लो अब खुल गई 108 सेवा की भी पोल……

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योगेश भट्ट 
याद कीजिए वो दौर जब राज्य में नई-नई आपातकालीन स्वास्थ्य सेवा ‘108’ शुरू हुई थी। सरकार ने तब अपनी खूब पीठ थपथपाई।  तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ जो बाद में मुख्यमंत्री भी रहे, उन्होंने तब शायद ही कोई मौका छोड़ा होगा जब 108 की सफलता का सेहरा अपने सर न बांधा हो।

तब 108 सेवा की ऐंबुलेंस में पैदा होने वाले बच्चों को भी सरकार अपनी उपलब्धियों में गिनाती थी। बेचारी जनता भी बातों में आती रही। लेकिन आज ठीक 9 साल बाद पता चला है कि 108 आपातकालीन सेवा तो करोड़ों रूपये का घोटाला है। मई 2008 से शुरू हुई इस योजना पर 9 साल में लगभग 173 करोड़ सरकारी खजाने से खर्च हुए हैं। जीवीके नाम की जिस कंपनी को इस सेवा के संचालन का ठेका दिया गया, उस पर 9 साल में सरकारें जमकर मेहरबान रहीं। जीवीके कंपनी पर सरकार की मेहरबानी का आलम यह है कि अभी दो महीने पहले तक इसके के खाते में 19 करोड़ रूपये एडवांस पड़े थे।

जन-सुविधा के लिहाज से देखा जाए तो सरकारों द्वारा कंपनी पर बरसाई जा रही इतनी कृपा के बाद कहां तो इन नौ सालों में आपातकालीन सेवा 108 को मजबूत होना चाहिए था, लेकिन हकीकत यह है कि इसमें दिनों दिन गिरावट आ रही है। राज्य में वर्तमान में इस सेवा के तहत 140 ऐंबुलेंस संचालित हो रही हैं, जिनमें से 123 बेसिक, 16 एडवांस लाइफ सपोर्ट वाली और एक बोट चिकित्सा वाहन हैं। इनमें से ज्यादातर की हालत खस्ता है।

नौ साल में इस सेवा में करोड़ों की लूट होती रही, और सेवा को बेहतर करने का कोई प्रयास नहीं हुआ। इन नौ सालों में 108 सेवा की एंबुलेंस गाड़ियों के लिए के लिए न तो सुरक्षित स्टेशन बने और ना ही इन्हें आपरेट करने वाले कर्मियों के ठहरने की उचित व्यवस्था का ख्याल रखा गया। इसका सीधा प्रभाव इस सेवा की परफारमेंस पर पड़ रहा है। आज स्थिति यह है कि अधिकांश ऐंबुलेंस महीनों-महीनों तक सेवा नहीं दे पा रही हैं। 108 सेवा के वाहनों में आवश्यक चिकित्सा उपकरणों का भी अकाल पड़ा हुआ है।

ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि आपातकालीन सेवा के नाम पर चल रहे ये चिकित्सा वाहन आपातकाल में मरीजों को कितनी राहत पहुंचा पाते होंगे? अब बात घपले की। शुरूआत से ही 108 सेवा में घपला शुरू हो गया था। इस सेवा का संचालन पीपीपी मोड पर होना था। चूंकि मसला करोड़ों रुपये का था, इसलिए वित्तीय नियमों के अनुसार इसका बकायदा ‘एक्प्रेस आफ इंट्रेस्ट’ जारी किया जाना चाहिए था। लेकिन सरकार ने सारे नियम कायदों को ठेंगा दिखाते हुए इस आधार पर जीवीके कंपनी को आपातकालीन सेवा के संचालन का काम दे दिया कि वह अन्य राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश में भी सेवा दे रही है।

उत्तराखंड में भ्रष्टाचार और बदनीयती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब इस कंपनी के साथ समझौता किया तो तमाम महत्वपूर्ण शर्तें गायब कर दी गईं। आज यूं ही नहीं कहा जाता कि भ्रष्टाचार के मामले में उत्तराखंड उत्तर प्रदेश से दो कदम आगे निकल चुका है। 108 सेवा इसका उदाहरण है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने आपात कालीन सेवा के लिए जीवीके कंपनी के साथ किए गए करार में कार्मिकों और रिपोर्टिंग के मानकों के साथ ही दंडात्मक मानक भी तय किए थे,लेकिन उत्तराखंड ने ‘जीवीके’ के साथ करार में ऐसे कोई भी मानक शामिल नहीं किए। और तो और, तकरीबन 17 करोड़ की संपति बिना सुरक्षा सुनिश्चित किए संचालकों को सौंप दी गई।

सिलसिला यहीं नहीं थमा, लगभग सात करोड़ रुपये का तय संचालन शुल्क भी अभी नहीं वसूला गया। संचालक कंपनी पर मेहरबानी का जो सिलसिला भाजपा सरकार में शुरू हुआ वह कांग्रेस सरकार में भी बदस्तूर चलता रहा। अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस शासनकाल में कंपनी को एडवांस भुगतान दे दिया गया था और साथ ही विभागीय दरों से सवा सौ गुना अधिक मूल्य पर खरीद की गई।

ये कोई आरोप नहीं हैं, बल्कि उस कैग की रिपोर्ट से सामने आई हकीकत है, जिसे कुछ दिन पहले ही उत्तराखंड विधानसभा के पटल पर रखा गया। अब देखते हैं सरकार इस खुलासे को किस अंजाम तक पहुंचाती है? मेहरबानी का ये सिलसिला थमता है या यूं ही बदस्तूर जारी रहता है?