खंडहर-खंडहर होता लोक बिरासत का एक गॉव पोखड़ा !

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मनोज इष्टवाल
चौन्दकोट की जब बात होती है तब स्वाभाविक तौर पर उस लोक संस्कृति का वह विराट स्वरुप आँखों पर तैरने लगता है जो रिंगवाड़स्यूं, मौदाडस्यूं, मवालस्यूं, गुराड़स्यूं, पिंगलापाखा, तलाई तक फैले उसके प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच सांस्कृतिक सौन्दर्य व मानुषिक सौन्दर्य के एक अनूठे लोक का चित्रण करता नजर आता है. यहाँ की खूबसूरती के चर्चे तो आम थे ही लेकिन यहाँ के लोक पहनावे में चौन्दक्वटया गात (चौन्दकोट की धोती) का पहनावा पूरे पौड़ी गढ़वाल के अधिकतर हिस्से का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता था.

उसी की गोद में बसा एक साधन सम्पन्न गॉव है पोखड़ा ! पोखड़ा ब्रिटिश काल से ही चर्चाओं में रहा है क्योंकि इस गॉव ने तभी तरक्की के आयाम छू लिए थे. कुछ लोगों का मत है कि नेपाल के पोखरा से आकर यहाँ बसे जोशी ब्राह्मणों ने इसका नाम पोखरा ही रखा था जो काल चक्र के साथ अपभ्रंश होता हुआ पोखड़ा हो गया.

इस गॉव की बसागत की सबसे खूबसूरत बात जो पिछली सदी के अंत तक थी वह बेहद सलीखे से बसे गॉव व उसकी दूर दूर तक फैली सुंदर खेती व उतुंग शिखरों पर हरे बाँझ बुरांस चीड के जंगल इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाते थे. लेकिन इस सदी के शुरूआती दौर में ही यहाँ से जैसे पलायन करने के लिए दौड़ लगी हो. एक के बाद एक सभी सम्पन्न परिवार अपना बोरिया बिस्तर समेटकर शहरों की तंग कोठरियों की आवोहवा में ऐसे घुले कि उनके विशालकाय मकान धीरे धीरे जमींदोज होने लगे. चाहे तहसीलदारों का क्वाठा रहा हो या ईश्वरीदत्त जोशी व पटवारियों की तिबारी, सभी वीरान हो गयी. ईश्वरीदत्त जोशी का परिवार यहाँ से सटक तो गया लेकिन उनकी पारिवारिक बुनियाद की गाथा सुनाती उनकी चौखम्बा तिबारी के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं. इसके अलावा चाहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ललित मोहन जोशी का परिवार हो या फिर मित्रानंद जोशी का परिवार सबके सब पोखड़ा से सटक सीता राम हो गए.

बात यही पर नहीं रूकती अविभाजित नैनीताल के जिला पंचायत अध्यक्ष रहे इसी गॉव के आर.पी. जोशी ने भी यहाँ पलटकर नहीं देखा कि पितरों की बसाई उनकी जन्मभूमि का क्या आलम है. उनका खंडहर आवास भी जैसे दहाड़े मार रहा हो. ज्ञात हो कि उनके पुत्र मनोज जोशी वर्तमान में काशीपुर से कांग्रेस की टिकट पर विधान सभा का चुनाव लड़ रहे हैं. हाँ एक मात्र खूबसूरत तिबारी पटवारी दीन दयाल जोशी की मिल जायेगी जो अभी जीर्ण शीर्ण तो है लेकिन बुलंद है. उन्होंने यहाँ से जहरीखाल लैंसडाउन में डेरा बनाया लेकिन वहां से भी शायद पलायन कर गए और अब उनके जहरीखाल आवास पर शिशु मंदिर संचालित होता है.

अब आते है जल निगम के मुख्य अभियंता राकेश जोशी के आवास पर ! राकेश जोशी का परिवार भी गॉव छोड़ चुका है. हाँ निशानी के तौर पर कि वे पोखड़ा के हैं उनका एक नया मकान जोकि आधा टूट चुका है व एक पुराना मकान इस बात को प्रमाणित करता है कि यहाँ भी कभी ब्यंजनों की महक रही होगी.

