एक ‘खामोश नायक’ का ‘जीवंत किवदंती’ बनने का सफ़र…..

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‘सफल अभिनेता वही है जो अपने हिस्से का बढ़िया अभिनय करके बिना शिकायत के वापस पर्दे के पीछे चला जाय : नलनीधर जयाल

डाॅ. अरुण कुकसाल

‘श्री नलनीधर जयाल आज किन्नौर की खूबसूरत वादियों में एक ‘जिंदा कहानी’ के तौर पर लोगों के दिल-दिमागों, वहां के बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों, स्कूलों, लोगों के शानदार रोजगारों और प्राकृतिक एवं मानवीय समृद्धि के अनेकों रंग-रूपों में रचे-बसे हैं। वह किन्नौर में एक ‘जीवंत किवदंती’ हैं। किसी भी इंसान के जीवन में सफलता का इससे सुंदर और क्या मुकाम हो सकता है, कि वह अपने कामों और नेक-नियत के बदौलत लोगों के दिल-दिमागों में एक जीवंत किवदंती ही बन जाए।’ (कुसुम रावत, पृष्ठ-130)

जांबाज फाइटर पाइलट से लोकप्रिय पर्यावरणविद बनने के जीवनीय सफर के दौरान श्री जयाल काबिल नौकरशाह, साहसी पर्वतारोही, शानदार फोटोग्राफर, चर्चित लेखक, कुशल प्रशिक्षक, अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता, जिज्ञासू अघ्येता, और दूरदर्शी चिंतक रहे हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के और भी आयाम हैं। परन्तु यह भी सच है कि उनका व्यक्तित्व पद, प्रतिष्ठा और पुरस्कारों के माया-जाल के बोझ से हमेशा विरक्त रहा है। तभी तो एक संतुष्ट आदमी की नम्रता उनमें हर समय निखरी रहती है। वे हमारे आस-पास के समाज का एक ऐसा हीरा हैं, जिसके बारे में ज्यादा लोगों को जानकारी नहीं है। इस कारण वे सामाजिक चर्चाओं में भी नहीं हैं। वास्तव में, वे ‘काम खामोश रहता है, कमियां बोलती हैं, का पर्याय हैं।

श्री नलनीधर जयाल का जन्म 11 जनवरी 1927 को अल्मोडा में हुआ। उनके पिता चंद्रधर जुयाल तब अल्मोड़ा के डिप्टी कलैक्टर थे। उत्तराखंडी समाज में चर्चित रहे टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल उनके पिता के बडे भाई थे। उनका पैतृक गांव झांझर पौड़ी (गढ़वाल) है। मात्र 11 महीने की उम्र में एक दुर्घटना में मां की मृत्यु होने पर दीदी ने उनका लालन-पालन किया। प्रारंभिक शिक्षा दून स्कूल से लेने के बाद इलाहबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया। वे दून स्कूल के प्रथम बैच के विद्यार्थी थे। उनके बड़े भाई विदुधर जयाल उत्तराखंड से चयनित पहले आईएएस थे। उनकी बहन प्रो. शाकम्बरी जयाल इतिहासविद थी (संयोग से राजकीय महाविद्यालय, रानीखेत में सन् 1977 से 80 तक मेरे अध्ययन के दौरान वे प्रधानाचार्या रही थी।)।

श्री जयाल सन् 1948 में भारतीय एअर फोर्स में पायलट चयनित हुए। फाइटर पायलट होते हुए भी वे युद्ध के विरुद्ध थे। यही कारण है कि एअर चीफ मार्शल के एडीसी रहते हुए सन् 1956 में उन्होने एअर फोर्स की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। इसी वर्ष इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में चयन होने पर वे नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा अब अरुणाचंल प्रदेश) के ट्यूटिंग स्थान पर पौलीटिकल आफिसर नियुक्त हुए। सन् 1960 में इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज का भारतीय प्रशासनिक सेवा में विलीन होने पर वे किन्नौर जनपद (हिमाचल प्रदेश) के सन् 1967 तक डिप्टी कमिश्नर रहे। उसके बाद केन्द्र सरकार में कृषि, वन, स्वास्थ्य, पर्यावरण, शिक्षा और नियोजन विभाग में विभिन्न पदों पर उल्लेखनीय योगदान देते हुए सन् 1985 में राजकीय सेवा से निवृत्त हुए। उसके उपरान्त सन् 1996 तक उन्होने इंटैक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फाॅर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज) की प्राकृतिक धरोहर शाखा के महानिदेशक पद पर कार्य किया। सन् 1995 में उन्होने हिमालयी हितों के संरक्षण और विकास के उद्धेश्य से ‘हिमालय ट्रस्ट’ का गठन किया। वर्तमान में देहरादून में रहते हुए वे ‘हिमालय ट्रस्ट’ के माध्यम से सामाजिक सरोकारों से जुड़े हैं।

