कोरोना महासंकट में श्रमिकों पर पक्ष-विपक्ष के सियासी पैतरें

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पूरा विपक्ष प्रधानमंत्री को उनकी कही बातों पर श्रीहीन करने पर तुला

सी एम पपनैं
नई दिल्ली। देश की सियासत की धूरी बन चुके भयावह कोरोना संकट मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा विगत दिनों ‘मन की बात’ कार्यक्रम में व्यक्त किया गया था, कोरोना विषाणु संक्रमण की मार सबसे अधिक गरीबो और श्रमिकों पर पड़ी है। उनके दुःखो को शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता। पूरा विपक्ष प्रधानमंत्री को उनकी कही बातों पर श्रीहीन करने पर तुला हुआ है।
कोरोना संकट के दौर मे देश के सामाजिक व आर्थिक पहलुओं का अवलोकन कर ज्ञात हो रहा है, प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के मामले में प्रधानमंत्री मोदी को निजी तौर, बड़े स्तर पर देशव्यापी नुकसान हुआ है। 25 मार्च से 31 मई तक की गई चार तालाबंदियों तथा उसके बाद 1 जून से 30 जून तक आरंभ किए गए अनलॉक 1 की घोषणा पर उनके द्वारा किसी भी प्रकार की ठोस रणनीति पेश न किए जाने व कोरोना संक्रमितो की संख्या का दिन पर दिन बढ़ते जाने पर देश का प्रत्येक वर्ग व समुदाय क्षुब्ध व भयभीत नजर आ रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा श्रमिकों की दक्षता व प्रवास आयोग बनाने की बात तथा गांवो मे रोजगार, स्वरोजगार तथा लघु उद्योगों से जुड़ी विशाल सम्भावनाओ की बात कह, नुकसान की भरपाई करने की कोशिश जरूर की गई है। साथ ही देश वासियों के धैर्य और जीवटता बनाए रखने के आह्वान का ध्यान रखने की बात राजनैतिक सूझ-बूझ से कही गई है।

पूर्ण बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री की ‘मन की बात’ अगर धरातल पर प्रकट न हो, मन भीतर ही गल जाए, तो उस मन की बात को व्यक्त करने का औचित्य और उसकी सार्थकता क्या मूल्य रह जाता है? यह बात न सिर्फ देश के प्रबुद्ध जनमानस के दिलो-दिमाग मे निराशा के भाव प्रकट करती है, विपक्ष भी प्रधानमंत्री के मन मे गली बात को समय-समय पर जनमानस के बीच उठा, प्रधानमंत्री को श्रीहीन करता रहा है।
विगत माह बाईस विपक्षी दलों के राष्ट्रीय महत्व को प्रधानमंत्री द्वारा कोरोना संकट मे नजर अंदाज कर दिए जाने के बाद, वीडियो कांफ्रैंसिंग के जरिये प्रवासी श्रमिको की स्थिति और मौजूदा संकट से निपटने के लिए सरकार द्वारा घोषित बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज पर उक्त विपक्षी दलों द्वारा चर्चा कर, सरकार पर संघवाद की भावना के खिलाफ कार्य करने, सारी शक्तियां पीएमओ तक सीमित रहने, कोरोना संकट मे की गई पूर्णबंदी स्थिति की गम्भीरता का पता न होने, पूर्णबंदी बिना किसी योजना के लागू करने जैसे आरोप जड़ दिए गए।
विपक्षी दलों के नेताओ द्वारा समय-समय पर केंद्र पर बढ़-चढ़ कर तोहमते जड़ी गई। केंद्र से लेकर राज्यो तक अपने तरीके से नियम कानून बनाए जाने तथा दिशा-निर्देशो की व्यवहारिकता पर अध्ययन नही करने का आरोप जड़ा गया। कहा गया, केंद्र द्वारा यह सोचा नही गया कि, सरकार के निर्देशो से आम जनमानस को फायदा होगा या उनकी जान मुश्किल मे फंसेगी।
विपक्ष द्वारा व्यक्त किया गया, जारी दिशा-निर्देशो में एकरूपता का अभाव रहा। यह समझना मुश्किल रहा, कि एकान्तवाश के मामले में इतने अलग-अलग नियम क्यों बनाए गए? एकान्तवास कही सात दिन का तो कही चौदह दिन का, तो कही इक्कीस दिनों का। कही घर, तो कही शासकीय एकान्तवाश, कही अपने खर्च पर तो कही सरकारी खर्च पर। अलग-अलग राज्यो के कोरोना को लेकर एक ही तरह के प्रोटोकॉल समूचे देश में लागू है, तो सरकार ने बिना व्यवहारिकता का अध्ययन कराए मनमाने तरीके से लाकड़ाउन खोलने के मामले में दिशा निर्देश जारी किए, कारणवश लोगों की परेशानी बढ़ी। जन हानि हुई।
अवलोकन कर ज्ञात होता है, पक्ष-विपक्ष की कसम-कस के मध्य तीसरे चरण में कुछ गतिविधियों को खोल दिया गया। चौथे चरण में छूट का दायरा कुछ और बढ़ाया गया, जिससे संक्रमण के दायरे मे इजाफा हुआ, चुनोती ज्यादा बड़े रूप में खड़ी हुई। कोरोना संक्रमण बढ़ते जाने के बावजूद अनलॉक 1 का पहला चरण अर्थव्यवस्था का चक्र चलाने के लिए एक जून से तीस जून तक कुछ दिशा निर्देश जारी कर चुनोती स्वरूप आरंभ किया गया। अनलॉक1 को गृह मंत्रालय द्वारा तीन चरणों में बांटा गया है।
पूर्णबंदी खोलने की मांग स्वभाविक थी। हालांकि कोरोना संक्रमण की बढ़ती भयावह स्थिति युद्ध से भी बदतर है। फिर भी लगता है, जनमानस ने लगभग समझ लिया है, कोरोना संक्रमण लंबे समय तक जिंदा रहेगा। यह छूटने वाला नही है। रोकथाम हेतु जनभागीदारी जरूरी है, जो दुर्भाग्य से जनमानस के बीच नजर नही आ रही है। इस चुनोती पर सरकार भी भ्रम की स्थिति में है।
अवलोकन कर ज्ञात होता है, हिंदुस्तान पहला देश है जिसने बीमारी बढ़ने पर कुछ शर्तों के साथ पूर्णबंदी हटा दी है। अन्य देशों ने पूर्णबंदी तब हटाई, जब बीमारी कम हो गई थी। इससे विपक्ष की बातों को बल मिलता दिखता है, कि हमारी पूर्णबंदी विफल रही है। इसीलिए विपक्ष प्रधानमंत्री पर दबाब बना पूछ रहा है, वे आगे क्या करने जा रहे हैं? उनकी रणनीति व प्लान क्या है?
दरअसल कोरोना संकट की भयावह स्थिति में भुक्तभोगी जनमानस के बीच अनेकों प्रत्यक्ष कारकों ने शक की सुई घुमाने का कार्य किया है। इसका क्रम आरंभ होता है, तीसरी पूर्णबंदी के मौके पर प्रधानमंत्री द्वारा पहली बार अपने आपको राष्ट्रीय टीवी से अलग कर, गृहमंत्रालय द्वारा तीसरे लाकडाउन के दिशा- निर्देशो को जारी करवाना, जिसके तहत जिम्मेवारिया राज्यो पर थोपी गई। यह जानकर भी कि अर्थव्यवस्था का नियंत्रण राज्यो के हाथ में नही, अधिकार पीएमओ के पास हैं।
आरटीआई अधिनियम के तहत फंसे हुए प्रवासी श्रमिकों की संख्या जानने के सम्बन्ध मे श्रम विभाग के केंद्रीय सूचना अधिकारी द्वारा जानकारी देने से मना करने तथा इसी प्रकार केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा देश में कोविड-19 महामारी मे खरीदे गए उपकरणों की खरीद पर किए गए खर्च का व्योरा देने से इंकार करने। वैज्ञानिक, इलेक्ट्रोनिक व कम्प्यूटर युग में एक साथ चालीस श्रमिक ट्रेनों का अपने गंतव्य से भटक जाने। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वयं संज्ञान लेकर प्रवासी मजदूरों के पलायन और विस्थापन पर रेलों व बसों मे सफर के दौरान पीड़ित श्रमिको से किसी तरह का किराया न वसूलने तथा साथ ही उनके भोजन, पानी इत्यादि की व्यवस्था करने के आर्डर जारी होने के बावजूद प्रवासी मजदूरों का भोजन, दवा, पानी इत्यादि के लिए संघर्ष करना। अस्सी से ज्यादा प्रवासी श्रमिको की पैदल रास्तों व ट्रेनों में मौत होना। पैदल रास्तों व श्रमिक ट्रेनो मे दर्जनों शिशुओं के जन्म लेने व कई की प्रसव पीड़ा के दौरान मृत्यु की दर्दनाक घटनाओं को विपक्षी दलों द्वारा केंद्र सरकार पर अक्षमता का ठीकरा फोड़ा गया।
श्रमिक रेल गाड़ियों के रास्ता भटकने व भीषण गर्मी, भूख और प्यास से प्रवासी मजदूरों की हुई मौतो व असह्य दिक्कतों पर विपक्ष द्वारा व्यक्त किया गया, ‘यह मोदी सरकार के अच्छे दिनों का जादू है। यह सिर्फ सरकार का कुप्रबंधन ही नहीं है, बल्कि गरीब विरोधी मानसिकता भी है’।
प्रवासी मजदूरों के दुःख दर्द, रेल सेवाओं में देरी व प्रवासी मजदूरों की परेशानियों पर मीडिया में छपी रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा भी संज्ञान लिया गया। आयोग द्वारा इस सबको मानवाधिकारों का उल्लंघन व पीड़ित परिवारो की अपूरणीय क्षति करार दिया गया तथा आयोग द्वारा केंद्रीय गृह सचिव, रेलवे व अनेको राज्य सरकारों को नोटिस भेज, विस्तृत रिपोर्ट मांगी गई। आयोग द्वारा प्रवासी मजदूरों के लिए चिकित्सा सहायता सहित बुनियादी सुविधाओं को सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए गए, जैसे प्रश्न भी पूछे गए।