पोखड़ा की पहचान रहे तहसीलदार गंगादत्त जोशी व अन्य अधिकतर लोग जिनका वर्णन है दुनिया छोड़ चुके हैं लेकिन उनकी विरासत के ये सुंदर खंडहर आज भी उनका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं हैं. पोखड़ा का सबसे बड़ा मकान जिसे क्वाठा यानि किला भी कहा जाता है तहसीलदार गंगा दत्त जोशी का था जो अब एक भुतवा कोठी की तरह खंडहरनुमा बन गया है. कालान्तर में इसमें पहले ब्लाक ऑफिस भी चला करता था. ज्ञात हो कि गंगा दत्त जोशी ब्रिटिश काल में मेम्बर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर भी रहे हैं. एक जमाने में इस परिवार का काफी रुतवा हुआ करता था. आश्चर्य की बात तो ये रही कि इतने बड़े नाम की जानकारी यहाँ किसी भी ग्रामीण से नहीं मिल पाई. सब यही जानते हैं कि यह मकान जोकि खंडहर हो गया है वह तहसीलदार परिवार का था. थक हारकर आखिर यहाँ के भाजपा नेता पुष्कर जोशी ने आवाज देकर श्रीमती नंदी देवी को बुलाया जोकि काफी उम्रदराज हैं और उन्हें बालविधवा का सम्मान भी मिलता है. कहते हैं नंदी देवी जब ब्याह कर यहाँ आई थी तब उनके पति उनका मुंह भी नहीं देख पाए थे और स्वर्ग सिधार गए. नंदी देवी ने पत्नी धर्म का पालन करते हुए यहाँ बाल विधवा जीवन यापन किया. आज भी वह किसी साध्वी जैसा ही जीवन यापन कर रही हैं.

नंदी देवी से बमुश्किल उस घर के वारिस दिनेश जोशी का नम्बर मिल पाया जोकि उन्होंने कुछ पर्चियों के लिखवाकर एक डिब्बे में बंद कर रखा था. दिनेश जोशी से टेलीफोन पर जब बात हुई तब पता चला कि तहसीलदार गंगा दत्त जोशी उनके ताऊ जी थे व उनके पिता जी का नाम कुलानंद था. भले ही दिनेश जोशी आज सेवानिवृत्त होकर दिल्ली में रह रहे हों लेकिन उनके गॉव से जुडी उनकी अंतस की पीड़ा छुपी नहीं रह सकी. उन्होंने बातों बातों में बताया कि उनका भी बड़ा मन होता है कि वे गॉव आयें व अपने खंडहर मकान को पुनर्निर्माण करवाएं लेकिन बच्चे हैं कि गॉव आने को तैयार ही नहीं होते. शायद यह कशिश अकेले दिनेश जोशी की नहीं है बल्कि उस हर पिता की है जो जवानी में नौकरी के लिए गॉव छोड़कर बाल बच्चों को साथ ले आता है कि उन्हें अच्छी शिक्षा के साथ अच्छा रोजगार भी मिले लेकिन वह यह भूल जाता है कि उन बच्चों का उस घर से क्या लगाव होगा जो उन्होंने ढंग से देखा ही नहीं.. इसलिए भला वे बच्चे सुख सुविधा छोड़कर गॉव की ओर आयें तो आयें कैसे! लेकिन जब वे बच्चे बूढ़े होते हैं और उनके नाती पोते उनसे पूछते हैं कि उनका ओरिजिनल कहाँ है तब ये बाप बहुत पछताते हैं क्योंकि तब ये स्वयं को कठमाली महसूस करते हैं क्योंकि तब उन्हें यह तो पता होता है कि वे गढ़वाल से आये हैं लेकिन कहाँ से ये पता नहीं होता. मेरी बात पर यकीन न हो तो देहरादून आकर उन लोगों की बेबसी देख लीजिये जिन्हें हम कठमाली के नाम से जानते है.

तहसीलदार गंगा दत्त जोशी से लेकर अब तक पोखड़ा की धरती ने कई नामी गिरामी जनमानसों को जन्म दिया चाहे वह मनोज जोशी हों या फिर पूर्व प्रमुख प्रभाकर नेगी या भाजपा नेता पुष्कर जोशी ! लेकिन वर्तमान में तेजी से खंडहर होते गॉव और बंजर होती जमीन आवाक व हैरान है कि आखिर ऐसा क्या अनर्थ हुआ कि मेरे ही मुझसे दूर हो गए ! इस थाती माटी के रैबासी आज भी पलटकर अगर यहाँ की सुध लेना शुरू कर दें तो पोखड़ा आज भी बाँहें फैलाए उनका स्वागत करता नजर आ रहा है बस कमी है तो जरा सा अपनी जड़ों को तलासने की.

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