कश्मीरी अवाम की नई सुबह

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घाटी में विकास एवं भाईचारे की नई इबादत लिखी जायेगी

आम आदमी अपनी जिन्दगी और सपनों को आकार दे सकेगा

दिनेश ध्यानी

जम्मू-कश्मीर में सच सत्तर साल बाद नई सुबह का आगाज हुआ है। दशकों से अपने घरों से बाहर रह रहे कश्मीरी पंड़ितों के दर्द को आज आवाज मिली है। आजादी के बाद किसने क्या किया। किसने देश को अन्धेरे में धकेला या किसने अच्छा किया यह चर्चा का विषय हो सकता है। लेकिन आज जो हुआ, सरकार ने जो निर्णय लिया वह सबसे अहम है। कश्मीर के मामले में हमारा दर्द उन परिवारों से है, उन जवानों से है जिन्होंने दशकों पीड़ा को सहा है, अपनों को कश्मीर में खोया है। कश्मीर की वेदना पूछनी है तो उन माॅ, बहनों बेटियों और उन परिवारों से पूछो जो सांसें रोककर समाचार देखते है कि न जाने कब हमारे अपनों के साथ जो बाॅर्डर पर हैं कश्मीर में तैनात हैं वे कैसे होंगे, आतंकियों की बन्दूकों के निशाने पर हमेशा हमारे जवान रहे हैं। अपने पति की शहादत का दर्द उस नव व्याहता से पूछो जिसे अपनी मांग में अच्छे से सिन्दूर भरना भी नही आया और आतंकियों के कारण वह बेटी असमय ही बेवा हो गई। कश्मीर की वेदना पूछनी हैतो उन लाखों कश्मीरी पंड़ितों से पूछों जिनकों उनके घरों से मार भगाया गया। माताओं बहनों के साथ दुराचार किये, हजारों लोगों की बेरहमी से हत्यायें की। जिस त्रासदी से कश्मीरी पंड़ित गुजरे उस वेदना को सुनने का साहस न अलगाववादियों मंे है न उनमें जो आज भी बन्द कमरों में बैठकर धारा 370 का रोना रो रहे हैं कि क्यों हटाई? सच बात यह है कि पहले भी और आज भी आम कश्मीरी आवम शान्ति से रहना चाहते था लेकिन आतंकियों और अलगाववादियों ने इस घाटी को बर्वाद करके रख दिया। आम आदमी का जीवन नर्क बना दिया था। आशा की जानी चाहिए कि अब लोगों के जीवन स्तर में सुधार होगा और घाटी के दिन बहुरेंगे।

भारत की वर्तमान सरकार ने जम्मू-कश्मीर धारा 370 समाप्त करके तथा राज्य पुर्नगठन हेतु उठाये कदम से नई सुबह का आगाज कर दिया है। इस हेतु दमदार निर्णय लेने वाले नेतृत्व को बधाई और साथ देने वाले राजनैतिक दलों को साधुवाद। देश के अधिसंख्य लोग मानते हैं कि सरकार ने जो फैसला लिया है वह पूरे देश की हित में हैं। हो सकता है अभी वहां के कुछ लोगों को असहज लग रहा होगा क्योंकि उन लोगों को सत्तर साल की जो आदत है वह आसानी से छूटने वाली नही है। रही बात अलगाव और आतंक के आकाओं की तो उन्हौंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन अचानक ये सब हो जायेगा। लेकिन जब नेतृत्व में निर्णय लेने की क्षमता हो तो सबकुछ हो सकता है। यह इस सरकार ने दिखा दिया है।

कुछ बुद्धिजीवी और न्यूज चैलन के कुछ डिजायनर पत्रकार आम हिन्दुस्तानी का दर्द नही समझ सकेत इसलिए वे बड़ी -बड़ी बहसें और ज्ञान बखार सकते हैं लेकिन जरा अपनों को बाॅर्डर पर भेंजकर देखे तो पता चलेगा कि एक सैनिक का जीवन क्या होता है। अर्नगल बयान और वक्तव्य देना आसान है लेकिन कश्मीरी पंडितों के दर्द को समझना इनके बूते की बात नही है। क्यों कि उनकी तंग नजर के अपने दायरे हैं। उनको सिर्फ अपने हित औ अपने आकाओं की आज्ञा ही दिखती है। तभी तो प्रधानमंत्री को कहना पड़ा कि ये लोग हताश हुए निराशावादी सोच वाले हैं।

