शासक और शसित का भेद मिटना ही सच्चा लोकतंत्रः प्रोफेसर रिन्पोचे

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11 सितंबर विनोबा जयंती पर विशेष आलेख …….

  • बौध भिक्षु प्रोफेसर सैम डाँग रिम्पोचे का दिया कालजयी सम्बोधन  ….
  • प्रेम-करूणा-सेवा के गुणों से लबालब भरे थे विनोबा भावे : प्रो. रिन्पोचे

गांधी और विनोबा को अगर एक साथ विचार और आचरण के धरातल पर समझना हो तो प्रोफेसर रिन्पोचे से सुंदर जीवंत किवदंती दुनिया में नहीं। ऐसा व्यक्तित्व सदियों में पैदा होता है।

कुसुम रावत 
भूदान आंदोलन के नायक आचार्य विनोबा भावे को गांधी जी का अध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है। लेकिन मां रूकमणी देवी और पिता नरहरि शंभूराव के इस यशस्वी पुत्र को बापू अपना मार्गदर्शक मानते थे। वह कहते थे कि विनोबा मेरे आश्रम को अपने पुण्य प्रताप से सींचने आये हैं। वह यहां कुछ लेने नहीं बल्कि देने आये हैं। वास्तव में गांधी और विनोबा एक दूसरे के पूरक हैं। बापू के ‘सर्वधर्म समभाव’ के कालजयी सिद्धांत पर विनोबा जी के अलावा कोई दूसरा जीवंत उदारहण दुनिया में नहीं है। ‘सर्वधर्म समभाव, सादगी, प्रेम और करूणा विनोबा जी का जीवन दर्शन है। उन्होंने विश्व शांति-सद्भाव-प्रेम का आवहान करते हुए दुनिया को जय जगत का अभिवादन व नई दृष्टि देकर उद्घोष किया कि-

‘‘हम किसी देश विशेष के अभिमानी नहीं। किसी धर्म विशेष के आग्रही नहीं। किसी संप्रदाय या जाति के बद्ध नहीं। विश्व में उपलब्ध सदविचारों के उद्यान में विहार करना हमारा स्वाध्याय है। और सद्विचारों को आत्मसात करना ही हमारा धर्म।’’

ऐसे कालजयी व्यक्तित्व पर टिप्पणी करना बेहद कठिन है। 11 सितंबर विनोबा जयंती है। 9 सितंबर 2017 को सर्वोदय मंडल देहरादून द्वारा आहूत विनोबा स्मृति व्याख्यानः ‘‘वर्तमान परिपेक्ष्य में विनोबा विचारों की प्रासंगिकता’’ पर मुख्य वक्ता थे- बौद्ध धर्म गुरू परम श्रृद्धेय प्रोफेसर सैमडांग रिन्पोचे। उस दोपहरी प्रोफेसर रिन्पोचे का कालजयी व्याख्यान किसी सम्मोहन लोक की यात्रा सरीखा था। गांधी-विनोबा की अध्यात्मिक और सामाजिक क्रांति का ऐसा अद्भुत क्रांतिकारी विश्लेषण सिर्फ वही कर सकते थे। उन्होंने विषय के मूल शब्दों वर्तमान, परिप्रेक्ष्य, प्रासंगिकता की गहराई में जा कुछ मूलभूत सवाल उठाये, जिसने हमें विषय पर गहराई से सोचने के साथ ही अपनी सोचने की प्रक्रिया पर भी सवाल उठाने को मजबूर किया। यह अनोखी गोष्ठी देहरादून के एम. के.पी. कालेज में हुई। एक ऐसा महाविद्यालय जो 115 साल के इतिहास में पं. नेहरू, सरोजनी नायडू, ब्रिटेन की महारानी और कलाम साहब की आहटों का साक्षी हो। वहां बही इस बौद्ध भिक्षु की अध्यात्मिक ऊर्जा और सामाजिक चेतना का प्रवाह मेरे मनो-मस्तिष्क पर एक जीवनपर्यंत सुखद अहसास के तौर पर कैद है। वह भारत में दो बार प्रवासी तिब्बतियों के कलों त्रिपा- प्रधानमंत्री व बनारस तिब्बती विश्वविद्यालय के संस्थापक व कुलपति रहे। गांधी और विनोबा को अगर एक साथ विचार और आचरण के धरातल पर समझना हो तो प्रोफेसर रिन्पोचे से सुंदर जीवंत किवदंती दुनिया में नहीं। ऐसा व्यक्तित्व सदियों में पैदा होता है।

