- जल विद्युत ऊर्जा ही सबसे अधिक सस्ती ऊर्जा के रूप में उपलब्ध
- वर्ष 1879-81 मे जब नियाग्रा जलप्रपात में पहली बार बिजली बनी
- सन् 1898 में भारत की पहली जल विद्युत परियोजना सिंदरपोंग में बनी
प्रमोद शाह
यूं तो प्रकृति मौन रहती है लेकिन अगर सच देखें तो प्रकृति ही सर्वाधिक मुखर होती है । उसकी भाषा सिर्फ संकेत होते हैं । प्रकृति अपने संकेतों से पहले चेतावनी देती है ।अगर ना सम्भले तो तबाही लेकर आती है । इस बरसात में केरल में आई भीषण जल आपदा के पीछे केरल के इडुक्की जल विद्युत परियोजना के गेटो का खोला जाना ही सबसे बड़ा कारण था ।पर्यावरण में हो रहे परिवर्तन और अभी कल ही प्रोफेसर जीडी अग्रवाल स्वामी सानंद की 112 दिनों के उपवास के बादकी शहादत । पर्यावरण और हिमालय क्षेत्र में बन रहे बड़े बांधों के सवालों पर एक चेतावनी ही हैंं । जिसे समझ कर हमें बड़े बांधों से अब तौबा कर ही लेनी चाहिए ।
यद्यपि अभी तक ऊर्जा के ज्ञात स्रोतों में जल विद्युत ऊर्जा ही सबसे अधिक सस्ती ऊर्जा के रूप में उपलब्ध हो रही है ।जिसके कारण सारी दुनिया आज भी जलविद्युत योजनाओं के लिए लालायित है । हालांकि अमेरिका और यूरोप के देशों ने जल विद्युत ऊर्जा से पर्यावरण और भविष्य को हो रहे खतरे को भांपते हुए इस ऊर्जा के उत्पादन की ओर अपने संसाधनों को खर्च करना अब कम कर दिया है ।उन्होंने ऊर्जा के गैर परंपरागत स्रोत यथा सौर ऊर्जा ,पवन ऊर्जा ,नाभिकीय ऊर्जा आदि की ओर ध्यान ज्यादा लगाया है।
वर्ष 1879-81 मे जब नियाग्रा जलप्रपात में ,जब पहली बार बिजली बनाई गई तो उसके मात्र 17 वर्ष बाद सन् 1898 में भारत की पहली जल विद्युत परियोजना सिंदरपोंग, दार्जीलिंग मे बनाई गई तब से भारत हाइड्रोइलेक्ट्रिक में दुनिया का पांचवां बडा उत्पादक देश है । लेकिन जल विद्युत परियोजनाओं के 125 वर्षों के इतिहास में भारत की उपलब्धि आज भी महत्वपूर्ण नहीं है। हम अपनी उर्जा जरूरतों का सिर्फ 4.07 प्रतिशत ही जल विद्युत से प्राप्त करते हैं । और आज भी हमारी सबसे अधिक ऊर्जा पर निर्भरता लगभग 56% कोयले पर ही है। आज हम लगभग 49000 मेगा वाट जल विद्युत ऊर्जा का ही हम उत्पादन करते हैं हमारी प्रस्तावित उत्पादन क्षमता 150000 मेगा वाट की है ।पिछले 125 वर्ष में हम इस लक्ष्य के लगभग 33% को ही प्राप्त कर सके हैं।
अब जबकि ऊर्जा प्राप्ति की यह पद्धति पर्यावरण की दृष्टि से सर्वाधिक खतरनाक हो चुकी है और हमारी अधिकांश जल विद्युत परियोजनाएं हिमालय क्षेत्र में ही प्रस्तावित हैं। जो पर्यावरण की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र है तब यह बड़ी गंभीरता से विचार करने का वक्त आ गया है । कि हमें ऊर्जा जरूरत के नाम पर आउटडेटेड हो चुकी तकनीक बडे बांध निर्माण के आत्मघाती रास्ते पर बड़ना चाहिए या यूरोप और चीन की तरह ऊर्जा के गैर परम्परागत श्रोत ,सौर ऊर्जा, पवन उर्जा जैसे इको फ्रैन्डली ऊर्जा श्रोतो की तरफ साहस के साथ बडना चाहिए । 1 मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए लगभग 5 एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है ।
भारत के पास 200000 वर्ग किलोमीटर भूमि उसर और बंजर है। जिसमें सौर ऊर्जा के संयंत्र लगाए जा सकते हैं ।उपलब्ध भूमि के मात्र 1% भूमि को ही अभी तक सौर ऊर्जा उत्पादन में प्रयोग किया गया है सौर ऊर्जा के क्षेत्र में आंध्र प्रदेश और राजस्थान जो क्रमशः 177 और 50 मेगावाट सौर ऊर्जा विद्युत का उत्पादन कर रहे हैं।के प्रयास सराहनीय हैं । 6100 किलोमीटर का समुद्र तट ,रेगिस्तान और पर्वत हमें पवन ऊर्जा के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म उपलब्ध करातें है ।हालां कि आज हम पवन ऊर्जा के उत्पादन में विश्व के 5वे बड़े देश हो गए हैं ।लेकिन हमारी ऊर्जा जरूरत का इसका योगदान 4.5 % ही है । इस ऊर्जा क्षेत्र में बहुत तेजी से बगैर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए आगे बढ़ने का रास्ता है । जो सुरक्षित और कम खतरनाक भी है ।
भारत नेपाल सीमा पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध जिसका की निर्माण तमाम पर्यावरण विदो की आपत्ति के बाद आरंभ हो रहा है। जिसमे 6720 मैगावाट बिद्युत उत्पादन का लक्ष्य है जिसमें 30 हजार परिवारों को विस्थापित होना है .133 गांव जिसकी जद मे है ।र्चचा में है । जिसके विरोध मे पंचेश्वर जन संवाद यात्रा भी जारी है ।
- बड़े बांधों के जमीनी संकट
पर्यावरण के खतरो के अलावा इन ब़ांंधो का जमीनी संकट भी है ।वह है दावे के 30% से अधिक उत्पादन न कर पाना टिहरी बांध 2400 मैगावाट लक्ष्य के बिपरीत 600 -700 मैगावाट से अधिक विद्युत का उत्पादन कभी नही कर सका। सिल्टिंग समय से पहले होना और उत्तराखंड का सिस्मिक जोन जहाँ 6 से 8.5 रिक्टेर स्केल तीब्रता के भूकम्प कभी भी आ सकते हैं ।भी बडा खतरा हैं ।संत जी .डी अग्रवाल @ सानन्द की मौत के बाद इस दिशा में पुनर्विचार के संकेत हमें प्रकृति ने हमें दिए हैं ।
इन्हें समझकर हमें बडे बांधो से हिमालय क्षेत्र में अलविदा कह. ही देना चाहिए ..