उत्तराखंड में जनांदोलनों के विश्वसनीय नेता शमशेर सिंह बिष्ट को हार्दिक श्रद्धांजलि, पुण्य स्मरण
रमेश पहाड़ी
रुद्रप्रयाग । छात्र नेता के रूप में सामाजिक हित-चिंता से अपने संघर्षमय जीवन की शुरुआत करने वाले और बाद में छात्र-युवा वाहिनी, चिपको आंदोलन, उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी, उत्तराखंड लोक वाहिनी जैसे संगठनों के माध्यम से एक सर्वाधिक विश्वसनीय जननेता के रूप में उत्तराखंड में जनांदोलनों के सर्वमान्य नेता शमशेर सिंह बिष्ट की आज प्रथम पुण्य-तिथि है। सामाजिक सरोकारों के लिए संघर्षरत सैकड़ों साथी इस मौके पर अल्मोड़ा में एकत्र होकर उन्हें, उनके समर्पित व संघर्षपूर्ण जीवन को नमन करते हुए, उनका पुण्य स्मरण करेंगे, उन्हें हृदय से श्रद्धांजलि प्रदान करेंगे। उनकी नेतृत्व-क्षमता, संगठन-क्षमता, सादगी, ईमानदारी, कर्मशीलता, उनके साथ किये गए जनांदोलनों, संघर्षों को भी साझा करेंगे। उनके आदर्शों, संकल्पों को आगे बढाने की बात भी करेंगे। यह सर्वथा उचित और सामयिक है। मैं मित्र राजीव लोचन साह, गोविंद पंत राजू, अजेयमित्र बिष्ट आदि के प्रेमाग्रह तथा अपनी अतिशय इच्छा के बावजूद इस अवसर पर विकट परिस्थितियों के कारण अल्मोड़े में नहीं हूँ। इसका मुझे हार्दिक दुःख है। वहाँ होता तो परिजनों, मित्रों से भेंट होती, साथियों से मुलाकात होती, क्रांतिकारी साथियों के नए संकल्प सुनने-समझने को मिलते लेकिन इससे मैं प्रत्यक्षतः वंचित हूँ।
मैं शमशेर को उत्तराखंड का सबसे विश्वनीय और निष्ठावान जननेता मानता हूँ। अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध कोई शिकायत मिले और वे कंधे में झोला लटकाकर बिना देर किए, घर से निकल न पड़ें, यह मैंने कभी नहीं सुना और न देखा। उससे उन्हें और उनके परिजनों को क्या कष्ट होगा, इसका उन्होंने कभी विचार नहीं किया। चिपको आंदोलन के दौर में जब चंडी प्रसाद भट्ट जी ने दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के माध्यम से रचनात्मक कार्यों की एक लंबी श्रृंखला आरम्भ की तो उसमें शमशेर बड़े उत्साह के साथ शामिल होते। कई बार इस संबंधी शिविरों का संचालन मुझे करना पड़ता। 1976 में गौणा घाटी में पारिस्थितिक पुनरुद्धार के दौरान शीतकालीन वृक्षारोपण शिविर निजमूला (विरही घाटी) में लगा था। रात को भारी बर्फबारी हो गई। पानी था नहीं तो सुबह की चाय भी कैसे बनती? शिविर संचालक के रूप में जिम्मेदारी मेरी थी कि मैं व्यवस्था करूँ। मैंने भी सब साथियों, जिनमें कुमांऊँ, गढ़वाल के अलावा दिल्ली से भी छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार शामिल थे, को आदेश दिया कि बर्फ में रास्ता तलाश कर 1 किमी दूर स्थित स्रोत से पानी ढोकर लाएं, तब चाय मिलेगी। सबको बड़ा अटपटा लगा, कुछ नाक-भौं सिकोड़ने लगे लेकिन शमशेर ने एक पतीला उठाया और पानी के लिए चल पड़े। उनकी देखा-देखी अन्य साथी भी पानी लाने निकल पड़े और भारी ठंड के बीच हम सबने इसी तरह बिरही नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में 7 दिन तक वृक्षारोपण किया।
