अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस : आपको नमन- डाॅ. सौभाग्यवती – शिक्षिका, स्वाधीनता सेनानी, लेखिका

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भाग्यवती जी ने आर्य समाज के विचारों, वैदिक शिक्षा को बढ़ावा देने और पशुबलि के कलंक को समाप्त करने का प्रेरणादाई सार्वजनिक आवाहृन किया

डॉ. अरुण कुकसाल  
डाॅ. सौभाग्यवती का जन्म 25 दिसंबर, 1928 को टालीगंज, कलकत्ता ( तत्कालीन बंगाल ) में हुआ था। वहां उनके पिता जोधसिंह रावत ‘बंगाल आर्म्ड पुलिस’ में कार्यरत थे। डाॅ. सौभाग्यवती जी का पैतृक गांव सीरौं, असवालस्यूं ( पौड़ी गढ़वाल ) था। उनकी पारिवारिक – सामाजिक पृष्ठभूमि Aarya Samaj के विचारों से प्रभावित थी। उनके दादाजी फतेसिंह रावत, ताऊजी अमरसिंह रावत और पिताजी जोधसिंह रावत आर्य समाज के अनुयायी थे। स्वाभाविक था कि सौभाग्यवती जी के मन – मानस में आर्य समाज के विचारों ने पुख्ता नींव रखी थी।
बैरकपुर ( Bangal) के बांग्ला भाषी विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा की शुरुवात करने के बाद ‘कन्या गुरुकुल, हाथरस’ में कक्षा 3 से सौभाग्यवती जी ने वैदिक शिक्षा लेनी प्रारंभ की थी। सीरौं गांव से अपने पिता और हरिद्वार से अनजानी शिक्षिकाओं के संरक्षण में सन् 1936 में मात्र 8 साल की बालिका सौभाग्यवती की शैक्षिक यात्रा जीवन भर अनवरत चलती रही। गुरुकुल से वैदिक शिक्षा के माध्यम से पढ़ाई करते हुए स्वर्णपदक लेकर उन्होने स्नातक किया। उसके उपरांत विभिन्न Educational institutions में अध्यापन कार्य करते हुए एम.ए. हिन्दी और संस्कृत ( प्रथम श्रेणी ) एवं हिन्दी में पीएच.डी की उपाधि Aligarh Muslim University (AMU) से हासिल की थी। इसके अलावा Prayag Mahila Vidyapeeth, Allahabad से ‘विद्याविनोदिनी’, अयोध्या केन्द्र से संस्कृत साहित्य में ‘शास्त्री’ की उपाधि उनको प्राप्त थी। कन्या गुरुकुल, हाथरस में प्राथमिक कक्षाओं से ही शारीरिक शिक्षा के प्रति उनकी विशेष अभिरुचि रही थी। लेजिम, लाठी, भाला, मुदगर, गदका, तलवार, कटार आदि चलाने में उन्होने निपुणता हासिल की थी।
डॉ. सौभाग्यवती जी के ताऊ जी अमर सिंह रावत उस समय गढ़वाल – कुमाऊं के चर्चित – लोकप्रिय व्यक्तित्वों में माने जाते थे। ( सीरौं गांव में रहते हुए अमरसिंह रावत जी ने ( सन् 1930 से 1942 तक ) ग्रामीण जनजीवन की दिनचर्या को आसान बनाने और उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर उपयोग के लिए नए – सफल वैज्ञानिक प्रयोग किए थे। उन्होने अपने घर का नाम ‘स्वावलम्बन सदन’ रखा था। अभिनव प्रयोगों के माध्यम से अमरसिंह रावत जी ने नई, सरल और अधिक सुविधायुक्त तकनीकी से सूत कातने का चरखा, अनाज पीसने एवं कूटने की चक्की, पवन चक्की, साबुन, वार्निश, इत्र, सूती एवं ऊनी कपड़े, रंग, कागज, सीमेंट आदि का निर्माण किया था। उनका सर्वाधिक सफल प्रयोग भीमल, भांग, चीड़, कंडाली, खगशा, सेमल, मालू आदि वनस्पतियों से कपड़े को तैयार करना था। उन्होने सन् 1935 में चीड़ के पिरूल ( पत्तियां ) से जैकेट बनाई थी। उसे जवाहर लाल नेहरू जी को भेंट करने के बाद उसका ब्रांड नाम ‘जवाहर बास्कट’ रखा था। अमरसिंह रावत ने सन् 1940 में बम्बई के उद्योगपति सर चीनू भाई माधोलाल बैरोनत के 1 लाख रुपये के आॅफर को ठुकरा कर अपने गढ़वाल में स्वःरोजगार की अलख जगाना बेहतर समझा था। वे प्राकृतिक रेशों से संबंधित उद्यम स्थापना हेतु जिला पंचायत, पौड़ी के 8 हजार रुपये के अनुदान से चैलूसैंण नामक स्थान पर यह अभिनव कार्य प्रारंभ कर ही रहे थे कि 30 जुलाई, 1940 को बांघाट अस्पताल में उनका निधन हो गया। उनके निधन के उपरान्त सारे प्रयास ठप्प हो गए। महान अन्वेषक – उद्यमी अमर सिंह रावत की लिखी पुस्तक ‘पर्वतीय प्रदेशों में औद्योगिक क्रान्ति’ आज भी उत्तराखंड के समग्र विकास के लिए उपयोगी संदर्भ साहित्य है। ये अलग बात है कि हमारे समाज ने उनके योगदान और प्रयासों की आज तक कदर नहीं की है। )
डाॅ. सौभाग्यवती जी कन्या गुरुकुल, हाथरस में अध्यापन और प्राचार्य के पद पर कार्यरत रही। उसके उपरान्त उन्होने टीकाराम कन्या महाविद्यालय, अलीगढ़ में हिन्दी, संस्कृत और शारीरिक शिक्षा विषय का अध्यापन कार्य किया। इसी महाविद्यालय से उन्होने हिन्दी के विभागाध्यक्ष के पद से सन् 1987 में अवकाश प्राप्त किया था।
डाॅ. सौभाग्यवती जी जीवन-भर अध्यापन, सामाजिक सेवा और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रही। ‘चैतन्या महिला मंच, अलीगढ’ की अध्यक्षा के रूप में उन्होने कई साल तक सराहनीय योगदान प्रदान किया था। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं में वे निरंतर सामाजिक – शैक्षिक लेखन में सक्रिय रही। वैदिक संस्कृति, गुरुकुल शिक्षा, आर्य समाज आदि विषयों पर उनके लेख एवं विचार चर्चित रहे हैं। गांधी जी की शिष्या सरला बहन, भक्तदर्शन, भैरवदत्त धूलिया, अमरसिंह रावत, सुखवीर सिंह, लक्ष्मी देवी, सुखदेव सिंह, चन्दा देवी, शहनवाज़ खां, अक्षय कुमारी, महेन्द्र प्रताप शास्त्री आदि विद्वानों का सानिध्य उन्हें जीवन के विभिन्न अवसरों प्राप्त हुआ था। ‘उत्तरा’ महिला पत्रिका, नैनीताल में वर्ष – 2005 से 2011 तक 23 किस्तों में ‘यादें’ शीर्षक में डाॅ. सौभाग्यवती जी के जीवनीय संस्मरण प्रकाशित हुए। इन संस्मरणों में गुरुकुल शिक्षा, अध्ययन, अध्यापन, पैतृृक गांव सीरौं की पैदल यात्रा, पहाड़ी गांव – इलाके में सामाजिक चेतना के प्रयास, जेल यात्रा आदि विविध अनुभवों को रोचकता से बताया गया है।

गुरुकुल से वैदिक शिक्षा के माध्यम से स्नातक उपाधि का स्वर्णपदक प्राप्त करने के बाद सन् 1946 में ग्रीष्मकालीन अवकाश होने पर सौभाग्यवती जी अपने पैतृक गांव सीरौं आई तो उनका गांव – इलाके में विभिन्न अवसरों पर भव्य स्वागत हुआ था। उच्च शिक्षा प्राप्त युवा सौभाग्यवती जी की सामाजिक सक्रियता से प्रेरित होकर असवालस्यूं क्षेत्र की अन्य बालिकायें भी आगे पढ़ने के लिए अग्रसर हुई। महत्वपूर्ण है कि राजकीय प्राथमिक विद्यालय, कंडारपानी ( असवालस्यूं ) में सौभाग्यवती जी की उच्च शिक्षा और सामाजिक चेतना की उनकी पहल के सम्मान में एक भव्य ‘नागरिक

अभिनंदन समारोह’ आयोजित किया गया था। जिसमें कई गांवों के सैकड़ों लोगों ने भाग लिया था। इसी दौरान जून, 1946 में आजाद हिन्द फौज के जनरल शहनवाज़ खां गढ़वाल के दौरे पर आये तो पाटीसैंण में उनके स्वागत में सभा का आयोजन किया गया था। उसी सभा में बालिका सौभाग्यवती ने अपना अंगूठा चीर कर अपने रक्त से शहनवाज़ खां का अभिनंदन किया था। इस अवसर पर देश की आजादी के लिए उनके प्रभावी भाषण की सभी ने खूब तारीफ की थी।