वर्तमान समय में विनोबा विचारों की प्रासंगिकता पर टिप्पणी करने का दुस्साहस वही कर सकता है, जो ना सिर्फ इन विचारों के गूढ़ तत्वों का ज्ञाता हो बल्कि उन विचारों को जीते हुए उनका मशालवाहक भी हो। प्रोफेसर रिन्पोचे ने 40 मिनट के व्याख्यान और प्रश्नोत्त्तरी में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। एक अजीब सन्नाटे, सम्मोहन और अध्यात्मिक ऊर्जा के बीच हाल में गूंजे इस मूर्धन्य विद्धान के शब्दों व ऊर्जा की सरसराहट मुझे आज भी रोमांचित करती है। मैंने मुद्दतों बाद उस ब्रहमांड नायक की छलछलाती ऊर्जा का सम्मोहन इस बौद्ध भिक्षु की उपस्थिति में महसूसा। मैं तो साल भर से उसी नशे के आगोश में हूं। 11 सितंबर 2018 को विनोबा जयंती पर हमने लोभवश वही रिकार्डिंग सुनी। आप भी बटोरें वह ऊर्जा प्रवाह-

प्रोफेसर रिन्पोचे बोले- मुझे जिम्मेदारी मिली है कि मैं इस विषय पर बोलूं। पर क्या बोलूं? जो कुछ मैं बोलूंगा वह आपको बोर करेगा। आपने मेरा सही परिचय नहीं दिया। सो मैं दे रहा हूं- मैं एक नितांत अनएजुकेटेड व्यक्ति हूं। एजूकेशन ने मुझे छुआ तक नहीं। मैंने थोड़ा बहुत शिक्षा लिया। लेकिन वर्तमान में शिक्षा को एजूकेशन में नहीं गिना जाता। सो एक अनएजुकेटेड व्यक्ति जो 17 वीं सदी की भारतीय सभ्यता में जीवनयापन करता है, वह कैसे 21 वीं सदी के एजूकेटेड और अपटूडेट लोगों से बात कर सकता है? मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि वर्तमान और उसका परिप्रेक्ष्य क्या है? विनोबा विचार बहुत विशाल है। सो मैं किस बिंदु और किस दृष्टि से उसका शोध करूं? यह तय करना बड़ा कठिन है। सो मैं कुछ नहीं कह पाऊंगा। हां कुछ प्रश्न जरूर आपके सामने रखूंगा जो मेरे मन में इस विषय पर उपजे हैं।

बौद्ध भिक्षु बोले- पूर्व वक्ताओं ने गांधी के बारे में कहा है कि आने वाली पीढ़ियां कभी यकीन न करेंगी कि ऐसा हाड़-मांस का बंदा धरा पर पैदा हुआ था। विनोबा भी ऐसा ही एक आदमी था- प्रेम-करूणा-सेवा के गुणों से लबालब भरा। विनोबा पर बोलने से पहले हमें भारतीय व पश्चिमी सभ्यता का भेद समझना होगा। पश्चिमी सभ्यता में जो कल कुछ नहीं था और आज बड़ा है, वही सफल है। पर भारतीय सभ्यता में वह बड़ा है। जिसने अपना सब कुछ किसी बड़े मानवीय कार्य हेतु त्यागा। सो गांधी-बुद्ध-विनोबा भारतीय दर्शन के अनुसार बहुत बड़े हैं। उसका कारण है- उनका जीवन दर्शन और खरा आचरण एक सा था। सद्भावना, प्रेम, करूणा ही उनकी धरोहर है। वह किसी चकाचौंध से प्रभावित ना थे। वह गांवों के जीवन को महत्व देते थे। क्योंकि गांवों में सादगी और प्रेम कूट-कूट कर भरी है। विनोबा कहते थे- शहरों को मनुष्य ने बसाया पर गांव को ईश्वर ने बसाया। इसीलिए वहां प्रेम है, स्वावलंबन है, शांति है, क्षमा है। जिंदगी की पाठशाला में कामयाबी के लिए जो पाथेय जरूरी है- वह विनोबा विचारों में रचा बसा है। यही विनोबा विचार की प्रासंगिकता है। क्योंकि विनोबा में वह सब कुछ है- जो मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी है। विनोबा विचार ऐसा रंग है कि जिससे आप अछूते नहीं छूट सकते। एक बार संपर्क में आने से आप विनोबा रंग में रंग ही जाते हो। प्रोफेसर बोले- सो मैं विनोबा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक दो बातें ही जोड़ूंगा।

