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अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस: आओ चलें प्रकृति की ओर…

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41 हजार 415 पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ खतरे में हैं

पेड़-पौधों और जीवों की प्रजातियों की संख्या भारत की जैवविविधता की दृष्टि से सम्पन्नता को दर्शाती है

आज पूरी दुनिया वैश्विक महामारी से जूझ रही है और हमें प्रकृति की ओर लौटने को विवश होना पड़ रहा है, उससे जैवविविधता का महत्व और बढ़ गया है। इसलिए हमें जैविक कृषि को बढ़ावा देने के साथ ही बची हुई प्रजातियों के संरक्षण की जरूरत है, क्योंकि 50 से अधिक प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त होती जा रही हैं। यह भारत समेत पूरी दुनिया के लिये चिन्ता का विषय है। शायद इसीलिए नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस जर्नल (National Academy of Science Journal) में छपे शोध पत्र में धरती पर जैविक विनाश को लेकर आगाह किया गया है।
करीब साढ़े चार अरब वर्ष की हो चुकी यह धरती अब तक पाँच महाविनाश देख चुकी है। विनाश के इस क्रम में लाखों जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट हुईं। पाँचवाँ कहर जो पृथ्वी पर बरपा था, उसने डायनासोर जैसे महाकाय प्राणी का भी अन्त कर दिया था। इस शोध पत्र में दावा किया गया है कि अब धरती छठें विनाश के दौर में प्रवेश कर चुकी है। इसका अन्त भयावह होगा, क्योंकि अब पक्षियों से लेकर जिराफ तक हजारों जानवरों की प्रजातियों की संख्या कम होती जा रही है।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफसर पाल आर इहरीच और रोडोल्फो डिरजो नाम के जिन दो वैज्ञानिकों ने यह शोध तैयार किया है, उनकी गणना पद्धति वही है जिसे इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर जैसी संस्था अपनाती है। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 41 हजार 415 पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ खतरे में हैं।
इहरीच और रोडोल्फो के शोध पत्र के मुताबिक धरती के 30 प्रतिशत कशेरूकीय प्राणी विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें स्तनपायी, पक्षी, सरीसृप और उभयचर प्राणी शामिल हैं। इस हृास के क्रम में चीतों की संख्या 7000 और ओरांगउटांग 5000 ही बचे हैं। बाघों की संख्या भी मात्र 5000 ही रह गई है।
वन्य जीव विशेषज्ञों ने ताजा आँकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि पिछली तीन शताब्दियों में मनुष्य ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिये लगभग 200 जीव-जन्तुओं का अस्तित्व ही मिटा दिया। भारत में वर्तमान में करीब 140 जीव-जंतु संकटग्रस्त अवस्था में हैं। ये संकेत वन्य प्राणियों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य और चिड़ियाघरों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
आँकड़े बताते हैं कि 18वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही। वहीं, 18वीं से 20वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हो रही है।
इतिहास गवाह है कि मनुष्य कभी प्रकृति से जीत नहीं पाया है। मनुष्य यदि अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के अहंकार से बाहर नहीं निकला तो विनाश का आना लगभग तय है। प्रत्येक प्राणी का पारिस्थितिकी तंत्र, खाद्य शृंखला और जैवविविधता की दृष्टि से विशेष महत्व होता है, जिसे कम करके नहीं आँका जाना चाहिए। क्योंकि इसी पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य शृंखला पर मनुष्य का अस्तित्व टिका है।
भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए निर्दोष प्राणियों के शिकार की कहानियां भले ही लम्बी हो पर संरक्षण कार्य की पहल भी उन्होंने ही की थी। 1907 में पहली बार सर माइकल कीन ने पातली दून के वनों को प्राणी अभयारण्य बनाए जाने पर विचार रखा, जिसे सर जॉन हिवेट ने अस्वीकार कर दिया था। फिर इआर स्टेवान्स ने 1916 में कालागढ़ के वनों को प्राणी अभ्यारण्य बनाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन कमिश्नर विन्धम के जबरदस्त विरोध के कारण प्रस्ताव आगे नही बढ़ सका।
1934 में गवर्नर सर मालकॉम हैली ने कालागढ़  के आसपास के वनों को कानूनी संरक्षण देते हुए राष्ट्रीय प्राणी उद्यान बनाने की बात कही। हैली ने जिम कॉर्बेट से परामर्श करते हुए इसकी सीमाएँ निर्धारित कीं और 1935 में यूनाइटेड प्रोविंस नेशनल पार्क एक्ट पारित हुआ और यह भारत का पहला राष्ट्रीय वन्य प्राणी उद्यान 8 अगस्त 1936 को अस्तित्व में आया।
यह हैली के प्रयत्नों से बना था, इसलिए इसका नाम ‘हैली नेशनल पार्क’ रखा गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले इसे रामगंगा नेशनल पार्क और बाद में  जिम कॉर्बेट की मृत्यु के पश्चात उनकी याद में इसका नाम कॉर्बेट नेशनल पार्क रख दिया। हमें गर्व है कि यह विश्व विख्यात राष्ट्रीय उद्यान उत्तराखंड में है।
हमारा भारत जैव विविधता समृद्ध देश है। विश्व का 2.4 प्रतिशत क्षेत्रफल होने के बाद भी यह विश्व की 7-8 प्रतिशत सभी दर्ज प्रजातियों यथा 45,000 पादप प्रजातियों एवं 91,000 जंतु प्रजातियों का पर्यावास स्थल है। इसी प्रकार विश्व के 17 मेगा-डायवर्सिटी देशों में भारत शामिल है। पेड़-पौधों और जीवों की प्रजातियों की संख्या भारत की जैवविविधता की दृष्टि से सम्पन्नता को दर्शाती है।
वर्तमान में विकास के नाम पर जिस गति से वनों की कटाई चल रही है, उससे लगता है कि 2125 तक जलावन की लकड़ी की भीषण समस्या पैदा हो जाएगी। आँकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी का इस्तेमाल ईंधन के रूप में होता है। पहले हम 15000 घन मीटर प्रकाष्ठ उपलब्ध कराते थे, परन्तु अब मात्र 3000 घन मीटर ही देने में सक्षम हो पाते हैं हमारे वन। इससे स्पष्ट है कि हम ग्रामीणों को पर्याप्त रोजगार देने में भी विफल हो रहे हैं।
पुराने समय में हमारे यहाँ चावल की अस्सी हजार किस्में थीं, लेकिन अब इनमें से कितनी शेष रह गई हैं, इसके आँकड़े कृषि विभाग के पास नहीं हैं। जिस तरह सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है इससे अन्य राज्यों को प्रेरणा लेने की जरूरत है। कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिये भी जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है।
देश में सबसे ज्यादा वन और वन्यजीवों को संरक्षण देने का दावा करने वाले ये राज्य, वन संरक्षण अधिनियम 1980 का उल्लंघन भी धड़ल्ले से कर रहे हैं, फलस्वरूप जैवविविधता पर संकट गहराया हुआ है। जैवविविधता बनाए रखने के लिए जैविक खेती को भी बढ़ावा देना होगा जिससे कृषि संबंधी जैवविविधता नष्ट न हो।
हमें अपने सुस्वास्थ्य के लिये प्रकृति की ओर चलना होगा, उसी से अपनी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना होगा। हर वनस्पति का संरक्षण करके उसमें पौष्टिकता और भैषाजिकता को खोजकर उसका उपयोग करना होगा। आजकल के कोराना काल में तो यह और भी प्रासंगिक हो गया है।
तो, आओ चलें प्रकृति की ओर….
अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस! की शुभकामनाएं। 
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