विकास के मॉडल से गायब होता हमारा पर्यावरण

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विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक आपदाएं हमारी अविवेकी सोच और नासमझी का परिणाम 

राजनीति को प्रकृति के प्रति होना होगा संवेदनशील 

कमल किशोर डुकलान

प्राकृतिक आपदाएं हमारी अविवेकी सोच और नासमझी का परिणाम हैं। विकास की दौड़ में अंधी में प्रकृति और हिमालय की संवेदनशीलता को यहां की राजनीति आज तक नहीं समझ पाई है। बीते दो दशकों से हमारी राजनीति अफरातफरी में तमाम तरह की विकास योजनाओं का जन्म हुआ जिसके दु:परिणाम आज हमारा मनुष्य समाज भोग रहा है।

अगर हम ज्यादा दूर न जाएं और आज से 20 साल पहले जब उत्तराखंड नहीं बना था, तब हम उत्तर प्रदेश की सरकार या केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाते थे कि हमें नहीं समझा जाता,हमारी आवाजें,हमारी मांगें और स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हमारी भावनाएं दबा दी जाती हैं,लेकिन अब चूंकि उत्तराखंड एक पृथक पर्वतीय स्वतंत्र राज्य है, लिहाजा इन दो दशकों में तमाम सरकारें आईं,तमाम इस तरह की घटनाएं भी हुईं, लेकिन अभी भी शायद हमारी समझ प्रकृृृृति के प्रति गंभीर नहीं है।

किसी भी राज्य में,खासतौर से प्राकृृतिक रूप से संंवेदनशील राज्य जो होते हैं,उनकी क्षमताओं का आंकलन करना पहला चरण होना चाहिए कि वो आखिर कितने बांध झेल सकते हैं,कितने ढांचागत विकास,कितनी सड़कें,कितना क्या झेल सकते हैं,क्योंकि ऐसा आकलन कभी होता नहीं और हम उसके विकास की अतिरेकता के परिणाम ही भोगते हैं।

हम पिछले बीस वर्ष पहले हिमालयी राज्य के तौर पर खड़े तो कर दिए गए लेकिन जिसमें पॉलीटिकल इंटरेस्ट ज्यादा रहा है और कम्यूनिटी और इकोलॉजिकल कम रहा है।जिस कारण से इन 20 वर्षों में हम हमारी सोच-समझ और हमारी नीति तैयार नहीं हो पाई हैं।जिसके परिणाम हमेें 2013 और 2021 केे रूप में मिले हैैं।जो भी घटनाएं घटित हो रही हैं उसकी बड़ी वजह पिछले तीन चार दशकों से प्रकृति और पर्यावरण को अनदेखा किया जाना है।

जाहिर तौर पर यह उसके परिणाम की शुरुआत है। जिस तरह से हमारा रवैया अभी भी नहीं बदला है, तो आने वाले समय में इसमें निरंतरता बड़े रूप में बनी रहेगी। ये प्रकृति का संदेश है, अब हम कितना समझते हैं,ये हमारे ऊपर निर्भर है।विकास और प्रकृति के बीच विकास की राह पर आगे बढ़ते हुए हमारे पास प्राकृतिक समझ होनी चाहिए। जिसे हम इकोनॉमी की दृष्टि से देखते हैं,एनर्जी की दृष्टि से देखते हैं,परन्तु हमें इकोलॉजी की दृष्टि से देखते हुए संतुलन वाले हिस्से को भी उसी गंभीरता से लेना चाहिए। उदाहरण के तौर पर कहूं तो जहां ये ग्लेशियर टूटा,तो ये ग्लेशियर टूटने के पीछे पूरा ऋतु परिवर्तन का चक्र ही है।

सभी को पता है कि बर्फबारी हुआ करती थी,ये बर्फबारी फरवरी के महीने में होती है, जो जमती नहीं है,क्योंकि हमेशा ग्लेशियर वो बनता है,जो कि नवंबर-दिसंबर के महीने में गिरी हुई बर्फ होती है,उसको ठोस होने का समय मिलता है,स्थिर होने का समय मिलता है और ये जो बर्फबारी अभी हुई थी, इस घटना से दो दिन पहले ही बड़ी बर्फबारी हुई थी, वो एक तरह से कच्ची थी, हिमस्खलन आया और वो स्थिर नहीं था, इसलिए उसने एक बहुत बड़ी घटना को जन्म दे दिया।

उदाहरण के तौर पर चीन को देखिए,जो हमारा विकासात्मक शत्रु है,जिससे हम प्रतिस्पर्धा बनाए रखते हैं,वहां भी 65 प्रतिशत पहाड़ हैं,उनकी योजनाओं में जो महत्वपूर्ण हिस्सा रहता है कि हम ऐसा दिखें। अभी हमें सोचना चाहिए कि वो ऊपर के इलाके हैं,जो ज्यादा संवेदनशील होते हैं, उनसे दूरी बनाते हुए हमें बांध बनाने चाहिए।

यदि हमें प्राकृतिक आपदाओं को कम करना है तो प्रकृति के साथ विरोध नहीं बल्कि सामंजस्य की स्थिति बनानी होगी। विकासीय ढांचे में प्रकृति के हिस्से को जोड़ना होगा रखा है। आप हम उस इकोलॉजी को नहीं समझ रहे हैं। आपने मान लिया एक बांध बनाया, बांध के दूसरे हिस्से को (समझते हैं उदाहरण के लिए, आप ग्लेशियर से और दो किलोमीटर नीचे ये बांध बना होता,इस घटना को इस रूप में नहीं झेलते आप। प्रकृति के विज्ञान को समझने के लिए प्रकृति को भी बराबर समझना होगा। हाल में हुई घटना से हमें कुछ सबक भी लेने चाहिए। बांधों की विशालता से विनाश को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए।