बाघ और तेंदुए पर एक ही पालिसी ठीक नहीं!

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व्योमेश जुगरान 

लैपर्ड यानी तेंदुए को उत्तराखंड के पहाडों में गुलदार कहा जाता है। यह पहाड़ में हमेशा से सहजीवन का प्रतीक रहे पारंपरिक बाघ से अलग है और आज एक दुर्दांत खलनायक बन चुका है। उसके डर से गांव के गांव खाली होने को अभिशप्त हैं और उसने पहाड़ में प्रचलित भूतों और चुड़ैलों के दहशत भरे किस्सों को पीछे छोड़ दिया है। उत्तराखंड में अब तक ऐसे 32 नरभक्षियों को अपनी बंदूक से ढेर कर चुके और छह को पिंजरे में कैद करने वाले जाने-माने शिकारी 56 वर्षीय जॉय हुकिल से जब बातचीत हुई तो इस जानवर के बदलते स्वभाव के बारे में बहुत सी हैरतअंजेग और रोचक जानकारियां सामने आईं। हुकिल मूलतः अल्मोड़ा के क्रिश्चयन परिवार से हैं और लंबे समय से पौड़ी शहर में रह रहे हैं।

  • आदमखोर का पीछा करने और इसे सामने देखकर डर नहीं लगता? वह तो जन्मजात शिकारी है और हर बार सिचुएशन एक जैसी तो नहीं होती होगी!

बात सही है। असली शिकारी तो वही है। वह झाड़ियों का भी मास्टर है जिसे शक्तिशाली टॉर्च से भी नहीं देख सकते। दरअसल आपको उसका विहेवियर समझना पड़ता है। इतने अनुभव के बाद अब हम अच्छी तरह समझ लेते हैं कि वो कब एग्रीसिव हो सकता है, कब उस पर फायर करना है और कितनी दूरी से करना है। कभी-कभी ऐसी सिजुएशन आ जाती है कि अचानक आमना-सामना हो जाता है। कोटद्वार की घटना में तो शहर के अंदर ही वो मेरी ओर आता रहा और मैंने भागते हुए करीब 12 मीटर से लगातार तीन फायर किए। हां, उस वक्त तो डर नहीं लगता मगर जब घर में बिस्तर पर पहुंचता हूं तो जरूर सिहर उठता हूं। लेकिन यह जरूर है बाघ हर बार नए रूप में आता है और हमें कुछ नया सिखा जाता है। मेरा यह अनुभव रहा है कि वह आम आदमी और शिकारी में फर्क कर लेता है।

  • • मैनईटरों के साथ इस लुकाछिपी को कितने साल हो गए और इस फील्ड में कैसे उतरे?

2007 में टिहरी के बडियारगढ़ क्षेत्र में दो नरभक्षियों में से एक को गिराने के साथ शुरू हुए इस सिलसिले को लगातार हौसला मिलता चला गया। अभी बीते नवम्बर को अल्मोड़ा जिले के बागेश्वर में मैंने 32वां मैनईटर मारा। इसके अलावा छह को केज भी कर चुका हूं। बागेश्वर शहर में रोज शाम को चार-पांच तेंदुए आ जाते हैं। यही हाल उत्तराखंड के बाकी पहाड़ी शहरों का भी है।

  • • आखिर बाघों का इस तरह शहरों में आ धमकने के पीछे क्या वजह हो सकती हैं। क्या जंगल में शिकार नहीं है या बाघ ही ज्यादा हो गए हैं?

इन दोनों बातों के अलावा मैं तीसरा कारण भी देख रहा हूं। ये जानवर हैं, पर हैं तो हमारी दुनिया के ही। मैंने जो पाया और महसूस किया कि ये हमेशा शहर की ओर भोजन के लिए नहीं आ रहे हैं। मैंने कई जगह गांवों और शहरों के ऊपर अलग-अलग जगहों पर देखा है कि ये घंटों किसी बड़े पत्थर पर बैठे रहेंगे। नीचे गाड़ियां-कारें दौड़ रही हैं। कभी कुत्ता भौंक रहा होता है। वो देखते रहते हैं। अब शहर उनकी उम्मीद की दुनिया तो है ही। इन्हें भोजन के अलावा भी शहर से कुछ लगाव है। उन्हें अन्य चीजें भी अच्छी लगती होंगी। शायद इससे उनका भी मनोरंजन होता हो और वे इस बदलती दुनिया को देखना चाहते हों।

  • • तो क्या जंगल से बाघ का रिश्ता टूटने लगा है?