मई 1977 में गोपेश्वर में ही हम लोगों ने उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी का गठन किया। उसमें भट्ट जी एवं योगेश बहुगुणा जी ने सर्वोदयी चिंतन के अनुरूप सत्ता की राजनीति न करने का एक संकल्प-पत्र भरवाया। वाहिनी के कार्यक्रम बैठकों के साथ शुरू हुए। उस समय छात्रों व युवाओं के मुख्य नेता के रूप में शमशेर लोगों में छाए हुए थे। उ प्र विधान सभा के लिए 1977 के चुनाव में शमशेर सिंह अल्मोड़ा में लोगों की सबसे पहली पसंद थे। लोगों ने उन पर विधान सभा चुनाव लड़ने का दबाव डाला। उनकी सहमति से पहले ही उनका प्रचार शुरू हो गया। इसकी सूचना गोपेश्वर भट्ट जी के पास पहुँची तो वे पसोपेश में पड़ गए। तय हुआ कि शमशेर जी को वाहिनी का संकल्प याद दिलाया जाए कि सत्ता की राजनीति नहीं करनी है और चुनाव नहीं लड़ना है। मुझे यह कहने के लिए अल्मोड़ा भेजा गया। वहाँ वे बड़ी संख्या में छात्रों-सामाजिक कार्यकर्ताओं से घिरे हुए थे। जब उनके समर्थकों को पता चला कि मैं उन्हें चुनाव न लड़ने का संदेश लेकर और आग्रह करने आया हूँ तो वे भड़क गए। शमशेर ने उन्हें बहुत मुश्किल से शांत किया और मुझे उनके कोप से बचाया। मैं मानता हूँ कि यह हमारी सबसे बड़ी भूल थी और हमने शमशेर के रूप में उत्तराखंड की एक बड़ी राजनीतिक संभावना को समाप्त करने का बड़ा पाप किया। उस समय शमशेर को उ प्र विधान सभा में पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता था और हमें एक सशक्त राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त होता।
अनेक आंदोलनों, अभियानों में साथ रहने के अलावा शमशेर को उत्तराखंड के पत्रकार आंदोलन में दमदार भूमिका के लिए भी मैं कभी नहीं भूल सकता। 25 मार्च 1988 को शराब माफियाओं द्वारा पौड़ी में पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद हम पत्रकारों ने पत्रकार संघर्ष समिति (गढ़वाल-कुमाऊं) का गठन किया और मुझे उसका संयोजक बनाया गया। मेरी सहायता के लिए नंदकिशोर खंडूड़ी और कुंजबिहारी नेगी को सह-संयोजक बनाया गया। कुंजी भाई पर माफियाओं ने दबाव बनाया तो उन्होंने समिति में बने रहने पर असमर्थता व्यक्त कर दी। आंदोलन चरम पर था और माफिया इसे तोड़ने, कमजोर करने में पूरी ताकत लगा रहे थे। ऐसे में मैंने शमशेर जी को फोन किया और बताया कि यदि वे इसमें तुरंत शामिल न हुए तो संघर्ष कमजोर पड़ जाएगा। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया और मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब वे दूसरे ही दिन रुद्रप्रयाग मेरे सामने खड़े मिले। उसके बाद ही इस आंदोलन को उत्तराखण्डी स्वरूप मिला। फिर हम मिलकर पूरे उत्तराखंड के साथ ही दिल्ली, लखनऊ गए और इस आंदोलन को जबर्दस्त सफलता मिली।
मैं यह भी मानता हूँ कि जन-संघर्षों की एक बड़ी व अविरल श्रृंखला का ईमानदारी से नेतृत्व करने में उन्होंने खोया ही खोया है, पाया कुछ नहीं। इसमें उनकी पत्नी, बच्चों सहित सभी परिजनों की भूमिका को भी हम अनुभव करें, इसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता व आभार व्यक्त करें, यह भी बहुत जरूरी है।
शमशेर जैसा सच्चा, अच्छा, विश्वसनीय व दृढ़ इच्छा-शक्ति वाला जननेता सर्वथा दुर्लभ है। हार्दिक श्रद्धांजलि।
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