विनोबा मेरे विचार से एकमात्र व्यक्ति हैं जिनका गांधी ने विशेष परिचय दिया कि- विनोबा कौन हैं? यह लंबा परिचय 20 अक्टूबर 1940 के ‘हरिजन’ में छपा है। विनोबा के चरित्र और व्यक्तित्व को जानने हेतु यह पढ़ना होगा। उसमें गांधी ने विनोबा के अंडरग्रेजुएट होने, वह आश्रम में कैसे आये? आश्रम में वह क्या-क्या काम करते थे? कताई व खास तौर पर चरखे से कताई में उनकी विशेषज्ञता और लंबी कताई की सूक्ष्म तकनीक व कताई के पीछे उनकी क्या भावना रही होगी? संपूर्ण सृष्टि में कताई के महत्व और आशा देवी के साथ विनोबा के भूदान व शिक्षा में योगदान का जिक्र है? उसे पढ़ आप विनोबा को थोड़ा ही समझ सकोगे। 

गांधी जी के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना भाषण के बाद विनोबा को नई दृष्टि मिली। वह गांधी जी के आश्रम में चले आए। संस्कृत के विद्धान, परंपरागत व आधुनिक दोनों शिक्षाओं को ग्रहण करने वाला विनोबा जैसा प्रतिभाशाली व्यक्तित्व असमंजस में था कि मैं सामाजिक क्रांति का पाठ सीखने बंगाल जाऊं या संत पंरपरा में साधना करने हिमालय? पर गांधी जी को सुनकर विनोबा ने तय किया कि मुझे हिमालय जाने की जरूरत नहीं। क्योंकि गांधी जी के पास मेरा अध्यात्मिक तप होगा और सामाजिक क्रांति हेतु भी गांधी जी से बेहतर कोई नायक नहीं? इस दृष्टि से वह गांधी जी के पास ठहरे। वहां उनको क्रांति और शांति का सुंदर सबक मिला। क्योंकि गांधी जी सामाजिक व आध्यात्मिक क्रांति का अद्भुत समन्वय थे।

गांधी जी के बहुत से विचार, दृष्टि और परियोजनाएं थीं। वह अपनी पंरपरा और विचार सूत्र रूप में संक्षिप्त में देते। बाद में अलग-अलग विषय के जानकार उनका विस्तार कर शास्त्र का रूप देते। ‘गांधी के अर्थव्यवस्था’ के दर्शन को कुमारप्पा जी ने ‘इकोनामिक्स ऑफ परफौरमेंस’ में नामक शास्त्र में ढ़ाला। ‘नई तालीम’ के विचार का ई.आर.डब्लू. आरण्यकम व आशा देवी और बाद में जाकिर हुसैन ने उच्च शिक्षा के लिए विस्तार कर शास्त्र रूप दिया। गांधी जी के सर्वधर्म समभाव पर विनोबा जी को छोड़कर कोई सक्षम व्यक्ति नहीं था। वह सर्वधर्म समभाव की जीती जागती मिसाल हैं। विनोबा जी ने समस्त धर्मों के सार का अध्ययन कर वेद, गीता, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों, वेदांत, अभेद वेदांत, धम्मपद, जैन दर्शन पर बहुत अदभुत भाष्य लिखकर इनमें समन्वय का कार्य किया। यह कार्य गांधीजी के सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत को समन्वित या समझौता करने की दृश्टि से नहीं किया गया। बल्कि विनोबा ने यथार्थ में ऐसा विस्तार किया, जिसे तर्क और अनुभूति के कसौटी पर कसा जा सके। विनोबा जी के अलावा यह किसी और के बूते की बात थी भी नहीं।

गांधी वांगमय गांधी जी का मूलशास्त्र है। यह करीब 110-115 जिल्दों में छपा है। मैं उसके मूल और आधारभूत ग्रंथ के रूप में हिंद स्वराज को मानता हूँ । हिंद स्वराज पर टीका-टिप्पणी बहुत लोगों ने की लेकिन जिस गहराई और संक्षिप्तता से विनोबा जी ने इसका अर्थ सहित व्याख्यान ‘‘स्वराज शास्त्र’’ में लिखा, वह अद्भुत है। इसका अध्ययन किये बगैर हिंद स्वराज को ठीक से नहीं समझ सकते। इसलिए मैं विनोबा जी के ‘स्वराज शास्त्र’ को भी मूल शास्त्र मानता हूँ। स्वयं विनोबा वांगमय बहुत विशाल है। वह उन्नीस-बीस जिल्दों में छपा है। उसमें उन्होंने अनेक विषयों पर लिखा है। जिनमें ‘स्वराज शास्त्र’ श्रेष्ठ है। इसमें विनोबा ने बताया कि- सच्चा स्वराज या प्रजातंत्र कैसा होना चाहिए? मैं उसे संक्षिप्त में बताता हूँ ।