बचपन में ही मां के प्यार से वंचित नलनी को समाज के अधिसंख्यक लोगों की गरीबी बैचेन करती। उन्हें जब भी मौका मिलता वे सामाजिक सेवा में जुट जाते। बंगाल में सन् 1942 के अकाल समय में पीड़ितों की मदद में वे काफी समय तक सक्रिय रहे। दिल-दिमाग में आये सुविचारों को धरातल पर करके दिखाना उनके जुनून में रहा है। वे नैसगिर्क सौन्दर्य के रहस्यों को जानने को लालायित रहते। दून स्कूल में पढ़ते हुए प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डाॅ. सलीम अली का सानिध्य और मार्गदर्शन उन्हें मिला। डाॅ. सलीम के ‘बर्ड वाचिंग’ ज्ञान के माध्यम से पहाडों को जानने-समझने के लिए पर्वतारोहण के तरफ उनकी अभिरुचि बढ़ी। बाद में देश के कई महत्वपूर्ण पर्वतारोहण अभियानों में वे शामिल रहे हैं। एअर फोर्स में पाइलट रहते हुए जून, 1953 में ऐवरेस्ट अभियान के दौरान ‘एरियल फोटोग्राफी और सिने फिल्म’ टीम के सदस्य के रूप में उन्हें याद किया जाता रहा है।

एअर फोर्स से त्यागपत्र देने के बाद पर्वतों के प्रति अगाध प्रेम ने नलनी को फ्रंटियर सेवा के प्रति आकृष्ट किया। फ्रंटियर सेवा के दौरान विख्यात मानव विज्ञानी डाॅ. वेरियर एल्विन ने तो उनकी जीवन दिशा को ही परिवर्तित और परिष्कृत कर दिया। डाॅ. वेरियर के मार्गदर्शन में बचपन से ही गरीबों की सेवा करने के भाव ने वयस्क जीवन में आकार लेना प्रारंभ कर दिया। डाॅ. एल्विन ने महसूस कराया कि हर व्यक्ति की अपनी एक विशिष्ट पहचान और परिस्थिति होती है। व्यक्ति की विशिष्ट पहचान और परिस्थिति को समझते हुए ही जीवनीय अभावों से उपजे अवसादों को कम करके उसमें निहित प्रतिभा को जगाया जा सकता है। वास्तव में डाॅ. एल्विन ने नलनी को सिखाया कि लोगों की मानवीय गरिमा को बनाये रखते हुए उनकी कैसे मदद की जा सकती है।

तत्कालीन नेफा के ट्यूटिंग स्थान पर पौलिटिकल अधिकारी के रूप में श्री जयाल ने बहुत कम समय में वहां के स्थानीय लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनेपन की जगह बना ली थी। सर्वप्रथम उन्होने वहां की ‘आदि’ भाषा सीखना प्रारंभ किया, उनका सम्मान बनाये रखते हुए उनसे घुले-मिल, साथ ही उस इलाके में हर समय मौजूद सांप, बिच्छू, जोंक और भी अन्य मुश्किलों से दोस्ती कर ली थी। इस कठिन कार्य को हंसी-खुशी करते हुए सम्पन्न परिवार के युवा नलनी, सैनिक अधिकारी, पर्वतारोही और प्रशासक को संवेदनशील समाजसेवी, पर्यावरण प्रेमी, नीति-नियंता और चिंतनशील बनाने में नींव का काम किया। इसी दौरान डाॅ. वेरियर ऐल्विन के मार्गदर्शन में नेफा आदिवासियों पर शोध कार्य करने वाली युवा मित्र अमीना आसिफ अली (हैदराबाद के निज़ाम की पोती) और नलनीधर जयाल विवाह-सूत्र में बंध गए। डाॅ. वेरियर ऐल्विन ने इस शादी में पिता और पादरी दोनों भूमिका सहर्ष बखूबी निभाई।

