अनोखा है उत्तराखंड का मकरसक्रांति का त्यौहार

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जगमोहन रौतेला

मकर संक्रांति को पूरे देश में सूर्य नारायण के उत्तरायण होने के पर्व के रूप में मनाया जाता है .उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल में यह एक लोक पर्व का रूप ले लेता है .इसे यहॉ घुघुतिया त्यार , पुषूड़िया त्यार व उत्तरैंणी त्यार भी कहते हैं .संक्रांति के पहले दिन मसांत से ही इस त्यौहार की तैयारी शुरु हो जाती है . आटे को गुड़ के पानी के घोल में गूँथा जाता है . उसके बाद उसकी छोटी-छोटी लोइयों को एक विशेष आकार में ढाला जाता है . जो एक तरह से हिन्दी के चार के अंक की तरह होते हैं .इन्हें घुघुते कहते हैं .इसी कारण कुमाऊं में मकर संक्रांति को घुघुतिया त्यार कहते हैं . घुघुतों के अलावा पकवानों में डमरू, तलवार , ढाल, दाड़िम के फूल व खजूरे भी बनाए जाते हैं .इन पकवानों को एक धागे में पिरोया जाता है. जिसे घुघुते की माला कहते हैं .
संक्रांति के दिन प्रात: काल उठकर बड़े और बच्चे नहाते हैं . नहाने के बाद अक्षत-रोली लगाकर घुघुते की माला बच्चों के गले में डाली जाती हैं .साथ की कुछ घुघुतों को एक पत्तल में लेकर बच्चे छतों में चढ़ जाते हैं और इन पकवानों को खाने के लिए कौवो को ” काले कौव्वा , काले कौव्वा – घुघुती माला , खाले कौव्वा ” कहकर बुलाते हैं .इसे एक लोकगीत की तरह भी बच्चे लगातार बोलते जाते हैं —
” काले कौव्वा का-ले ! का-ले !
ले कौव्वा पूड़ी
मैंकें दे सुनैकि पूड़ी
ले कौव्वा ढाल
मैंकें दे सुनैकि थाल
ले कौव्वा तलवार
मैंकें बणें दे होश्यार
ले कौव्वा घुघुत
मैंकें दिजा सुनक मुकुट ” .
बच्चे कौवे को बुलाने के साथ ही हर पकवान के लिए उससे कुछ न कुछ मॉगते हैं .जैसे कौव्वा तू पूरी ले ले लेकिन इसके बदले में हमें सोने की पूरी देना . कौव्वा तू हमारी घुघुते की माला ले ले लेकिन इसके बदले हमें सोने का मुकुट देना . तू ढाल ले ले लेकिन हमें सोने की थाल दे जा . कौव्वा तू हमारी तलवार ले ले लेकिन इसके बदले हमें होशियार बना देना .
बड़ों के साथ- साथ बच्चों को भी इस त्यौहार की बैसब्री से प्रतिक्षा रहती है . बड़े जहॉ गंगा स्नान के लिए तीर्थों में जाते हैं , वहीं बच्चों को घुघुते की माला गले में डाल कर कौव्वों को बुलाने का इंतजार रहता है . बच्चों में आपस में यह होड़ भी रहती है कि सवेरे सबसे पहले उठकर कौन कौव्वों को बुलाता है . घुघुते और दूसरे पकवानों को नाते-रिश्तेदारों में भी बॉटा जाता है . कुमाऊं के सबसे बड़े तीर्थ बागेश्वर में संक्रांति के दिन बहुत बड़ा मेला भी लगता है .सरयू और गोमती नदी के संगम पर हजारों लोग पवित्र स्नान करते हैं .बागेश्वर के गंगा स्नान के बारे में एक कहावत भी प्रचलित है – ” द्याप्त द्यखण जोगेश्वर और गंग नाण बागेश्वर “. अर्थात् देवता देखने हों तो जागेश्वर मन्दिर जाओ और गंगा नहाना है तो बागेश्वर जाओ .