यथार्थ में प्रजातंत्र का अर्थ है-जहाँ शासक और शासित वर्गों के बीच का भेद मिट जाए। शासक और शासित की पहचान जब तक रहेगी तब तक सही मायनों में प्रजातंत्र या लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकता। यही लोकतंत्र की सच्ची परिभाषा है। यह वर्ग कौन से हैं – एक व्यक्ति का शासन, अनेक व्यक्तियों का शासन और सभी का शासन। सबका शासन तभी संभव है जब शासक और शासित में भेद ना हो। ऐसा केवल स्वराज में ही संभव है- वह भी ग्राम स्वराज में। ग्राम स्वराज समय की मांग है। इसे लाने में बहुत समय लगेगा। स्वराज के अलावा विनोबा ग्राम स्वराज पर खास बल देते थे कि किसी राष्ट्र या संपूर्ण विश्व में सही स्वराज स्थानीयकरण के बिना नहीं आ सकता। यदि सभी चीजों का ठीक से क्रियान्वयन करना हो तो यह सिर्फ स्थानीयकरण से ही संभव है। स्थानीयकरण वैश्वीकरण के विपरीत है- जो आज हो रहा है। जहाँ वैश्वीकरण होगा वहां कोई भी चीज सही या न्यायसंगत होनी संभव ही नहीं है। क्योंकि यह सत्य और न्याय पर केदिंरत नहीं है। दुनिया में सही, अहिंसा व सत्य तभी कायम होगा जब वह व्यवस्था स्थानीयकृत व अकेन्द्रित हो। मैं ‘अकेन्द्रित’ शब्द को बल देकर कहता हूँ। विनोबाजी ने भी कई जगह कहा है। विकेन्द्रीकरण कुछ होता ही नहीं है। अकेन्द्रित इस बात का सूचक है कि कोई भी चीज प्रारम्भ से ही केन्द्रित न हो। जब कोई चीज केन्द्रियकरण के बाद विकेन्द्रित होगी तो यह एक पत्थर के टुकड़े-टुकड़े कर बांटने जैसा होगा। पर वह रहेगा तो पत्थर ही। इसी प्रकार ग्राम स्वराज की जरूरत को भी विनोबा ने बल देकर कहा है।

विनोबा जी ने अपनी जीवनयात्रा में हजारों तरह के काम किये। उनमें से दो चीजें अति स्मरणीय हैं- भूदान आंदोलन और कांचन मुक्ति। यह दोनों सही स्वराज के लिए नितांत जरूरी हैं। इसकी कहानी आपको याद रखनी होगी। आप जानते होंगे कि भूदान जैसा क्रांतिकारी काम विश्व इतिहास में नहीं हुआ है कि- एक व्यक्ति के नेतृत्व में हजारों-लाखों की संख्या में भूदान और ग्रामदान हो जाए। कांचन मुक्ति का विचार बहुत ऊंचे दर्जे की सोच है- यदि कहीं भी न्याय और समानता के आधार पर सामाजिक व्यवस्था स्थापित करनी हो। विनोबा ने ये दो महत्वपूर्ण काम किये जो सही मायने में ‘स्वराज’ हैं।

भूदान का विचार विनोबा को कैसा आया होगा? योजना आयोग ने प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की। नेहरू जी ने विनोबाजी से कहा कि आप इसे देखिए। श्री गुलजारी लाल नंदा कागजों का पुलिंदा ले पवनार गए। विनोबा ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। तो नेहरू बोले अब पूरा योजना आयोग आपके साथ बात करेगा। वह बोले मैं ही दिल्ली आ जाता हूँ। पांच दिन की पदयात्रा कर वह दिल्ली आए। राजघाट में उनके लिए कुटिया बनाई गई। तीन-चार दिन योजना आयोग से विमर्श हुआ। विनोबा की बातचीत के बिन्दु छोटे-छोटे व सरल थे। मसलन-
हमें ढांचागत विकास की बातें छोड़कर खेती, हथकरघा और ग्रामोद्योगों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा, जिससे पांच साल के भीतर सभी कुशल हाथों को काम मिल सके। कोई भी व्यक्ति जिसके हाथ काम करने में कुशल हैं, सक्षम हैं वो बिना काम के न छूटे। सबको खेती, ग्रामोद्योग, हथकरघा या कोई न कोई काम मिलना ही चाहिए। योजना आयोग का तर्क था कि ऐसा पांच सालों कैसे संभव है? हमें पहले बिजली पैदा करनी है। बांध बनाने हैं। इनके बिना सबको काम देना संभव ना होगा। खेती, हथकरघा या ग्रामोद्योग खड़ा करने में थोड़ा वक्त लगेगा। यह पांच-छः पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत संभव है, उससे पहले नहीं। तब विनोबा जी के शब्द थे, ‘‘मैं गलत जगह चला आया। अब समझ में आया। नौकरों से बात करके कुछ काम बनेगा नहीं। मुझे मालिकों से ही बात करनी पड़ेगी।’’ योजना आयोग के सदस्य सरकारी अधिकारी थे। वह वास्तव में सरकारी नौकर ही थे। सो विनोबा ने तय किया इन नौकरों से बात करके क्या? मैं मालिकों के पास जाऊंगा। उनसे दान मांगूगा- भूमि का दान। ऐसे विनोबा ने देश में भूदान आंदोलन शुरू हुआ।

