बौद्धिक संपदा अधिकार में पंजीकृत हुआ रंगकर्मी गजेंद्र नौटियाल का गढ़वाली नाटक संग्रह ‘तिमुंड्या‘ 

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नाटक संग्रह ‘तिमुंड्या‘ गढ़वाली रंगमंच को समृद्ध करने में निभाएगा एक महत्वपूर्ण भूमिका 

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 

पद्मश्री डा.प्रीतम भरतवांण ने दी शुभकामना 

प्रख्यात साहित्यकार श्री गजेंद्र नौटियाल का गढ़वाली मंचीय नाटकों का संग्रहति मुंड्या पढ़ने को मिला। ये संग्रह किताब के रुप में प्रकासित होकर आप हम सबके लिए उपलब्ध होगा,की बधाई।
साहित्यकार गजेंद्र नौटियाल,पिछले 35 सालों से गढ़वाळी रेडियो,मंचीय और नुक्क्रड़ नाटकों से सक्रिय दूरदराज पहाड़ के गांवों कस्बों में जनजागरण अभियान चला रहे हैं। श्री नौटियाल के नुक्कड़,कठपुतली और रेडियों विद्या के दो नाटक संग्रह पहले प्रकाशित हो चुके हैं जिसमें उनका का यह पहला मंचीय नाटक संग्रह ‘‘तिमुड्या’’ नाम से प्रकाशित हो रहा है।
प्रकृति और यथार्थ के दर्शन अगर किसी विद्धान लेखक के साहित्य में झलकता है तो वो निसंदेह गजेंद्र नौटियाल ही हैं। तिमुड्या नाटक संग्रह पढ़ते प्रकृति और मनुष्य के बीच के संबध और संबधों की लकीरों के आर पार डोलता नाटकों का कथानक हृदय को छू जाता है। नाटकों में वे जहां प्रकृति और जीवन के श्रृंगार है वहीं मेहनतकश इंसानों की पीड़ा के जीवंत दर्शन होते हैं। आपके सभी नाटक अवचेतन मंन के अंदर तक उतरते, झकझोरते हैं।
आदमी की पीड़ा प्रकृति कि मासूम स्पर्श से कुछ क्षणों का आंनद देते से लगते हैं पर दर्शक के मन पर आशा की अमिट संभावनांओं की लकीरे छोड़ते चलते हैं। कभी लगता है कि आपके नाटकों में जीवन का गूढ रहस्य भरा है जो मंचों पर भी उसी भाव को उत्प्रेरित करता दिखता है।
श्री गजेंद्र नौटियाल के नाटक विषयों की गहराई तक जाकर समाज को आयना दिखाते हैं तो वहीं एक सृजन को भी दिशा देते हैं।आपके सभी नाटक मेरे अवचेतन को सत्य का दर्शन कराते चले गये। आप सिर्फ अपना काम करना जानते हैं इसीलिए बुद्धिजीवियों में आपका अथाह सम्मान है।

(डा.प्रीतम भरतवांण (भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री से सम्मानित )

 

देहरादून : रंगकर्मी, साहित्यकार श्री गजेंद्र नौटियाल का ”तिमुंडिया” गढ़वाली नाटक संग्रह बौद्धिक संपदा अधिकार (प्रतिलिप्याधिकार अधिनियम 1957, संख्यांक 14)कानून के तहत C- पंजीकृत हुआ है।

इस नाटक संग्रह पर डा. अजीत पंवार प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि कुछ मन की कुछ जीवन की सर्वप्रथम गजेन्द्र नौटियाल जी को उनके तिमुंडिया गढ़वाली नाटक संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाइयां। उन्होंने कहा श्री नौटियाल जमीन से जुड़े हुए एक सक्रिय रंगकर्मी हैं जिनका साहित्यिक योगदान कई वर्षों से गढ़वाली-हिन्दी रंगमंच को समृ़द्ध करता आ रहा है। ये कई वर्षों से रेडियो मुखोटा,कठपुतली, नुक्कड़, मंचीय नाट्यकलाओं जैसे शैलियों में नए-नए प्रयोग करते आ रहे हैं, जिसमें इन्होंने निर्देशन,लेखन और अभिनय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन प्रयोगों के माध्यम से ये अपनी बोली-भाषा और लोकसंस्कृति के संवर्द्धन हेतु अपनी दुध बोली गढ़वाळी भाषा की सेवा करते आ रहे हैं।  जिसका स्तरीयता का जीता-जागता उदाहरण इनका गढ़वाली नाटक संग्रह ‘तिमुंड्या‘ है।

