समाज के अप्रतिम उदाहरण रज्जू भैया : 100वीं जयंती पर भावभीनी श्रद्धांजलि

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अपनी सरल व रोचक अध्यापन शैली से अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के थे सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक 

कमल किशोर डुकलान

प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) 60 की वर्ष लम्बी संघ-यात्रा केवल इस दृष्टि से असामान्य नहीं है, कि वे किस प्रकार से एक के बाद दूसरा बड़ा दायित्व सफलतापूर्वक निर्वहन रहे,अपितु इस दृष्टि से भी है,कि1943  से 1966  तक प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ एक पूर्णकालिक प्रचारक की भाँति यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते हुए सम्पूर्ण पारिवारिक एवं समाजिक दायित्वों का निर्वाह करते रहें।

संघ-कार्य हेतु अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिये वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परम्परागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहें अपितु प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1947  में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग के नगर कार्यवाह की स्थिति में पहुँच पर चुके थे, द्वितीय वर्ष उन्होंने 1954 में बरेली के संघ-शिक्षा-वर्ग में उस समय किया जब भाऊराव देवरस जी उन्हें समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष उन्होंने 1957  में तब किया जब वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रान्त का दायित्व सँभाल रहे थे। इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण कीऔपचारिकता का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये किया अपने लिये योग्यता अर्जित करने के लिये नहीं।

प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक 1958  में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी।

जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- “अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यार्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।” रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी हैं,कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं।

विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने,संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशनआर्थिक संकट में फँस गया तोउन्होंनेअपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति! सन् 1997 में उस समय के मेरठ प्रांत में केन्द्रीय अधिकारी प्रवास के तहत परम पूजनीय सरसंघचालक के रुप में नेहरू नगर गाजियाबाद में माननीय प्रोफेसर राजेंद्र सिंह ( रज्जू भैया) जी को अतिथि विभाग में रहकर निकटता से देखने का सुअवसर मुझे भी प्राप्त हुआ। जयन्ती के सुअवसर पर राष्ट्र की चिरजीवी पुण्य आत्मा को शत शत नमन,विनम्र श्रद्धांजलि।
कोटिश:नन्दन,वन्दना,अभिनन्दन