विनोबा चाहते थे सबके हाथ में काम हो-सबका उदय हो। सर्वोदय का मूल अर्थ भी यही है कि सभी का उदय हो। सबका उदय समता की दृष्टि से ही हो सकता है; विषमता से नहीं। सबका साथ-सबका विकास करने की मूलभूत शर्त है कि जो नीचे है, अंत में बैठा है वो पहले अगली लाईन तक पहुंचे और आगे वाले उसके आगे बढ़ने तक इंतजार करें। इस समय विकास की जितनी भी परिकल्पनाएं हैं, उनमें जो आज की यथास्थिति है- सब उसमें खुद आगे बढ़ने की सोचते हैं। 

आजादी के सालों बाद आज भी समानता नहीं है- जो अमीर हैं, महत्वाकांक्षी हैं वह सौ योजन चलकर आगे हैं। जो आखिर में हैं वह चले ही नहीं हैं। कुछ लोग बीच में हैं- इसलिए पहले उनको चलना होगा जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गये। बाकी को इंतजार करना ही होगा। तभी सबका उदय होगा- यही अंत्योदय का सिद्धांत है। अगर कहीं दौड़ की प्रतियोगिता हो तो सबको एक साथ दौड़ कर ही आगे बढ़ना होता है। तब तय होता है-कौन आगे बढ़ा और कौन नहीं? जो अमीर हैं, जो मध्यवर्गीय हैं वो पहले ही कई योजन चल चुके हैं। जो वास्तव में गरीब हैं, वे एक कदम भी नहीं चले हैं। जो एक कदम भी नहीं चला उनको आगे लेकर वहां तक जाना होगा जहां सबसे आगे वाले खड़े हैं। पिछड़े को अगड़े तक पहुंचावें, और तब तक आगे वाला प्रतीक्षा करें। इसी सिद्धांत पर नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की परिकल्पना की गई थी। लेकिन इसका ठीक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हुआ। लेनिन का विचार था- आगे वाले को पीछे ले आओ, अमीर लोगों से छीन लो और गरीबों को बांट दो। यह भी सफल नहीं हुआ क्योंकि जिससे छीना वो फिर से गरीबी में चला गया। इसलिए सबके साथ न्यायपूर्ण विकास का काम इस तरह से हो- कि जो आगे नहीं बढ़ पाया उसको आगे बढ़ने को पूरी सुविधा व जरूरी संसाधन उपलब्ध कराए जाएं। तब तक जो अमीर हैं उनके और अमीर व विकसित होने की गति पर थोड़ा विराम देना होगा। सो हमें इन दो वर्गों में संतुलन बैठाने का उपाय सोचना होगा। यही सर्वोदय का मूल सिद्धांत है पर उसका क्रियान्वयन कैसे हो?

आज तक की किसी भी अर्थव्यवस्था या विकास के चिंतकों ने इस पर गंभीरता से नहीं सोचा। सो गांधी के ट्रस्टीशिप और विनोबा के सर्वोदय के मूल विचारों पर हमें चिन्तन करना होगा। हमें गंभीरता से देखना होगा कि कैसे सर्व उदय की संभावना बनेगी? यह बहुत जरूरी है। इतना मैंने विनोबा जी के बारे में कहा। अब प्रश्न उठता है कि विनोबा विचार क्या है?