सन् 1960 में इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज का भारतीय प्रशासनिक सेवा में विलय हुआ। इस प्रक्रिया में श्री जयाल को किन्नौर जनपद (हिमाचल प्रदेश) का डिप्टी कमिश्नर बनाया गया। नेफा से किन्नौर आना नलनी के लिए एक नये स्वर्णिम जीवन सफर की शुरुवात थी। श्री जयाल के कार्यभार ग्रहण करने के 2 माह बाद ही देशभर में अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों की पहचान के लिए बनाया गया ‘ढ़ेबर कमीशन’ का किन्नौर क्षेत्र में दौरा था। श्री जयाल ने दिन-रात एक करके किन्नौर क्षेत्र और उसके मूल निवासियों की विशिष्टता, जीवन-चर्या, रीति-रिवाज, परम्परा, धार्मिक विश्वास, आर्थिकी, शिक्षा आदि की गहन रिर्पाट तैयार की। ‘ढेबर कमीशन’ के सम्मुख इस वृहद रिपोर्ट का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण करके संपूर्ण किन्नौर क्षेत्र को अनुसूचित जनजाति क्षेत्र के दायरे में लाने में सफल हुए। इसके आधार पर किन्नौर क्षेत्र में बाहरी व्यक्ति द्वारा भूमि की खरीद पर प्रतिबंध लगा। जिसका फायदा किन्नौरी लोग आज भी ले रहे हैं। श्री जयाल ने किन्नौर जनपद में ‘सिंगल लाइन एडमिनिस्ट्रेशन’ नियम का सूत्रपात किया। जिससे प्रशासनिक कार्यों को अधिक सुविधाजनक, प्रभावी और दायित्वशीलता से किया जाने लगा।

किन्नौर जनपद के सभी 77 गांवों में नलनी गए और वहां रात्रि को डेरा डाला। गांव के लोगों से विचार-विमर्श करके उनके अनुभवों और सुझावों को स्वयं लिपिबद्ध किया। ग्रामीणों की मौजूदी में ही प्रत्येक गांव का दीर्घकालिक मास्टर प्लान किया गया। उसी मौके पर सरकारी योजनाओं के लिए उपयुक्त लाभार्थियों को चयनित करके उन्हें आवश्यक सरकारी मदद प्रदान की। फल और सब्जियों को नयी तकनीकी से पैदा करने का स्वयं प्रशिक्षण दिया। गांव में जाकर हल लगाना, अन्य कृषि कर्म करना, स्कूलों में पढ़ाना, लोगों के दुःख-दर्द और खुशियों में शामिल होना, गांव में बिखरी गंदगी को स्वयं साफ करके लोगों को स्वास्थ्य और उद्यमीय जीवन जीने के लिए प्रेरित करना श्री जयाल के सामान्य व्यवहार में था। श्री जयाल ने किन्नौर जनपद के प्रत्येक गांव में ‘किसान फेडरेशन’ बना कर उनके स्थानीय उपजों और उत्पादों (मुख्यतया- बादाम, अंगूर, सेब और चिलगौजा) की बिक्री को दिल्ली के बाजार से नियमित और सीधा जोड़ा। वे प्रतिदिन इसका मूल्याकंन करते और आवश्यक मदद के लिए हर समय तैयार रहते। निश्चित रूप में किन्नौर जनपद में सम्पन्नता और खुशहाली की शुरुवात सन् 1960 में होने लगी थी। श्री जयाल के इन शुरुवाती प्रयासों की बदौलत देश में किन्नौर आज सर्वाधिक आयकर देने वाले जनपदों में शामिल है।

वास्तव में, साठ के दशक में श्री जयाल किन्नौर क्षेत्र के सर्वागींण विकास की एक खूबसूरत लकीर खींच आये थे। उनके बाद के अधिकारियों के लिए अपने कार्य-दायित्वों को क्रियान्वित करने में श्री जयाल के प्रयास महत्वपूर्ण मार्गदर्शी साबित हुए। देश-दुनिया के चर्चित और मशहूर लेखकों की खोज-परख विख्यात किताबों में श्री जयाल के ‘किन्नौरी विकास माॅडल’ का उल्लेख किया गया है। श्री जयाल से लगभग 30 साल बाद किन्नौर जनपद के जिलाधिकारी रहे दीपक सानन एवं धानू स्वादि ने श्री जयाल के अभिनव प्रयासों पर ‘एक्सप्लोरिंग किन्नौर एंड स्पीति दन द ट्रांस हिमालया’ किताब लिखी है। लेकिन यह भी सोचनीय है कि देश के अन्य राज्यों में ‘किन्नौर विकास माॅडल’ प्रभावी रूप में नहीं अपनाया जा सका है।