इस त्योहार के बारे में प्रचलित लोग कथाओं में से एक के अनुसार , बात तब की है , जब कुमाऊँ में चन्द्र वंश के राजा कल्याण चंद राज करते थे . उनकी कोई संतान नहीं थी . ऐसे में उनका मंत्री सोचता था कि राजा के बाद राज्य मुझे ही मिलेगा . एक बार राजा कल्याण चंद अपनी पत्नी के साथ बाघनाथ मन्दिर , बागेश्वर गए और अपने लिए संतान मॉगी . जिसके बाद उनका एक बेटा हुआ . जिसका नाम उन्होंने निर्भय चंद रखा . राजकुमार को उसकी माँ प्यार से घुघुति बुलाया करती थी . उसके गले में एक मोती की माला थी , जिसमें घुँगरु गुथे हुए थे . घुँगरु की आवाज के कारण घुघुति को वह माला बहुत पसंद थी . देर से संतान होने के कारण रानी मॉ उसे बहुत प्यार करती थी . अधिक लाड़ व दुलार में राजकुमार घुघुति जिद्दी हो गया था . जब भी वह किसी बात पर जिद्द करता तो रानी माँ उससे कहती कि जिद्द मत कर नहीं तो मैं तेरी माला कौवे को दे दूंगी .रानी अपने बेटे को डराने के लिए कहती कि “काले कौवा काले , घुघुति माला खाले” . यह सुन कर कई बार कौवा आ जाते . जिनको देखकर घुघुति अपनी जिद छोड़ देता . जब इस तरह बुलाने पर कौवे आ जाते तो रानी उनको कोई न कोई चीज खाने को दे देती थी . इस तरह धीरे – धीरे घुघुति और कौवों में दोस्ती हो गई .
उधर , जो मंत्री राज – पाट मिलने की उमीद लगाए बैठा था वह घुघुति से चिढ़ने लगा और उसे मारने का षडयंत्र करने लगा . एक दिन मंत्री ने अपने कुछ विश्वास पात्र सिपाहियों साथ मिल कर एक योजना बनाई . जिसके अनुसार , जब एक दिन जब घुघुति खेल रहा था तो उसके सिपाही उसे चुप-चाप उठा कर महल से बाहर ले गए . जहॉ मन्त्री उनका इंतजार कर रहा था . मन्त्री घुघुति को मारने के लिए जंगल की ओर ले के जा रहा था तो एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर जोर से काँव – काँव करने लगा . कौवे की आवाज सुनकर घुघुति और जोर – जोर से रोने लगा . उसने हिम्मत से काम लिया और अपनी माला को उतार कर कौवे को दिखाने लगा . अपने साथी कौवे की खतरे वाली ” कॉव – कॉव ” सुन कर बहुत सारे कौवे एकत्र हो गए . उन्होंने पूरे झुण्ड के साथ मंत्री और उसके सिपाहियों पर हमला कर दिया . इतने में एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपट कर महल की ओर उड़ चला . कौवों झुण्ड के हमला बोलने से मंत्री और उसके सिपाही घबरा कर वहॉ से भाग खड़े हुए . उन्होंने घुघुति को जंगल में अकेला छोड़ दिया . वह वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ गया . सभी कौवे उसकी रक्षा के लिए उसी पेड़ की डालियों में बैठ गए .
उधर , वह कौवा हार लेकर सीधे महल के एक पेड़ में बैठ गया और उसने घुघुति के मोती की माला को एक टहनी में टॉग दिया और फिर जोर – जोर से कॉव – कॉव करने लगा| . उसकी आवाज को सुनकर रानी – राजा व दूसरे लोग महल से बाहर निकल आए . कौवे ने वह माला रानी माँ के सामने डाल दी . माला सभी ने पहचान ली . उसके बाद घबराई रानी ने घुघुति की खोज करवाई तो वह महल में नहीं मिला . इस दौरान कौवा एक डाल से दूसरे डाल में उड़ कर कुछ बताने की कोशिस करने लगा . इससे सबको लगा कि कौवा शायद घुघुति के बारे में कुछ जनता है और कुछ बताना चाहता है . राजा कल्याण चंद और उनके घुड़सवार सैनिकों ने कौवे का पीछा किया .