विनोबा विचार बहुत विशाल है। लेकिन मैं उसको तीन बातों में समाहित करता हंू – हमारा मंत्र- जय जगत! हमारा तंत्र- ग्रामस्वराज! हमारा लक्ष्य- विश्व शान्ति! ये तीनों बातें विनोबा के श्रीमुख से कहा हुआ एक प्रकार का नारा-मंत्र व उद्देश्य हैं। जय जगत का विचार बहुत विशाल है। हर देश-विदेश, राष्ट्र विशेष, क्षेत्र विशेष जय की कामना रखें। जय जगत का शब्द और उसका विचार काश्मीर की एक पदयात्रा के दौरान आया। उस यात्रा में लोग जय हिंद-जय हिंद कहते थे। उसी जय हिंद से विनोबा जी को जय जगत शब्द सूझा- कि अगर जय हो तो सब की एक ही तरह जय होनी चाहिए। और यह जय जगत तभी होगा, जब जगत को सहज रूप में जैसा है, वैसा ही स्थानीयकरण करके छोड़ दिया जाए। और उस स्थानीयकरण में ही सर्वोदय की, सबों के उदय होने की प्रकिया तय की जाए। उसके लिए हमारा तंत्र होगा ग्राम-स्वराज क्योंकि जगत की जय संपूर्ण जगत की दृष्टि से नहीं हो सकती। गांधीजी ने इस पर विस्तार से ‘‘मेरे सपनों का भारत’’ में लिखा है कि मैं भारत की सेवा क्यों करना चाहता हूँ ? संपूर्ण विश्व की क्यों नहीं? इसमें राष्ट्रवाद की बात नहीं। उन्होंने कहा कि मेरी संस्कृति, भाषा और प्रवृति का सारा संबंध मेरे देश से है। इसलिए मेरे लिए जगत की सेवा मेरे देश के माध्यम से होगी, स्थानीय स्तर पर ही होगी।

अंग्रेजी में एक पुरानी कहावत है- ‘थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली’। यही हकीकत में संभव भी है। संपूर्ण विश्व के लिए सोचा जा सकता है, मगर हम संपूर्ण विश्व के लिए कर कुछ नहीं सकते। आज अमरीका में अगर तूफान आ रहा है, लोग मर रहे हैं तो हम प्रार्थना के सिवा कुछ कर नहीं सकते। न उनको खाना दे सकते हैं, न बचा सकते हैं लेकिन उनको सहानुभूति दे सकते हैं। प्रार्थना कर सकते हैं कि वे सही हो जाएं। लेकिन यदि अपने देश में कोई कष्ट में है तो हम काम कर सकते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि जो सामने है उसके ही जरिए सेवा करो। सो सेवा के लिए हमारा तंत्र ग्राम-स्वराज होगा। हमारा मंत्र जय जगत होगा। ग्राम-स्वराज का तंत्र जय जगत के लिए होगा नाकि जय ग्राम के लिए। हमारा उद्देश्य विश्व शान्ति है। विश्व में शान्ति तभी होगी जब विश्व में कहीं कोई असंतोष में न हो, कोई भूखा न हो, नंगा न हो, शिक्षा से वंचित न हो। कोई भी मकान व कपड़ों के अभाव में न हो। इस तरह की विश्व शान्ति लाने के लिए हम जहां पर भी हैं वहीं पर काम करें। सो इन तीनों बातों- जय जगत, ग्राम-स्वराज व विश्व शान्ति में विनोबा जी का संपूर्ण जागतिक दर्शन और उस जागतिक दर्शन में उनका आध्यात्मिक दर्शन छिपा है।

अब आपने पूछा कि विनोबा की वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता है या नहीं? वर्तमान परिपे्रक्ष्य- मुझे यह जानकारी नहीं है कि वर्तमान कहां पर है? वर्तमान क्या है? और उसका क्या परिपे्रक्ष्य है? मैं आपसे केवल पूछना चाहता हूँ कि क्या आपके पास कुछ वर्तमान परिप्रेक्ष्य है? जिस वर्तमान में आधुनिक, अति-आधुनिक और उत्तर-आधुनिक लोग तथाकथित जीवन जी रहे हैं, यदि आप उसे वर्तमान मानते हैं और उस वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आप विनोबा विचारों की प्रासंगिकता जानना चाहते हों। अगर यही आपका सवाल है तो मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। वह वर्तमान प्रासंगिक है या नहीं है- उसकी परीक्षा व्यक्ति, कुटुम्ब या समूह के संदर्भ में की जा सकती है। विश्व में कोई चीज प्रासंगिक है या नहीं- इसकी परीक्षा करना बड़ा कठिन है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विनोबा विचार आपके लिए प्रासंगिक हैं या नहीं, यदि यह आपका सवाल है तो मेरा प्रश्न है कि वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में आप खुद कहां खड़े हो? वर्तमान के परिप्रेक्ष्य आपको अपनी छवि कहीं दीखती है क्या? क्या आपने उसे देखा है? इस वर्तमान परिपे्रक्ष्य में आपका व्यक्तित्व या अस्मिता अगर कहीं दिखाई देती है, तो आप खुद जान सकते हो कि विनोबा विचार- जय जगत, ग्राम-स्वराज और विश्व शान्ति, का आपसे कुछ लेना-देना है या नहीं। अगर लेना-देना नहीं है तो आपके लिए विनोबा विचार की कोई प्रासंगिकता नहीं। अगर आपका इससे कुछ लेना-देना है तो यह आपके लिए प्रासंगिक है।