सन् 1967 के बाद श्री नलनीधर जयाल केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों में कार्यरत रहे। इस दौरान केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय को स्थापित करने, देश की पर्यावरण नीति को तैयार करने, ‘स्वतंत्र पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन’ नीति को प्रारंभ करने, नंदादेवी नेशनल पार्क और फूलों की घाटी को विश्व धरोहर में शामिल करने, हिमालयी जंगलों में मोनोकल्चर के स्थान पर मिश्रित वन की अवधारणा विकसित करने, ग्रेट निकोबार आइलैंड को बायोस्फेयर बनवाने, केरल की सांइलैंट वैली के अस्तित्व को बनाये रखने आदि अनेकों महत्वपूर्ण कार्यो में उनकी प्रभावशाली भूमिका रही है।

सन् 1985 में राजकीय सेवा से निवृत्त होने के उपरान्त श्री नलनीधर जयाल ने सन् 1996 तक इंटैक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फाॅर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज) की प्राकृतिक धरोहर शाखा में बतौर महानिदेशक पद पर कार्य किया। इंटैक के माध्यम से उन्होने टिहरी बांध के विरोध की कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी। हेंवलघाटी, टिहरी (गढ़वाल) को हरा-भरा करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। इसके अलावा उन्होने हिमालयी उद्यमिता, साहित्य, परम्परागत ज्ञान, प्राकृतिक धरोहरों के संरक्षण हेतु उपाय, सामुदायिक रेडियो को प्रौत्साहन देने का कार्य किया। राज्य में सन् 1991 की भूकम्प विनाशलीला पर मरहम लगाने दौड़े-दौड़े चले आने वालों में वो भी शामिल थे। आम लोगों से मिलकर जमीनी सच्चाई को नीति-नियंताओं तक पहुंचाने के उनके हिस्से कई किस्से हैं। सन् 1995 में उन्होने हिमालयी हितों के संरक्षण और विकास के उद्धेश्य से ‘हिमालय ट्रस्ट’ का गठन किया। ‘हिमालय ट्रस्ट के माध्यम से वे वर्तमान में देहरादून में रहते हुए हिमालयी निवासियों के मौलिक और परम्परागत ज्ञान को सहेजने, हरित हिमालय, पहाड़ी जन-जीवन को अधिक उद्यमी एवं खुशहाल बनाने के लिए उपयोगी जानकारी वाली अनेकों पुस्तकों को तैयार करने और उसके प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने में मार्गदर्शी भूमिका निभा रहे हैं।

यह प्रसन्नता की बात है कि दून पुस्तकालय एवं षोध केन्द्र, देहरादून के संयोजन में ‘NALNI DHAR JAYAL-A MANY SPLENDORED LIFE’ पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस महत्वपूर्ण किताब का संपादन विद्वानगण सुरजित दास, इंदिरा रमेश और कुसुम रावत ने किया है। परम मित्र कुसुम रावत को उनकी लगन और मेहनत के लिए विशेष बधाई और आत्मीय धन्यवाद है। श्री नलनीधर जयाल के आलेखों के अलावा इसमें उनसे जुड़े मित्रों सुरजित दास, डाॅ. सतीश चन्द्रन नायर, डाॅ. वंदना शिवा, Dr. Margareta Ihse, इंदिरा रमेश, डाॅ. शेखर सिंह, S. Gopikrishna Warrior, विमला बहुगुणा, सुंदरलाल बहुगुणा, कुसुम रावत, धूमसिंह नेगी, विजय जड़धारी, सदन मिश्रा ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। लेकिन किताब के मर्म को रैको तेरासावा, हिरोमी निम्मी, जोगेश्वर सिंह, दीपक सनान और लखुपति जैसे साथी जो श्री नलनीधर जयाल की सफलता की कहानी के हिस्से और प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं से ही बखूबी समझा जा सकता है।

देश के 3 प्रधानमंत्रियों के साथ सराहनीय कार्य करने वाले श्री नलनीधर जयाल जीवनभर एक ऐसे सोशियल एक्टिविस्ट रहे हैं जिन्होने महत्वाकांक्षा के स्थान पर जीवन में करुणा, क्षमा और नम्रता को आत्मसात किया है। किताब में नलनी उल्लेख करते हैं कि ‘सफल अभिनेता वही है जो अपने हिस्से का बढ़िया अभिनय करके बिना शिकायत के वापस पर्दे के पीछे चला जाय।…आप किसी काम में सफल हो से ज्यादा जरूरी यह है कि आपको उस कार्य को करते हुए कितना आनंद आया था। मैंने भी एक अभिनेता की तरह जीवनीय अभिनय किया जिसमें बहुत आनंद आया। आज में अपने लम्बे अनुभवों के बाद संतुष्टि महसूस करता हूं कि मैंने हमेशा अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर जिंदगी को सुंदर बनाने के लिए वही किया जैसा कि जमीन पर खड़े रहकर किया जा सकता था।’