बिल्कुल नहीं। लेकिन फारेस्ट की बात करें तो बाघ को क्या मालूम कि सिविल कौन सा है, रिजर्व कौन और प्राइवेट कौन सा है। उनके लिए तो जहां झाड़ी व पेड़ मिलें, वही फारेस्ट है। यहां मेरे घर के नीचे जो गधेरा है, वहां कुछ साल पहले एक बाघिन ने बच्चे दिए। काफी दिन तक वे यही थे। आम लोग उन्हें देख सकते थे। अब उनके लिए तो यही जंगल है। उन्होंने यही माहौल देखा है।

  • • बाघ को बस्ती की ये लत तो बेहद खतरनाक स्थिति है!

जब हम छोटे थे तो गांव और आसपास भूतों व चुड़ेलों के बारे में खूब किस्से होते थे। लोग डराते भी थे कि उधर नहीं जाना वहां भूत है। लेकिन आज इन गुलदारों ने भूतों और चुड़ैलों को खत्म कर दिया। आज लोग शहर की हद से लगी किसी सुनसान जगह पर जाने पर बाघ के नाम से कांपने लगते हैं। कहीं सुनसान में जाते वक्त दिमाग में पहली चीज बाघ ही आता है। ..और हकीकत में है भी।

  • क्या गांवों से पलायन के पीछे बाघ की दहशत भी एक कारण है?

बहुत बुरा हाल है। करीब नौ गांव तो मैंने अपनी आंखों से देखे हैं जो एकदम बंजर हो चुके हैं। कोई व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों से लड़कर यदि गांव में ठहरना भी चाहे तो गुलदार से कैसे लड़े! गढ़वाल-कुमांऊ के गांवों में जंगली जानवरों और आदमी के बीच इस समय संघर्ष चरम पर है। हम लोगों को जल्द ही तय करना पड़ेगा।

  • • इस पूरी समस्या से कैसे निपटें, निदान क्या है?

कुछ जिम्मेदार लोग इस मुद्दे पर एकसाथ बैठें, गंभीरता से सोचें। फिर इसमें से कुछ चीज निकाली जाए। मैं कहता हूं कि आप बचाएंगे उसी चीज को न, जो कम हो! अब आपके दिमाग में एक बात बैठ गई कि कम हो रहे हैं। जबकि सच यह है कि इनकी संख्या बेतहाशा बढ़ गई है। अगर आपने बचाने हैं तो क्या इनके खाने का इंतजाम नहीं करोगे! उसने तो मांस ही खाना है, घास तो खानी है नहीं। उसके पास कोई ऑप्शन भी नहीं है। अगर आप बचाना चाहते हैं तो जहां से यह कंसेप्ट आया है, उसके तौर-तरीके तो फालो करने होंगे!

  • • सरकार वन्यजीव संरक्षण के प्रति बहुत संजीदा है। क्या आप मानते हैं कि कानूनों में लचीलापन लाया जाना चाहिए?

देखिए, हमें बाघ और गुलदार में फर्क करना पड़ेगा और दोनों के लिए अलग-अलग पॉलिसी बनानी पड़ेगी। माना कि बाघ कम हो रहे हैं मगर गुलदार तो कुत्ते-बिल्लियों से अधिक हो गए हैं। इधर ‘लिविंग विद लेपर्ड’ जैसे विचार पर डिबेट चल रही है। एक टीम पहाड में भी आई थी। मैंने उनसे कहा कि कि बाघ तो पहाड़ी जन-जीवन का अंग रहा है। हमें तो बाघ-बकरी के साथ रहने की आदत रही है। वो हमारे जानवर ले जाता था और हम माइंड भी नहीं करते थे। बल्कि स्वीकार करते थे कि यह तो उसका हिस्सा है। लेकिन दिक्कत तो मैनईटर हो रहे गुलदारों से है।