मेरा मानना है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अधिकांश लोगों ने ‘स्व’ को खो दिया है। वह विलुप्त हो गया है। ‘स्व’ कहीं पर है ही नहीं। जब ‘स्व’ ही नहीं है तो स्वराज का प्रश्न ही नहीं उठता है। जब स्वराज का प्रश्न ही नहीं उठता तो ना तो विनोबा प्रासंगिक हैं और ना गांधी। वह केवल स्वांत सुखाय के लिए ही प्रासंगिक हैं। किसी बात को कहना और उसे जीवन में न उतारना, यदि ऐसा है तो प्रासंगिकता का प्रश्न बेमानी है। किसी चीज को तभी प्रासंगिक माना जा सकता है जब आप उसे जीवन में उतार सकते हो। आप उसमें जी सकते हो- सहज रूप से, न कि कृत्रिमता से। अगर आप सहज रूप से उस सिद्धांत में जी सकते हो और उससे आप संतोष और आत्मतृप्ति की अनुभूति ले सकते हो तो ही वह सिद्धांत आपके लिए प्रासंगिक हैं। अगर ऐसा नहीं है तो कोई भी सिद्धांत आपके लिए प्रासंगिक नहीं।

यह गांधी और विनोबा भावे का विचार है। मैं गांधी और विनोबा का अनुयायी हूँ. मैं उनका वंशज हूँ। मैं उनका आदर करता हूँ, इसलिए उनका विचार मेरे लिए प्रासंगिक हो यह आग्रह पर्याप्त नहीं। वह विचार तभी प्रांसगिक होगा जब आप उसमें जियेंगें। उसको अपने जीवन में उतार कर, अनुभूति के आधार पर उसको अनुभव करेंगें। तभी उसकी प्रासंगिकता है। कोई विचार मेरे लिए प्रासंगिक है अथवा नहीं? यह कैसे तय होगा। मैं यदि सही मायने में उसमें नहीं जी पा रहा हूँ। उसमें जीना मेरे लिए संभव नहीं है तो वह मेरे लिए प्रासंगिक कैसे हो सकता है? प्रासंगिकता का यह निर्णय आपको ही करना होगा।

जिद्दू कृष्णामूर्तिजी बार-बार कहते थे- आपको बुद्ध ने क्या कहा? महावीर ने क्या कहा? वह वह आज के लिए कितने प्रासंगिक हैं? इसको खोजने का कोई लाभ नहीं। आप इतना देखिए कि आप उनके विचारों के साथ कितना प्रासंगिक हैं? उसको इस तरह से परखें कि मैं उस सिद्धांत में कहीं बैठ पा रहा हूँ या नहीं? अगर हम उन विचारों और सिद्धांतों से समन्वय नहीं बैठा सकते, उनसे समझौता नहीं कर सकते तो यह नहीं कहना चाहिए कि वह विचार हमारे लिए प्रासंगिक नहीं हैं। वह किसी और के लिए प्रासंगिक हो सकते हैं। बल्कि आप यह कहें कि हम उस विचार के लिए प्रासंगिक नहीं हैं।

