पहाड़ी जनजीवन के मध्य बिताए दिनों की स्मृतियां है ”नराई”

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पुस्तक समीक्षा : ‘नराई’ (कुमाऊँ के लोक विम्ब)

मौलिक काव्य रचनाओ के माध्यम से डाला है सटीक प्रकाश

सी एम पपनैं

‘नराई’ (कुमाऊँ के लोक विम्ब) काव्य व कहानी संग्रह संस्कृति विभाग, उत्तराखण्ड के सहयोग से 2018 मे प्रकाशित एक ऐसी पुस्तक है जो बहुत ही सरल भाषा मे सुप्रसिद्ध कवियित्री, कहानीकार, संपादक, कत्थक नृत्यांगना मीना पाण्डेय द्वारा बड़े मनोभाव से आलेखित है।

हिंदी साहित्य मे मीना पाण्डेय का योगदान उनके प्रकाशित कविता संग्रहो व्यैक्तिक संग्रह- सम्भावना, समवेत संग्रह- मुक्ति, मेरी आवाज सुनो, सुनो हिन्द के रहने वालो, अभिराम तथा आलेखित अन्य आलेखों, कहानियों व लेखो के पठन-पाठन द्वारा समझा जा सकता है या फिर उनको मिले सम्मानों- श्री कृष्ण कला अकादमी इंदौर, हम सब साथ-साथ दिल्ली एवं नव प्रभात जन सेवा संस्थान, फैजाबाद तथा वुमैन ऑफ द ईयर अवार्ड से जाना जा सकता है।

मीना पाण्डेय ने बाल्यकाल मे उत्तराखंड के पहाड़ी जनजीवन के मध्य बिताए दिनों की स्मृतियों को जीवन यात्रा के विभिन्न पायदानों से गुजरते, ग्रहण की हुई आदतो व पारंपरिक समृद्ध संस्कारो की यादो को विविध रूपो मे आकार दे, उन्हे पुनः छू लेने का जो प्रयत्न अपने नए प्रकाशित काव्य व कहानी संग्रह मे किया है, उसी को याद स्वरूप पुस्तक का शीर्षक कुंमाउनी बोली मे ‘नराई’ दिया है। उक्त नाम उत्तराखंड के परिवेश मे रची व कही-कही आवश्यक्तानुसार ठेठ कुंमाउनी बोली के शब्दों से ओत-प्रोत उनकी कविताओं व कहानियो की पृष्ठभूमि मे सटीक बैठता है।

प्रकाशित पुस्तक मे मीना पाण्डेय ने रचित कविताओ के माध्यम से उत्तराखंड की रमणीक व मनभावन प्रकृति के मध्य पहाडी जनजीवन के क्रियाकलापो व तीज-त्योहारो के महत्व के साथ-साथ स्थानीय लोक गायकों के गायन तथा हुड़के व ढोल वादकों के महत्व, स्थानीय स्तर पर मंचित होने वाली रामलीला व जागरो मे ‘गंगनाथ जागर’, स्त्री के पहाड़ी जटिल जीवन का मार्मिक वर्णन, शहरी व पहाड़ी महिला की सोच व उनके क्रिया कलापो का अंतर, निरंतर खाली हो रहे गांवो के पलायन/विस्थापन की पीड़ा, बदलते मौसम व खेत-खलिहानो की वर्तमान दुर्दशा व हास पर अपनी मौलिक काव्य रचनाओ के माध्यम से सटीक प्रकाश डाला है।

विस्थापन पर….

नए पते पर पुरानी पहचान खोजते टिन शेड कैंपो के बाहर…एक दर्द भरा गीत सुनाने लगती है…जहां एक गांव हुआ करता था..निगल चुका है मेरा गांव, आंगन, खेत, दालान, पशु, उत्सव, मेले-ठेले उस तरफ मत जाना…जुड़े रह अपनी जमी से…।

स्त्री व्यथा पर…..

ठूठ पर लुटा चढ़ाती दिख रही है…तीक्ष्ण कांटा चुभ गया पाँव मे अडिग वो खड़ी रही घाव मे वृक्ष से सर्प सी लिपटी रही…स्त्रियां गांव मे…।

प्रवास की पीड़ा पर…..

प्रवास की पीड़ा दोहरा रहा है गांव कोइ शहर का जा रहा…

छोड़ कर नोलै धारे…झोला, छपेली चांचरी…कुछ धुंधले सपने धुंधली उम्मीदे बांधकर वो जा रहा…गांव कोइ शहर को जा रहा है।

अर्थव्यवस्था व विकास की धूरी कही जाने वाली पहाड़ी स्त्री के दर्द पर….

पहाड़ की आंख का सूरज…उतर आया आंगन तक…घास गोबर और रसोई घर के वर्तनों से देर तक उलझने के बाद…वो निकल पड़ी है नींद की सैर पर खोजने एक और सूरज…।

काव्य के साथ-साथ उक्त संग्रह मे उत्तराखंड के परिवेश मे रचित चार लघु कहानिया ‘बुढापे का संबल’, ‘अतीत की पहरेदार’, ‘परित्यक्ता’ और ‘दुर्घटना’ के माध्यम से मीना पाण्डेय ने अपनी सशक्त लेखनी की विधा व ज्ञान की विविधता का परिचय दिया है।  

रचित कविताऐं व लघु कहानियां लोक को जोड़ने व वर्तमान मे स्थानीय जन के सम्मुख मुंह बाए खड़ी उनके दुःख-दर्द की समस्याओं व घटनाओं का सटीक बखान करती नजर आती हैं। 

निष्कर्ष रूप मे कहा जा सकता है कि पुस्तक ‘नराई’  मे लेखिका ने उत्तराखंड के लोक जीवन से जुडी अतीत की स्मृतियों मे बसी सामूहिकता, लोकगीत, मेले-ठेले, संघर्ष और आस्था पाले लोक के चरित्र और उससे इतर जीवन जड़ से नही तने से प्रारम्भ होता है, जैसे तथ्यो की पुष्टि रोचक भाव प्रधान व तथ्यपरक मार्मिक कविताओ व कहानियों की रचनाओं के माध्यम से बयां की हैं, जो न सिर्फ पहाड़ी स्त्री की जिजीविषा को दर्शाती नजर आती हैं, बल्कि स्थिर खड़े पहाड़ो की सच्चाई जो केवल कुवासा व हरे-भरे पेड़ नही वरन पहाड़ो की मेहनतकश स्त्रियों भी हैं, तथ्य की पुष्टि करती हैं। 

लेखिका का पहाड़ी जनसरोकारों से जुड़े प्रत्येक पहलू को तथ्यपरक मौलिक सोच के तहत बड़ी सूझ-बूझ से रचित काव्य व कहानियों मे पिरोना, पुस्तक की महत्ता को बढ़ाता है।

पुस्तक शीर्षक- नराई

लेखिका- मीना पाण्डेय

प्रकाशक- सृजन से

प्रकाशन वर्ष- 2018

मूल्य- ₹250/-

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प्रबंध संपादक प्रकृतलोक

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