उक्त सभी घटनाओं से एक ओर जहां कोरोना संकट में प्रवासी मजदूरों द्वारा भुगती गई आफतो के प्रमाण सिद्ध होते हैं, वही दूसरी ओर सरकार की अक्षमता के दर्शन तथा विपक्ष के आरोपो को भी बल मिलता दिखाई देता है।
भविष्य में स्थापित सरकारों को अपनी नीतियों को बनाते समय मानकर चलना होगा, प्रवासी श्रमिक भारतीय अर्थ व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बिना श्रमिको के किसी भी प्रकार के उत्पादन की संभावना नही की जा सकती है। अर्थव्यवस्था को मजबूत धार नही दी जा सकती है। श्रमिको ने कठिनाइयों को सहते हुए अपना योगदान दिया है। जोखिमपूर्ण और कम पारिश्रमिक पर।
कोरोना संकट से हुई पूर्णबंदी मे प्रवासी श्रमिकों के रोजगार को सुरक्षित बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई अपील के बावजूद न सिर्फ अधिसंख्य उद्योगों ने अपने यहां काम करने वाले श्रमिको को निकालने में जरा भी देर नही लगाई, कई राज्य सरकारो द्वारा श्रम कानूनों को ठेंगा दिखा, शर्माएदारो की मदद करने का बीड़ा उठाया गया। अंदरखाते नोकरी देने वाली कई इकाईयों को छूट दे दी गई, कि वह अपने कर्मचारियों के साथ जैसा चाहे बर्ताव करे। जिससे उद्योग बंद हो गए, कामगार बेरोजगार हो गए। असंगठित क्षेत्र के करोड़ो कामगार पूर्णरूप से सड़क पर आ गए। श्रम कानूनों के खुल्लम-खुल्ला निलंबन पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा
देश के कई श्रम संगठनों द्वारा 14 मई के पत्र पर लिए गए संज्ञान पर प्रधानमंत्री मोदी को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं व आईएलओ संधि की याद दिलाई गई व राज्यो को श्रमिको के हित में स्पष्ट संदेश भेजने और प्रभावी सामाजिक संवाद कायम करने के लिए कहा गया। श्रम कानून के निलंबन से जुड़ा उक्त मामला सरवोच्च न्यायालय मे विचाराधीन है, जिस पर अगले सप्ताह निर्णय होना है।
प्रवासी श्रमिकों की अनुपस्थिति व श्रम कानूनों को धार पर लगाने के बावजूद उद्योग जगत आशावान है, छह से नो महीने मे अर्थ व्यवस्था बृद्धि की राह पर लौट आएगी। परन्तु उद्योग जगत यह भूल रहा है, प्रवासी श्रमिक कोरोना संकट में बड़ी ठोकर खाकर व श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ता देख अब निकट भविष्य में दूर-दराज क्षेत्रो मे जाकर काम करना नही चाहेगा। वह 100-150 किलोमीटर की परिधि में ही काम की तलाश करेगा।
कोरोना संक्रमण के भयावह दौर मे पक्ष हो या विपक्ष, राजनेताओं की रहबरी पर जनमानस के मध्य गहरे सवाल उठने लाजमी हैं। जन की सोच में कोरोना संक्रमण राजनीति नही, मानवीय संकट है। पक्ष-विपक्ष के बीच उठ रही खामियां, आरोप-प्रत्यारोप और मतभेद जनमानस के मन में निःसंदेह भय पैदा कर रहे हैं। जन की चाह रही है, महामारी के खिलाफ सहयोग, सूझबूझ और रचनात्मक आलोचना करने की जरुरत है, न कि लोगों को भय व असमंजस मे डालने की।
दुर्भाग्य रहा है, विगत सात दशकों में किसी भी स्थापित सरकार ने प्रवासी श्रमिकों को लेकर नीति-निर्माण मे गंभीरता नही दिखाई है। असमान पारिश्रमिक, आवास, शिक्षा, स्वास्थ और श्रमिक अधिकार के सवालों पर ध्यान नही दिया है। प्रवासी श्रमिकों के लाखों की संख्या में घर-गांव लौट जाने के बाद उद्योग जगत व सरकार के सम्मुख उत्पादन शुरू करने व अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने हेतु बहुत बड़ी चुनौती खड़ी है। उत्पादन और काम की शुरुआत जल्दी नहीं हुई तो देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचा निश्चय ही तहस-नहस हो जायेगा। ऐसे मे स्थापित सरकारों व नियोक्ताओं को प्रवासी श्रमिको के संदर्भ मे नए सिरे से विचार करने की जरुरत है, ताकि कोरोना संकट मे उभरी आर्थिक चुनोतियों का सामना किया जा सके। देश को वापस आर्थिक विकास की पटरी पर दौड़ाया जा सके।
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