कश्मीरी पंडितों के दर्द को सरकार ने उनके दर्द को आवाज दी और आज उनको एक आस जगी है कि वे अपने घरों को लौट पायेंगे। तीस साल से भी अधिक हो गया है। जो पीढ़ी देश के अनेकों शहरों में पैदा हुई होगी उसे क्या पता कि कश्मीर हमारा घर है। उन्हें क्या पता कि वे जन्नत के मूल निवासी हैं लेकिर अब वे अपने घर जा पायेंगे। किसी समाज को अगर जिन्दा जी मारना है तो उसको अपनी जड़ों से काट दो तो वह समाज आधा तो वैसे ही मर जायेगा। और कश्मीरी पंड़ितों को तो कत्ल किया गया, अत्याचार किये गये, अनाचार किये गये, दुराचार किये गये और तब जो बच गये उन्हें जलालत की जिन्दगी के साथ दरदर की ठोकरें खाने के लिए बेघर कर दिया गया। अगर कश्मीरी पंड़ितों की जगह कोई और समाज होता, किसी और के साथ ये अनाचार, दुराचार हुए होते तो देश में हायतौबा मच जाती लेकिन अफसोस किसी ने भी उनके दर्द को आवाज नहीं दी। अगर वे जिन्दा रहे तो अपने दम पर, अपने दर्दों और अपनों की यादों के साथ। आज वे देश के तमाम शहरों में लगभग पन्दह लाख हैं और वे अपनी धरती पर वापस जाने की चाह पाल बैठे हैं क्योंकि केन्द्र सरकार ने उनकी राह आसान करने की पहल की है। 

हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी आतंकियों के लिए तो मशाल जुलूस निकाल सकते हैं, अफजल जैसे आतंकी के लिए तो मातम मना सकते हैं। जेएनयू में देश विरोधी नारों को लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी कह सकते हैं लेकिन कश्मीरी पंड़ितों के दर्द को कभी भी इन सलेक्टिव सोच वालों ने नही सुना। क्योंकि उनके दर्द में इनको अपना एजेंण्डा नही दिखा। आज भी कुछ अन्दर ही अन्दर कुलबुला रहे हैं कुछ दायें-बांये घुमाकर अपनी भड़ास निकालने की कोशिश कर रहे हैं। कल जब संसद में देश के गृहमंत्री उक्त संबधी प्रस्ताव पढ़ रहे थे तो उसके तुरन्त बाद एक टीवी स्टूडियों में बैठा एंकर अपने संवाददाता से पूछ रहा था कि बताओं जब गृहमंत्री राज्य सभा में कश्मीर के बावत प्रस्ताव पढ़ रहे थे तो प्रधानमंत्री सदन में मौजूद नहीं थे, क्या भाजपा में सबकुछ ठीक चल रहा है? फिर दूसरा पूछ रहा था कि कश्मीर के अवाम को बन्धक बनाकर रखा है दो दिन से। इन्हें धारा 144 के बाद की चिन्ता तो दिख रही है लेकिन तीन दशक से दर-दर की ठोकरें खा रहे कश्मीरी पंडितों का दर्द नही दिखा। निर्दोष लोगों की हत्यायें नही दिखी। आम कश्मीरी की जिन्दगी जो आतंक ने बर्वाद करके रख दी वो इन्हें नही दिखाई दी। इसी वेदना ने ये सब लिखने का मजबून किया। अन्यथा सोचा था कि इस बारे में कुछ नही लिखूंगा। कुछ लोगों को लगता है कि लेखक, साहित्यकार और कवि अगर कुछ लिखें तो उनके आकाओं के एजेण्डे को पूरा करने की बातें लिखें। सच कभी न लिखें और अच्छे कार्यों की तारीफ न करें। इन लोंगों ने दिल्ली से लेकर देश के गांवों तक नौनिहालों के मध्य एक ऐसा माहौल बना रखा है कि जिससे आने वाले कल की पीढ़ा भी इनकी जैसी सोच वाली हो और देश की मुख्यधारा से उसे विमुख रखा जाये। लेकिन देश का आम नागरिक होने के नाते सभी का दायित्व है कि देश-समाज के सामने संयत और सटीक बातों को रखा जाये। यह हमारा दायित्व और फर्ज भी है। एजेण्डा चलाने वाले अपना एजेण्डा चलायें और सरकारें और समाज देश हित में कार्य करें। अगर देश रहेगा तो तभी हम सबका अस्तित्व बचा रहेगा। देश के बिना किसी का भी कोई वजूद नही है। इसलिए देश हित में जो भी कड़े फैसले सरकारें लें उनका आम आदमी को भी समर्थन करना चाहिए।

आशा की जानी चाहिए कि कश्मीरी पंडितों की घर वापसी होगी। घाटी में विकास एवं भाईचारे की नई इबादत लिखी जायेगी और आम आदमी भी अपनी जिन्दगी और अपने सपनों को आकार दे सकेगा ऐसा माहौल बनेगा। पुनः सरकार को इस हेतु साधुवाद और देश को बधाई।

(श्री दिनेश ध्यानी जी के फेसबुक वाल से साभार)

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