मेरा गांव : यहीं के सपने आते हैं. बचपन का ख़ज़ाना यहीं हैं

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  • बहुत बार आती है इस घर की याद 
  • बिस्ताना गाँव को एक मुस्लिम ज़मींदार से ख़रीदा था

डॉ. सुषमा नैथानी 

मैं 8 साल की उम्र के बाद गाँव से बाहर आ गयी, फिर 25 साल में भारत से बाहर लेकिन फिर भी कई बार यहीं के सपने आते हैं. बचपन का ख़ज़ाना यहीं हैं, यही है जादू का संसार।   

हमारे पुरखों का का लगभग 250-300 साल पुराना घर गाँव बिस्ताना (पौड़ी गढ़वाल) में मेरे पिता को इस पैतृक मकान का दुमंज़िला मिला था।  गाँव में यह सबसे पुराना मकान है, शायद सबसे पहला बना हुआ, कम से कम 250 साल पुराना तो हर हाल में बाद में क़रीब 4-5 बाख़ली, कुछ छोटे मकान बने, जो कुछ आधुनिक, बड़े जंगले वाले थे (अब उनमें से कुछ ढह गए हैं)।   

इसी घर में मेरा जन्म हुआ और बचपन की सब याद यहीं की है।   इस छज्जे से ठीक सामने विराट हिमालय की कई चोटियाँ दिखती है और वर्ष भर यहाँ ख़ूब चटक धूप रहती थी. दिन में सामने धूलिया लोगों का गाँव धूलगाँव, दूसरी तरफ़ मुसलमानों के गाँव पल्ला की मस्जिद दिखती है।   रात को लेंसडाउन और ज़हरीखाल की लाइट्स दिखती हैं।  नीचे जहाँ अब झाड़ उगी है वो बहुत लम्बा पटाँगन है उसके किनारे एक कौने में संतरे, अनार, केला , और पपीते के पेड़ थे, और बिलकुल दूसरे कौने में अखरोट का विशाल पेड़।    पीछे आम का साझा बग़ीचा (जो अब कट गया है). गाँव में कहीं दाड़िम, कहीं आँवला, कहीं आड़ू, मेलू, कचनार और अन्य फलों के पेड़ थे, नीचे चीड़ और सगौन का मिलाजुला जंगल।   

नैथानी लोग मूलत: नैथाना गाँव से आए थे ।   कहा जाता है कि 7-8 पीढ़ी पहले काशीनाथ नैथानी ने (1800s या 1700 के आख़िरी दशक में, गोरखा युद्ध के पहले) बिस्ताना गाँव को एक मुस्लिम ज़मींदार से ख़रीदा था. ऐसा मैंने बचपन में सुना था कि उस ज़मींदार के यहाँ बड़ी समृद्धि थी, उसकी भैसों के गले में चाँदी के हँसुले और सींगों पर चाँदी के गिलास सजे रहते थे. फिर किसी विपत्ति में सब भैंसे पागल हुई और एक के बाद एक भैंसे पहाड़ से छलाँग लगा कर मर गयी. जहाँ भैंसे मरी उस इलाक़े का नाम ‘क़ब्रयू’ है।   

इसी तरह 8-10 लोकेशंस के अलग-अलग नाम हैं, उनकी कहानी धीरे-धीरे याद आएगी।   

मेरे दादा जी गजाधर प्रसाद नैथानी गाँव में संभवत: सबसे बूढ़े थे (सन 1980 में 86 की उम्र में उनकी मौत हुई)। अपनी पीढ़ी में शायद वह अकेले ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने गाँव नहीं छोड़ा और बाहर कोई नौकरी करने नहीं गए।    उनकी पीढ़ी से लगभग सब लोग कहीं न कहीं नौकरी करते थे।    उनके एक बड़े भाई नैनीताल कोर्ट में बड़े बाबू थे और दूसरे फोरेस्टर. बाक़ी कुछ दादाजी लोग मिलेटरी से रिटायर हुए थे, कुछ पंडिताई के लिए बाहर गए थे।    लेकिन वह जीवन पर्यन्त गाँव में ही रहे. लेकिन बाहरी दुनिया से वह बेख़बर नहीं रहते थे।    उसको लेकर उनके भीतर उत्सुकता बनी रही।    पौड़ी जिले के बाहर 1944-46 तक वह दो साल नैनीताल-भवाली में रहे, और फिर 1977-78 में 3-4 महीने कानपुर-लखनऊ होते हुए लौटे।   हरिद्वार, देहरादून, ऋषिकेश भी शायद एकाधिक बार गए थे. मालूम नहीं कि वे कभी दिल्ली गए या नहीं।    गांधी टोपी पहनते थे और 78 में जब हेमवती नंदन बहुगुणा पहली बार डाडामंडी में हेलीकोपटर लाए तो वो बहुत नज़दीक से उसके भीतर झाँकने गए थे।   विनोदी बहुगुणा उन्हें आदर के साथ उसके अंदर तक ले गए थे।   

