेने की घड़ी  है कि चुनाव में कहीं हम अपना ही अहित न कर बैठें। वोट देने से पहले सोचना होगा कि हमारा वोट कितना कीमती है। जो फैसला हम लेने जा रहे हैं वह वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से कितना उचित होगा राजनीतिक पार्टियों की चुनावी रणनीतियों के बीच जनता को अपने राज्य की तमाम स्थितियों का आकलन करना होगा। देखना होगा कि पिछले सोलह साल के दौरान राज्य पर अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं का करीब 40  हजार करोड़ रुपए का कर्ज हो चुका है। ऐसे में राज्य के आर्थिक स्वालंबन की चिंता किसकी है अपने प्राकृतिक संसाधनों का वाजिब उपयोग विगत सोलह साल में हम कितना कर पाए हैं विगत सोलह साल में जब राज्य के 1800 से अधिक प्राथमिक स्कूल बंदी के कगार पर पहुंच गए तो रोजगारपरक शिक्षा और स्वरोजगार के अवसर विकसित करने की सोच कहां से आएगी पहाड़ पर डॉक्टर क्या दूसरे ग्रह से आएंगे

पलायन कैसे रुक पाएगा जो लोग वर्षों से हिमालय के पर्यावरण की सुरक्षा करते रहे हैं उन्हें ग्रीन बोनस देने की बात कौन करेगा गंगा को उसके उद्गम से ही बचाने की बात कौन करेगा राज्य गठन के बाद कितने युवाओं को रोजगार मिल सका भविष्य में रोजगार के साधन क्या होंगे राज्य के तीन सौ से अधिक संवेदनशील गांवों को कहां बसाया जाएगा कृषि विकास और भूमि संरक्षण की तमाम योजनाओं के बीच निरंतर कृषि भूमि क्यों सिमटती गई आपदा प्रबंधन मंत्रालय होने के बावजूद बस दुर्घटनाओं  के वक्त लोगों तक मदद पहुंचने में देरी क्यों होती है और भी कई तमाम अनगिनत सवाल और समस्याएं हैं जिन पर विचार-विमर्श करने के बाद ही जनता को सोचना होगा कि वह अपना भविष्य किन हाथों में सौंपे। ठीक है कि चुनाव के दौरान हर पार्टी या हर प्रत्याशी जनता के मूल मुद्दों को हल करने का दावा कर सकते हैं। हर कोई पलायन और बेरोजगारी पर अंकुश लगाने की बात करेगा। राज्य का कायाकल्प कर देने का दावा करेगा। लेकिन इस सबका तरीका क्या होगा किन नीतियों और योजनाओं पर वे राज्य हित में अमल करेंगे जो प्रत्याशी तरीका बता सकें और उनकी नीयत भी साफ लगे उन पर विचार किया जाना चाहिए।

(लेखक द सन्डे पोस्ट के प्रमुख संवाददाता हैं) 

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