देहरादून। पेड़ में पक चुके फल जिस तरह हवा के एक हल्के झोंके मात्र से नीचे गिर जाते हैं, उसी तर्ज पर लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा के पाले में लोकसभा सीटें आई थीं। हालांकि कुछ लोगों ने इसे तुक्का भी माना था, और 2017 के विधानसभा चुनाव में ऐसे लोगों को जवाब मिल गया कि लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का भाजपा के प्रति रूझान तुक्का नहीं बल्कि मोदी लहर का परिणाम ही था।
2017 के विधानसभा चुनाव भी मोदी का चेहरा सामने रखकर लड़ा गया। मोदी लहर का ही नतीजा कि भाजपा को 56 सीटों पर जीत और एक सीट पर बढ़त मिली। जबकि कांग्रेस के विधायकों की संख्या फिलहाल 11 तक सिमटकर रह गई है। प्रदेश की चौथी विधानसभा के गठन की अधिसूचना जारी हो चुकी है। और राज्य की राजनीति में कांगे्रस की अगर बात करें तो भले ही कांग्रेसी नेतागण मजबूत विपक्ष की भूमिका में खड़ा होने की बात कह रहे हों। मगर इस हकीकत से कांग्रेस भी भली तरह वाकिफ है कि मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने में कई रोड़े राह में हैं। वरिष्ठतम नेताओं श्रेणी में शुमार किए जाने वाले अधिकांश चेहरे या तो चुनाव पूर्व पार्टी छोडक़र जा चुके हैं या फिर चुनाव परिणामों में धराशाही हो चुके हैं।
संगठन की बागडोर मजबूती से पकड़े रहने वाले किशोर उपाध्याय चुनाव हार चुके हैं। ऐसे में मात्र 11 विधायकों के सहारे ही पूरे पांच साल तक सत्ताधारियों पर जनहितैषी फैसलों को लेकर दबाव की रणनीति पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो सकती। ऐसे में पूरी संभावना कि आलाकमान प्रदेश में पार्टी और संगठन में फेरबदल कर मजबूत हाथों में कमान सौंप सकता है।
उल्लेखनीय रहे कि मोदी लहर के बीच कांग्रेस के जिन 11 नेताओं की विधायकी बच सकी है, उनमें डा. इंदिरा हृदयेश, गोविंद सिंह कुंजवाल और प्रीतम सिंह का ही राजनीतिक तजुर्बा अधिक गहराई वाला है। ऐसे में विपक्ष में बैठने वाली कांग्रेस की कमान इनमें से किसी एक नेता को दी जा सकती है। वहीं संगठन में आने वाले दिनों में आमूलचूल बदलाव तय है। पार्टी और संगठन दोनों ही में नेताओं की जिम्मेदारियोंं में अदला बदली किया जाना मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने के लिहाज से निहायत जरूरी भी माना जा