सूबे के नेताओं पर ब्यूरोक्रेसी हमेशा रही भारी
आईएएस अधिकारी के फेसबुक पोस्ट की खूब चर्चा
योगेश भट्ट
प्रदेश की नौकरशाही में इन दिनों एक रियाटर आईएएस अधिकारी के फेसबुक पोस्ट की खूब चर्चा है। इन साहब ने प्रदेश की नौकरशाही पर कड़ी टिप्पणी करते हुए उसे नेताओं के इशारों पर नाचने वाला बताया है। नौकरशाहों के रवैये पर की गई टिप्पणी इन अफसर की नितांत निजी राय है। लेकिन प्रदेश की हकीकत उनकी राय के बिल्कुल उलट है। यहां अफसर ‘नाचते’ नहीं बल्कि ‘नचाते’ हैं। चाहे नेता हो या जनता दोनों को ही नौकरशाह अपने इशारों पर चलाते हैं। काश ! ऐसा हो पाता कि कोई नेता अफसरों को अपने इशारों पर नचाने का माद्दा रखता। इस प्रदेश की तो जरूरत ही यह थी कि नेता राज्य हित को केंद्र में रखते हुए अफसरों से उस हिसाब से काम ले पाते। लेकिन यहां स्थिति बिल्कुल उलट है।
कायदा तो यह कहता है कि किसी जिले के डीएम पर सीएम का मनोवैज्ञानिक दबाव होना चाहिए, लेकिन यहां तो आलम यह है कि सीएम, डीएम के दबाव में रहता है। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि एक जिलाधिकारी साहब को रहने के लिए दो-दो सरकारी बंगले चाहिए होते हैं और मुख्यमंत्री आपत्ति जताने के बजाय उनकी फरमाइश पूरी करने की अनुमति दे देते हैं। सरकार पर नौकरशाही के दबाव का यह महज एक उदाहरण है। पिछले सोलह सालों का इतिहास उठा कर देखें तो मालूम पड़ता है कि नेताओं पर ब्यूरोक्रेसी हमेशा भारी रही है। इस अवधि में प्रदेश में जितनी भी अर्ध-सरकारी संस्थाएं स्थापित हुईं, उनमें नौकरी पाने वालों में नेताओं से ज्यादा संख्या अफसरों के करीबियों की रही है। अफसरों की अराजकता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि राज्य गठन के पांच साल बाद ही ‘प्रशासनिक सुधार आयोग’ की रिपोर्ट आ गई थी, जो आज तक लागू नहीं हुई।
दरअसल नौकरशाह इस बात को अच्छी तरह जानते-समझते हैं कि एक बार यदि प्रसासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट लागू हो गई, तो प्रदेश में कई ऐसी संस्थाएं झटके में बंद हो जाएंगी जो उनके लिए ‘ऐशगाह’ हैं। वे जानते हैं कि रिपोर्ट लागू होने के बाद उनका अघोषित साम्राज्य खतरे में पड़ सकता है। यही वजह है कि आज तक प्रदेश की नौकरशाही आयोग की रिपोर्ट पर मिट्टी डाले हुए है। नौकरशाही का जलवा यह है कि जो काम अधिकारियों को करने होते हैं, वे डंके की चोट पर हो जाते हैं। उनके आड़े कोई कायदा कानून नहीं आता। चाहे अपने लिए बेहताशा सुविधाएं जुटाना हो, रिहायशी कालोनी बनवानी हो, मनोरंजन के लिए क्लब खुलवाना हो या फिर सरकारी खर्च पर देश-विदेश का टूर बनाना, इन सब कामों के लिए उनके पास हर नियम-कायदे का तोड़ है। अफसरों की मनमानी का आलम यह है कि वे मंत्रिमंडल के फैसले तक बदलने का दु:स्साहस करने से नहीं घबराते। शासनादेश और नोटशीट में बदलाव करना तो उनके लिए मामूली बात है। इससे ज्यादा अराजकता क्या होगी कि जो अधिकारी शासन में सचिव होता है, वही अधिकारी उस विभाग का अध्यक्ष भी होता है। यानी एक हाथ से वित्तीय स्वीकृति को मंजूरी देना और दूसरे हाथ से उसे खर्च भी कर देना। तो बताइए कि यहां नौकरशाही नाच रही है नचा रही है?
मुख्यमंत्रियों के लिहाज से देखें तो एकमात्र एनडी तिवारी के अलावा अब तक प्रदेश का एक भी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं है, जो नौकरशाही पर अपना प्रभाव छोड़ पाया। एनडी तिवारी की भी यदि बात करें तो अफसरों के बीच उनकी भी उतनी ज्यादा ‘हनक’ नहीं थी। दरअसल उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा था, जिसके आगे अफसर मनोवैज्ञानिक तौर पर दबाव में रहते थे। बाकी मुख्यमंत्रियों की तो स्थिति यह रही कि उनके लाख कहने के बाद भी अफसरों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। उन्होंने वही किया जो उन्हें करना होता था। दरअसल उनकी नजर में किसी राजनेता की कोई अहमियत ही नहीं है, क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी ‘सरकार’ में पांच साल बिना किसी दबाव के काम करने और करवाने का माद्दा नहीं है।