उन्होंने बताया कि नाटक संग्रह ‘तिमुंड्या‘ तीन मंचीय गढ़वाली नाटकों का संग्रह है और चौथा रेडियो नाटक ‘‘तितरु’’ पाठकों को इस संग्रह में मंच और रेडियो के बीच के अंतर को समझने के लिए रखा गया है। संग्रह के माध्यम से समाज में व्याप्त मानव के अंर्तद्वन्धों और पीड़ाओं को विभिन्न चरित्रों के रूपों में उदघटित करता है।

तीनों नाटक मंचीय नाट्यशिल्प को ध्यान में रखकर लिखे गए हैं। तीनों नाटकों में एक मुख्य पात्र है जिसके चारों ओर पटकथा कई घटनाओं का सहारा लेकर आगे बढ़ती है। ‘तिमुंड्या‘ में पात्रों की संख्या सीमित है फिर भी वे समाज के कई वर्गों की असीमित भावनाओं को व्यक्त करने में सफल होते हैं। नाटककार ने तीनों नाटकों में दृश्य विन्यास, संगीत-ध्वनियां,वेशभूषा और प्रकाश परिकल्पना पर भी चर्चा की है जिससे नाटक प्रदर्शन में सुविधा हो।

इस संग्रह का पहला नाटक संवाद की दृष्टि से काफी सशक्त है। एक सुबदा, पीड़ित महिला अपने दर्द को डिमरू नामक पात्र के बहाने दर्शकों के साथ बांटती है। उसके संवाद उसके जीवन की संघर्ष की कहानी को बयां करती है। नाटक की नायिका सुबदा समाज में अपने अस्त्वि के लिए संघर्ष कर रही नारियों का प्रतिनिधित्व करती है जो महिला सशक्तिकरण का जीवंत उदाहरण है।

इस संग्रह का तीसरा नाटक भुलक्कड़ है जो मानव की भूलने की प्रवृति पर निर्भर है। नाटक में यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि भुलक्कड़पन कैसे जीवन को सकरात्मक और नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। नाटक प्रहसन होते भी जीवन की सच्चाई को व्यक्त करता है। इस नाटक के सभी पात्र आम इंसान की व्यथा को व्यक्त करते हैं। नाटक में प्रकृति और मानवीय संबधों के चक्र को खूबसूरती से बिंबित किया गया है।

इस संग्रह का दूसरा नाटक है एक थौ वीरसिंह यह नाटक एक लोकगाथा पर आधारित है। लोकमानस में रचे बसे एक ऐसे पात्र की कहानी है जो मौत के अर्थ से अनजान अपने गांववालों की खुशी के लिए अपना जीवन बलिदान कर देता है।नाटकार ने इस लोक गाथा को अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए कुछ समसामयिक घटनाओं के आलोक में ब्याख्यित किया है।जिससे समाज की वर्तमान स्थिति दृष्टिगत होती है। इस नाटक में आंगिक अभिनय के कार्य व्यापार की अधिकता है और विस्तृत दृश्य विन्यास भी दृष्टिगत होता है। नाटक में कई करूणामय संवाद हैं जो दर्शकों को रोने के लिए विवश करते हैं।यह नाटक करुणारस से पठनीय हो गया है।

श्री गजेन्द्र नौटियाल का यह नाटक संग्रह ‘तिमुंड्या‘ गढ़वाली रंगमंच को समृद्ध करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और नई पीढ़ियों को अपनी लोकभाषा गढ़वाली की ओर प्रेरित करेगा। अंत मैं भगवान से यही प्रर्थना करता हूं कि उनकी लेखनी निरंतर गतिमान रहे और समाज कोप्रेरित करती रहे।