कौवा जंगल में कुछ दूर जाकर एक पेड़ पर बैठ गया .राजा ने देखा कि पेड़ के नीचे उसका बेटा सुबक रहा है और पूरे पेड़ में कौवों का झुण्ड है . राजकुमार को सही सलामत पाकर राजा की जान में जान आई . उसने बेटे घुघुति को को उठाया और गले से लगा कर खूब लाड़ किया . महल लौटने पर रानी माँ के भी जैसे प्राण लौट आए . उन्होंने सोचा कि अगर घुघुति के गले में माला नहीं होती और कौवों के साथ उसकी दोस्ती नहीं होती तो घुघुति जिन्दा नहीं रहता . राजा ने षडयंत्रकारी मंत्री और सिपाहियों को मृत्यु दंड दे दिया . घुघुति के सकुशल मिलने की खुशी में रानी माँ ने उसी दिन शाम को कई तरह के पकवान बनवाए और घुघुति से कहा कि वह अगले दिन सवेरे नहा कर पकवानों को अपने दोस्त कौवों को बुलाकर भी खिलाए . उस दिन मकर संक्रान्ति थी . इस घटना की जानकारी पूरे कुमाऊँ में फैल गई . राजा ने बुनादी करवा कर राज्य की प्रजा को भी पकवान बनाकर कौवों को खिलाने को कहा . जिसने कालान्तर में बच्चों के त्यौहार का रूप धारण कर लिया . तब से हर साल इस दिन धूम धाम से इस त्यौहार को मानते हैं .

काले कौवा काले, घुघुति माला खाले।
लै कावा भात, मैं कै दे सुनक थात।।
लै कावा लगड़, मैं कै दे भैबनों दगड़।
लै कावा बौड़, मैं कै दे सुनौक घ्वड़।।
लै कावा क्वे, मैं कै दे भली भली ज्वे।

यह त्योहार कुमाऊँ में दो दिन संक्रान्ति और उसके अगले दिन मनाया जाता है . सरयू पार ( गंग पूर्व ) के लोग मसान्त के दिन घुघुते बनाते हैं और संक्रान्ति को कौवों को बुलाते हुए त्योहार मनाते हैं , जबकि सरयू आर ( गंग पश्चिम ) के लोग संक्रान्ति को घुघुते बनाते हैं और अगले दिन कौवों को बुलाते हुए घुघुतिया त्यार मनाते हैं . जनश्रुति के अनुसार , राजा ने जब इसके लिए मुनादी करने को कहा तो सैनिक पहले दिन सरयू पार ही मुनादी कर पाए . जिसकी वजह से वहॉ के लोगों ने मकर संक्रान्ति के दिन कौवों को बुलाया और सरयू के आर ( पश्चिम ) दूसरे दिन संक्रान्ति को मुनादी हुई तो इधर के लोगों ने दूसरे दिन कौवों को बुलाया . चूँकि कौवे सवेरे – सवेरे ही अधिक आते हैं , इसी कारण पहले दिन शाम को घुघुत बनाकर उन्हें तेल में तल लिया जाता है और अगले दिन सवेरे – सवेरे धूप निकलते ही बच्चे कौवों को बुलाने के लिए घर के बाहर निकल आते हैं . इसके लिए कुमाऊँ में एक कहावत भी प्रचलित है कि श्राद्धों में ब्राह्मण और उत्तरायणी में कौवे नहीं मिलते हैं . उत्तराखण्ड में आज से माघ माह का भी प्रारम्भ हो जाता है . कुमाऊँ में माघ के महीने मॉस की खिचड़ी खाने की भी परम्परा है . पूरे महीने नाते – रिश्तेदार व ईष्ट – मित्र एक – दूसरे के यहॉ माघ की खिचड़ी खाने भी जाते हैं .
इस दिन का ऐतिहासिक महत्व भी यहॉ के जनमानस के लिए है . मकर संक्रांति के ही दिन 1921 में लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की थी और स्वतन्त्रता सेनानी बद्रीदत्त पान्डे के नेतृत्व में हजारों लोगों ने सरयू के पवित्र जल को हाथ में लेकर शपथ ली थी कि आज के बाद कोई भी कूली बेगार नहीं करेगा .बेगार से सम्बन्धित सैकड़ों रजिस्टरों को सरयू में बहा दिया गया था . तब से हर साल मकर संक्रान्ति के दिन सरयू के बगड़ में लगने वाले कौतिक में हर राजनैतिक दल के पंडाल लगते हैं और अपने – अपने मंचों से खूब राजनीति होती है . सब दलों के लोग एक साथ अलग – अलग मंचों से बोलते दिखाई देते हैं . ऐसी राजनैतिक व सांस्कृतिक परम्परा और शायद ही कहीं और हो .