‘वर्तमान’ और ‘विकास’ शब्द आज के संदर्भ में भ्रम पैदा करने वाले शब्द हैं। अगर हम सावधानी से इन्हें नहीं देखेंगे तो कहीं न कहीं भ्रमित होने या कोई बड़ी त्रुटि होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे में, मेरा कहना है कि वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में क्या आपको कहीं अपने व्यक्तित्व की, अपनी अस्मिता की कोई छवि कहीं दिखाई देती है या नहीं? क्या भाषा, संस्कृति, जीवन चरित्र, जीवनशैली की दृष्टि से आपका व्यक्तित्व कहीं सुरक्षित है भी या नहीं। जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है अभिव्यक्ति याने भाषा। भारत में कितने लोग हैं, जो आज भाषा की दृष्टि से स्वतंत्र हैं! या स्वराज हैं? जनसाधारण या विशेष रूप से यदि तथाकथित एजुकेटड लोगों के सामने एक घंटा बोलना हो तो क्या एक भी अंग्रेजी का शब्द प्रयोग किये बिना बोलने वाला कोई है कि नहीं? हम जो कुछ संप्रेषित करते हैं, उसमें अंग्रेजी के शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हमारी मजबूरी हो गयी है। हम उसके बिना बोलचाल ही नहीं कर पाते। जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा- भाषा आज परतंत्र हो गयी है। काय-वाक्-चित् से मिलकर एक व्यक्ति बनता है। वाणी चित् की अभिव्यक्ति है, संप्रेषण का तरीका है। हम जो भाषा बोलते हैं, उससे हमारी मानसिक स्थिती या चित् की प्रवृति परिलक्षित होती है। यदि चित् और वाक् में स्वराज नहीं है, संतुलन नहीं है, तो शरीर मात्र स्वस्थ होने से क्या अंतर पड़ेगा? मैकाले का कहना था कि हम शरीर का रंग तो नहीं बदल सकते लेकिन हिंदुस्तानियों की भाषा और सोच को शिक्षा के माध्यम से बदल कर के ऐसा बाबू वर्ग तैयार करें- जो हमारे लिए भारत में शासन करेगा। उसके शब्द आज सत्य सिद्ध हुए। भारत को स्वाधीन हुए 70 साल बीत गये लेकिन भाषा, सोच, शासन प्रणाली की दृष्टि से जो विरासत अंग्रेज छोड़ गये हमने उसको यत्नपूर्वक सुरक्षित और संरक्षित रखा हुआ है। और हम उसे आगे भी बनाए रखेंगे। ऐसा कितनी पीढ़ियांे तक चलता रहेगा, हम खुद अनुमान लगा सकते हैं?

प्रश्नोत्तर सत्र में वह बेबाकी से बोले कि आज शासक और शासित वर्ग की चित्तवृति या मानसिकता देखते हुए प्रजातंत्र का भविष्य मजबूत नहीं दिख रहा है। ग्राम स्वराज घर में ही खत्म हो रहा है। यही असली समस्या है। यह जल्दी दूर नहीं होगी। हिंदुस्तान में बहुत अच्छे विशेषज्ञ, इंजीनियर, डाक्टर पैदा हुए हैं। पर यहां बड़ी गलतफहमी है कि हर अच्छी चीज अंग्रेजी में ही हो सकती है। हमें स्थानीय भाषा के महत्व को समझना होगा। इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। हमें मातृ भाषा का प्रयोग करना चाहिए।

ग्राम स्वराज की अवधारणा है कि हमारी अर्थव्यवस्था अपने अनुदान पर चले। कई समूहों में पैसे का व्यवहार नहीं। वहां सेवा और सामग्री का प्रयोग होता है। अरूणांचल में खेती पर ही सारी अर्थव्यवस्था टिकी है। कोई व्यक्ति ऐसे प्रयोग करना चाहे तो असंभव नहीं है। धर्मशाला में एक ऐसा परिवार है जो सिवा नमक और माचिस के कुछ भी क्रय नहीं करता। मन में किसी विचार के प्रति आस्था हो तो सब कुछ संभव है। आस्था सबसे बलवती है। क्योंकि आस्था स्वमुखी है और सम्मान परमुखी। आपकी श्रृद्धा आपके हर वाक्य-हर कार्य में प्रकट होगी।

अहिंसा और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब सत्य पर निष्ठा होगी तो जीवन में हिंसा के लिए जगह नहीं होगी। करूणा की मानसिकता से ही आप हिंसा से निवृत होंगे। आपको जीवन में चोरी ना करने और दूसरों को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति से मुक्त होना होगा। जीवन में भय या लोभ के कारण कोई काम ना करें। ध्यान रखें कि किसी कार्य के पीछे प्रेरित करने वाला आपका चित्त कैसा है? दूसरों का हित करने वाले और समता में रहने वाले का ही हृदय परिवर्तन होता है। उसके ही दृष्टिकोण में बदलाव आता है।

सो मैं आज के विषय के संदर्भ में अंत में बलपूर्वक कह सकता हूं जीवन में सार्वभौमिक नैतिकता ही समय की मांग है। सो आप यह ना पूछें कि गाँधी-विनोबा आज कितने प्रासंगिक हैं? बल्कि यह तय करें कि हम कितने प्रासंगिक हैं उनके विचारों को आत्मसात करने को? मेरा समय पूरा हो गया है। मेरा वक्तव्य अगर किसी को अच्छा न लगा हो तो उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हंू। जय जगत! दिल-दिमाग को झंझोड़ने वाले इस कालजयी व्याख्यान में साल भर डूबकर मैं यही कह सकती हूं यदि गांधी व विनोबा दोनों मिलकर इस विषय पर कुछ बोलते तो यही कहते-जो इस ओजस्वी बौद्ध भिक्षु ने कहा।

सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता इस महान कर्मयोगी को सर्वोदय मंडल देहरादून का सादर नमन!