50 मील की परिधि में लगभग सभी गावों के लोगों के लिए वो अकेले वैद्य भी थे. बरसात के बाद वो कई पौधों वनस्पतियों को इकट्ठा करके कुछ दवाई बनाकर रखते थे और सब लोगों का मुफ़्त ही इलाज करते थे।    80-85 की उम्र में भी कहाँ कहाँ भागकर लोगों को बचाने जाते थे।    प्रेमचंद की मंत्र कहानी जब पढ़ी तो उसके बूढ़े किरदार से मेरा गहरा परिचय था।    हिमालयी वनस्पति से मेरा जो भी परिचय है वो उन्ही की वजह से है।    तक़रीबन 100 पौधों के स्थानीय नाम और उनके पारम्परिक उपयोग की जानकारी मैंने उनकी संगत में ही सीखी।   

दादाजी मास्टर किस्सागो भी थे, बचपन की बहुत सी कहानियाँ अब धुँधली सी याद हैं।    दाजी के पास लगभग सभी पुराण, सुख सागर, राम चरित मानस, कुछ ज्योतिष की सामग्री उनके कमरे में रहती थी. दादा जी का काम शाम होते ही कथा सुनाने का रहता था।    गाँव के सारे बच्चे और बहुएँ उन्हें दाजी ही कहते थे. अड़ोस पड़ोस के बच्चे और अन्य महिलाएँ (हमारे extended परिवार की ही) भी देर शाम तक उनकी कहानियाँ सुनते रहते थे।   

मेरे दादा जी के घर पर पल्ला गाँव से लगभग रोज़ सिकंदर और अल्लाउद्दीन चाचा आते थे, और अमूमन दिन का खाना वहीं खाते थे।   आज जिस तरह हिंदू मुसलमान का द्वेष दिखता है, उसकी छाया भी तब हमारे बचपन में नहीं थी।   

8-9 साल में मैं गाँव से बाहर पिता के साथ चली गई और फिर ऊँगली पर गिनने लायक वाक़ये हैं जब कभी गाँव लौटना हुआ।    80 में दाजी गए और 92 में दादी. मेरा भी आख़िरी बार जाना उस आबाद घर में 1987 में हुआ था।    अब इस बात को भी 30 साल हुए. ख़ुद मेरी अपनी स्मृति में अब बहुत सी चीज़ें दब गयी है।    एक अरसे तक मुझे अपनी तेज़ और कभी कुछ भी न भूलने वाली यादाश्त का गुमान रहता था।   लेकिन अब ऐसा नहीं है. मैं चीज़ों को भूलती जा रही हूँ।    संभवत: मुझे कभी अपनी माँ, बुआ आदि के साथ बैठ कर इन सब को रिकार्ड करना चाहिए।   

बहुत बार इस घर की याद आती है और जी करता है इसे पुनर्जीवित किया जाय।   लेकिन समस्या यह है कि यह 16-18 कमरों का साझा मकान है. शायद पूरा मेरे पिता का होता तो कब का ठीक कर लिया होता।    पिता की पीढ़ी के 4-5 लोग इसमें हिस्सेदार हैं, और बहुत से मर भी गये हैं, उनके बच्चे और कुछ के बच्चों के बच्चे भी पिछले 30-40 सालों में दुनिया जहाँ में बिखरे हैं, पूरे कुनबे को जुटाना और सबकी सहमति हासिल करना बड़ा मुश्किल काम है और रिपेयर के बाद कौन इसकी देखभाल करेगा दूसरी समस्या यह है।    जब बुनियादी सुविधाएँ जैसे स्कूल, अस्पताल या रोज़गार के अवसर न हो तो कितने दिन कोई इस ख़ूबसूरत जगह में रहेगा? यह सब होता तो गाँव ख़ाली भी नहीं होता. हालाँकि यहाँ सब तरह के फल-फूल हो सकते हैं, ओर्गेनिक खेती की जा सकती है और खाने कमाने लायक एक सिस्टम खड़ा किया जा सकता है।    लेकिन फिर यह सब सिर्फ़ परिवार के मर्द ही कर सकते हैं, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का राज्य क़ानून कृषि भूमि में बेटियों को क़ानूनी हक़ नहीं देता।   

 (डॉ. सुषमा नैथानी की फेसबुक वाल से साभार )