जून, 1946 में सम्पन्न खैरालिंग ( मुंडनेश्वर ) मेले में आर्य समाज की ओर पशुबलि (Cattle sacrifice) को समाप्त करने के लिए जन – जागरूकता सभा का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम में तत्कालीन पौड़ी गढ़वाल जनपद के जिला परिषद सदस्य सुखदेव सिंह की उपस्थिति में मुख्य वक्ता के रूप में सौभाग्यवती जी ने आर्य समाज के विचारों, वैदिक शिक्षा को बढ़ावा देने और पशुबलि के कलंक को समाप्त करने का प्रेरणादाई सार्वजनिक आवाहृन किया। बाद में सुखदेव सिंह ( जिला परिषद सदस्य ) और कई अन्य सभ्रांत व्यक्तित्वों के आत्मीय सहयोग – मार्गदर्शन में सौभाग्यवती जी के साथ अनेक स्थानीय युवाओं ने असवालस्यूं के कई गावों में इस तरह के जन – जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किये गये थे। जिनका दीर्घकालीन व्यापक सकारात्मक प्रभाव हुआ था।
सौभाग्यवती जी ने अपने गांव सीरौं के नजदीकी गांवों में बालिका शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा और सामाजिक चेतना को बढ़ावा देने के लिए अथक प्रयास किया। निर्भीक और तर्कसंगत विचारों ने उन्हें लोकप्रिय पहचान दी। अतः ग्रामीणजन उनके विचारों और सलाह का सम्मान करते थे। इस संदर्भ में एक दिलचस्प किस्सा है। सौभाग्यवती जी के पिता जोधसिंह रावत उस दौरान सीरौं गांव के प्रधान थे। इलाके में मेलूखाली अथवा मवाधार नामक स्थान पर राजकीय जूनियर हाईस्कूल खोला जाना था। क्षेत्र के ग्राम पंचायतों की सहमति से उक्त में से एक स्थान का चयन किया जाना था। क्योंकि सीरौं गांव से मेलूखाली और मवाधार स्थलों की दूरी लगभग समान थी। अतः सीरौं ग्राम पंचायत ने तय किया कि इस बारे में तटस्थता की नीति अपना कर मतदान में भाग नहीं लिया जाय। परन्तु अपने घनिष्ठ मित्रों के दबाव में आकर सौभाग्यवती जी के पिता जोधसिंह जी ने कंडारपानी में आयोजित मतदान में अपने मत का प्रयोग कर दिया था। उनके इस कृत्य का पुरजोर विरोध करते हुए युवा सौभाग्यवती ने अपने पिता को दण्डित करने के ग्राम पंचायत के प्रस्ताव पर सहमति प्रदान की थी। उन्होने यह भी सिफारिश की कि क्योंकि यह दंडित कार्य प्रधान के सम्मानित पद पर रहते हुए किया गया है इसलिए गांव में अब तक पूर्व में लिए गए आर्थिक दण्ड से कहीं ज्यादा होना चाहिए।
सौभाग्यवती जी के शब्दों में ‘मैंने अपनी सहज समझ के अनुकूल यह राय व्यक्त की कि जो दण्ड या जुर्माना अब तक किसी गलती पर न लागू हुआ हो उसे पिताजी पर लागू करना न्यायोचित होगा। दो रुपये जुर्माना किसी व्यक्ति पर लग चुका था,….यह अब तक का सबसे बड़ा जुर्माना माना जाता था। मैंने पांच रुपये का जुर्माना लगाने की राय दे दी। सबने सहर्ष इसी दण्ड को पिताजी पर लागू कर दिया और पिताजी मेरी निष्पक्ष भावना से बहुत संतुष्ट हुए। पंचायत ने जिसमें सभी मेरे भाई -बंधु और चाचा – ताऊ थे, सर्वत्र मेरी सराहना की तथा मुझे स्नेहाशीर्वाद भी दिया।’ ( अक्टूबर – दिसम्बर 2007, ‘उत्तरा’, पृष्ठ – 18 )
गुरुकुल में पढ़ते हुए बालिका सौभाग्यवती जी ने देश के सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलनों में अपनी रचनात्मक भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। आर्य समाज का प्रमुख साप्ताहिक समाचार पत्र ‘आर्यमित्र’ गुरुकुल में विद्यार्थियों की सामाजिक चेतना का प्रमुख वाहक था। सौभाग्यवती के साथ गुरुकुल की कई अन्य विद्यार्थियों ने 8 अगस्त, 1942 के ‘अग्रेजों भारत छोड़ो’ आन्दोलन में सक्रिय और प्रत्यक्ष भागेदारी निभाने का निर्णय लिया। इस कार्य में गुरुकुल से जुड़े आर्यसमाज के प्रचारक और देश के स्वाधीनता आंदोलनकारियों ने समय – समय पर उनका मार्गदर्शन किया। सौभाग्यवती और उनके मित्र सहपाठी दिन – रात कई आन्दोलनकारियों के प्रचार के पर्चे और पैम्पलेट की कार्बन कापी बनाती ताकि अधिक से अधिक लोगों तक देश को आजादी दिलाने की बात पहुंच सके।
डाॅ. सौभाग्यवती जी का विवाह सिमरौठी गांव ( अलीगढ़ ) के सुखवीर सिंह ( स्वतंत्रता सैनानी और कम्युनिस्ट नेता ) से 6 जून, 1948 को हुआ। विवाह के दूसरे दिन ही इनके पति मजदूर आंदोलन में सक्रिय होने कारण गिरफ्तार हो गये। जीविका और उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा से जुलाई, 1948 में सौभाग्यवती जी अब्दुला हाईस्कूल, अलीगढ़ में हिन्दी और शारीरिक शिक्षा की अध्यापिका हो गई। परन्तु 3 अक्टूबर, 1948 को कम्यूनिस्ट पार्टी के देशव्यापी ‘रेल रोको आंदोलन’ में भागेदारी के कारण अन्य तीन महिला साथियों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। वे 3 माह अलीगढ़ और बनारस जेल में राजनैतिक कैदी रही जबकि उनके पति सुखवीर सिंह बरेली जेल में बंद थे। जेल में रहते हुए उन्हें देश की सामाजिक – राजनैतिक चेतना को सोचने – समझने का अवसर मिला। उन पर माफीनामा लिख कर रिहा होने का बराबर दबाव बनाया गया परन्तु उन्होने जेल में रहना स्वीकार करके अपना समय कैदियों की मनोदशा और समस्याओं को समझने, अध्ययन और लेखन कार्य में बिताया। उनकी सासूजी ने उनके इस कार्य की सराहना करके उनके मनोबल को बनाए रखा।
सौभाग्यवती जी के शब्दों में ….जब जेलर मेरी सास से मिले तो उनसे कहा कि माफी मांगकर बहू को छुड़वाने की उन्हें कोशिश करनी चाहिए। इस बात का उत्तर हिम्मत से देते हुए मांजी ने कहा कि जब मेरी बहू ने कोई अपराध ही नहीं किया तो माफी किस बात की मांगे। वास्तव में मांजी अपने बेटे की राजनीति और जेल यात्राओं से भलीभांति परिचित हो चुकी थीं। उन्होने जेलर से कहा कि मैं तो आपसे पहले के तीन जेलरों के दर्शन कर चुकी हूं। कम्यूनिस्ट देश की भलाई की बात कहते हैं, गलत नीतियों का विरोध करते हैं तो उनको सरकार पकड़कर जेल में बंद कर देती है। जेलर सहाब समझ गए कि मेरी सास काफी मजबूत महिला हैं।’( जुलाई – सितम्बर 2007, ‘उत्तरा’, पृष्ठ – 15 )
डाॅ. सौभाग्यवती जी अध्यापन के साथ – साथ सामाजिक सेवा के कार्यों में ताउम्र निरंतर सक्रिय रही। उनके पति सुखवीर सिंह 13 वर्ष तक सिमरौठी के ग्राम प्रधान रहे। पति – पत्नी की सामाजिक जागरूकता और सक्रियता के कारण सिमरौठी को आर्दश गांव का सम्मान प्राप्त था। सेवा निवृत्ति के पश्चात डाॅ. सौभाग्यवती सपरिवार उदयपुर ( राजस्थान ) में रहने लगी। 23 जनवरी, 2018 को विनायक नगर, उदयपुर में अपने निवास में डाॅ. सौभाग्यवती जी का देहान्त हो गया।
संदर्भ –
1. ‘यादें’ डाॅ. सौभाग्यवती, ‘उत्तरा’ महिला पत्रिका, नैनीताल वर्ष – 2005 से 2011 तक ( 23 किश्तों में )।
2. ‘विदुषी सौभाग्यवती’, शीला रजवार, ‘उत्तरा’ महिला पत्रिका, नैनीताल, अप्रैल – जून, 2018।
डॉ. अरुण कुकसाल की फेस बुक वाल से साभार