राज्य के प्रमुख मेलों में शाम‌िल हुआ 119 साल पुराना बिस्सू मेला

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देहरादून : ठाणा डांडा में बीते 119 वर्ष से आयोजित हो रहा बिस्सू मेला राज्य के प्रमुख मेलों की अनुदान सूची में शामिल हो गया है। मेले को उत्तराखंड संस्कृति विभाग ने मान्यता प्रदान कर दी है। अब मेले के आयोजन और मेला स्थल को विकसित करने के लिए राज्य सरकार की ओर अनुदान दिया जाएगा।

यूं तो बैसाख मास के आगमन पर जौनसार बावर में जगह-जगह बिस्सू मेला का आयोजन होता है, लेकिन 1898 से ठाणा डांडा में लगातार आयोजित हो रहे इस मेले की बात ही निराली है। दूर-दराज से लोग इस मेले में हिस्सा लेने पहुंचते हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप पर मेले में लोक संस्कृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

बिस्सू मेला प्रबंध समिति के अध्यक्ष केशव राम का कहना है कि मेले को मान्यता मिलने से क्षेत्र में खुशी की लहर है। अब मेले के आयोजन में राज्य सरकार भी भागीदारी निभाएगी। ऐसे में मेले का और भव्य रूप से आयोजन हो सकेगा।

बिस्सू मेले में हिस्सा लेने के लिए जौनसार बावर के साथ ही पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तरकाशी और टिहरी जिले से भी लोग पहुंचते हैं। संस्कृति विभाग की निदेशक बीना भट्ट ने बताया कि जिलाधिकारी के माध्यम से विभाग मेलों को अनुदान देता है। इस सूची में बिस्सू जैसे महत्वपूर्ण मेले को भी जोड़ दिया गया है।

ठाणा डांडा में 1898 से आयोजित हो रहे बिस्सू मेले की भव्यता जितनी खास है, उससे भी खास मेले के शुरू होने की वजह है। ठाणा गांव और बनगांव खत के लोग मिलकर इस मेले का आयोजन करते हैं। ठाणा गांव खत उपल गांव के अंतर्गत आता है। बुजुर्गों का कहना है कि साल 1898 से पूर्व किसी बात पर उपल गांव खत ने ठाणा गांव के लोगों का बॉयकाट कर दिया।

ग्रामीणों के खत में आयोजित होने वाले मेले और कार्यक्रमों में हिस्सा लेने पर पूर्णत: रोक लगा दी गई। जिसके बाद ठाणा गांव के लोगों ने खत बनगांव के लोगों से मेले के आयोजन में सहायता मांगी। जिस पर बनगांव ने सहमति दे दी। इसके बाद 1898 से ठाणा डांडा में मेले की शुरुआत हुई। देखते ही देखते मेले ने कुछ ही समय में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली और यह मेला सबसे खास हो गया।
मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह संग्राम तीन दिन तक चलता है।

घबराइए नहीं, यह युद्ध असल नहीं, बल्कि एक लोक कला का रूप है और नृत्य शैली में किया जाता है। यहां की बोली में इस युद्ध को ‘ठोउडा’ कहते हैं। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता है। दर्शक उत्साह बढ़ाने के साथ ही नगाड़े बजाते रहते हैं।

लयबद्ध ताल पर ढोल-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्ध नृत्य का अंदाज भी बदलता रहता है। युवक -युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं। जानकारों का मानना है कि यह विधा महाभारत के युद्ध का ही प्रतीकात्मक रूप है। आज के बदलते परिवेश में टूटती-बिखरती मिथकीय मान्यताओं के बीच परमाणु युग में भी यह पौराणिक धनुष बाण युद्ध जारी है। इस युद्ध के उत्साह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते।