आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास खोकर भारत हुआ उपनिवेशवाद का शिकार

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अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत पूर्णरुप से था आत्मनिर्भर

उस समय गरीबी वैसी नहीं थी जैसे अंग्रेजों के शासनकाल के बाद भारत में पैदा हुई

उस समय कागज की मुद्रा तो नहीं लेकिन  दमड़ी,सोने,चांदी,तांबे की मुद्रा थी अधिक मात्रा में प्रचलन में

कमल किशोर डुकलान
अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत पूर्णरुप से आत्मनिर्भर था। भारतीय हर गांव में अपनी जरूरत भर का सामान पैदा कर ही लेते थे,और अपने आस-पास की सभी जरूरतें पूरी भी करते थे। अदला-बदली की व्यवस्था के तहत समाज अपने खान-पान, कपड़े-लत्ते एवं जरूरत के अन्य संसाधन प्राप्त कर लेता था। मध्यकाल में भारतीय समाज अतिरिक्त उत्पादन भी करने लगा। उस समय कागज की मुद्रा का आगमन तो नहीं हुआ था, किंतु दमड़ी,सोने,चांदी,तांबे की मुद्रा अधिक मात्रा में प्रचलन में थी। अभिजात्य समाज में मुद्रा का चलन अधिक मात्रा में था। इत्र, गुलाल,मलमल के कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन एवं सुख-सुविधाओं की सामग्रियां भारतीय समाज स्थानीय स्तर पर ही उत्पादित करता था। वह काफी हद तक आत्मनिर्भर स्थानीय समाजों से मिलकर बना था। लेन-देन के आधार पर ही भारत के उकृष्ट उत्पाद दुनिया के अन्य देशों में जाते थे। मलमल, इत्र, मसाले, गुड़-राब, मोती-मनके जैसे भारतीय उत्पादों की दुनिया के कई देशों के बाजारों में धाक थी।
उस समय गरीबी वैसी नहीं थी जैसे अंग्रेजों के शासनकाल के बाद भारत में पैदा हुई। व्यवसायी,दस्तकार समुदाय, कृषक आत्मनिर्भर थे। स्थानीय उत्पादों की जिस ब्रांडिंग की अपील आज पीएम नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वह 19वीं शताब्दी के पहले के भारतीय समाज में मौजूद थी। बनारस की साड़ी, ढाका का मलमल, टांडा के सूती कपड़े, बिजनौर का इत्र, मदनपुर की साड़ी स्थानीय उत्पादों के ब्रांड नाम थे। हर स्थानीय समाज के कुछ उत्पाद पूरे देश में ब्रांड बन चुके थे।
भोजपुरी के लोकगीतों में करनाल का कड़ा, पुणे की पाजेब, नागपुर की नथिया, कलकत्ता की करधनी, बरेली का झुमका, झांसी की झुलनी मंगाने के लिए पत्नियां पति से जिद करती मिलती हैं। ऐसे ही अन्य स्थानीय उत्पादों के ब्रांड बनने की लोकस्मृति हरेक लोकबोली में अभी भी मिल जाएगी। ये स्मृतियां अभी भी ढूंढी जा सकती हैं। जो सामाजिक समूह, कारीगर जातियां उत्पाद बनाती थीं या जिनका व्यवसाय करती थीं वे आर्थिक रूप से समृद्ध थीं। कहने का तात्पर्य है कि अंग्रेजों के आने के बाद विकास की जो प्रक्रिया भारत में चली उसने हमारे समाज की आत्मनिर्भरता को छीन लिया। उन्होंने हमारी कृषि, हमारे खान-पान, हमारे उपभोग के तरीकों को बदल दिया। हमारे जीवन जीने की तौर-तरीके उपनिवेशवाद ने छीन लीं।
अंग्रेजों ने हमारे मन में बाहरी सामान का नशा भर दिया। इस नशे से उन्होंने सबसे पहले अपने को,अपनी संस्कृति को उकृष्ट एवं हमारी संस्कृति एवं हमारे ज्ञान को हीन बताकर हमसे हमारा आत्मविश्वास छीना। एक प्रकार से अंग्रेजों ने पश्चिमी आधुनिकता के अस्त्रों से हमारे देशज आधुनिकता का बध कर डाला। इस लड़ाई में उपनिवेशवादी साम्राज्य ने अपने सैनिक और अन्य संसाधन झोंक दिए। हमारे समाज का विऔद्योगिकरण कर दिया गया और हमें मात्र कच्चा माल का उत्पादक बना दिया गया। इस प्रकार उपनिवेशवाद ने कथित आधुनिकता के अस्त्र से हमारे आत्मविश्वास को तोड़ दिया। आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता, दोनों का एक-दूसरे से गहरे लगाव है।
अंग्रेजों ने पश्चिमी आधुनिकता को मैकाले शिक्षा से लैस कर दिया जिसने चूहे के मानिंद हमारे भीतर रह कर हमें ही कुतर डाला। देशज और लोक ज्ञान जो हमारे अन्त:करण में आत्मविश्वास भरते थे, उनसे हमें काट दिया गया। इसी को कुछ समाजशास्त्री हमारी आत्मा में विखंडन के रूप में देखते हैं। हमारी अंग्रेजों द्वारा आत्मनिर्भरता को हरने के लिए ही औपनिवेशिक अकादमिक विमर्श रचा गया। इसने हमें एक वायरस की तरह संक्रमित कर कमजोर करने का काम किया। इस औपनिवेशिक वायरस के कारण हम अपने उत्पाद और ज्ञान को हीन मानने लगे और आयातित सामान एवं विचारों पर जीने के आदि होते चले गए। इस तरह अपनी ही भाषा,देशज विचार एवं देश की ज्ञान परंपरा से दूर होते गए। हालांकि जब हमें यह अनुभव हुआ कि हमारे साथ अंग्रेजों द्वारा एक प्रकार से छल हो रहा है तो इसी अनुभव ने हमें उस पूरे औपनिवेशिक हस्तक्षेप के विरुद्ध लड़ाई की चेतना हमारे मन में पैदा की।
आज अगर हम अपनी आत्मनिर्भरता वापस लाने की बात कर रहे हैं तो हमें अपने आजादी से पूर्व के औपनिवेशिक सामाजिक अनुभवों को पुन: याद करना होगा। याद करने का मतलब यहां उनकी पुनरावृत्ति करना नहीं, वरन उस स्मृति के कोश में से हमें भविष्य निर्माण के लिए कुछ रणनीतियां बनानी होंगी। महात्मा गांधी के पास उपनिवेशवाद के इस घातक वायरस की काट थी। उन्हेंं पता था कि इस राक्षस का प्राण किस सुग्गे के कंठ में बसता है। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में देशज वस्तुओं एवं विचारों के उपयोग को प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में विकसित किया। उन्होंने सिर्फ बहिष्कार नहीं, वरन अपने ज्ञान, संस्कृति एवं उत्पादों को औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध विकल्प के रूप में विकसित किया।
ग्राम स्वराज, देशज तकनीक, चरखा, सूत, खादी, अपनी भाषा-ये सभी उनके आजादी की लड़ाई के प्रमुख हथियार थे जिससे वह अंग्रेजों एवं उनकी पश्चिमी आधुनिकता द्वारा हमसे छीनी गई आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना चाहते थे। इस युद्ध में वह भारतीय समाज के आत्मविश्वास को एक अमोघ अस्त्र के रूप में विकसित करना चाहते थे। आजादी के बाद हम विदेशी सामान,विचार,संस्कृति,शिक्षा और ज्ञान पर इतने अधिक निर्भर हो गये कि हमने इस क्रम में अपनी आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास दोनों ही डाले।
हम उपनिवेशवाद सृजित जिस गरीबी एवं अविकास का शिकार हुए हैं उसका ऊपरी दवाओं से इलाज संभव नहीं है। इसके लिए अगर हमें अपने खोए हुए ज्ञान को पाना है,तो हमें अपने विचारों एवं आदतों का इलाज करना होगा। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ-साथ प्रत्येक भारतवासी को अपने अपने अंदर की निहित शक्ति, आत्मविश्वास एवं अपने समाज के आंतरिक स्रोतों को याद कर उन्हेंं फिर से मौलिक रूप से पुन: सृजित करना होगा। तभी हम आत्मनिर्भर हो सकेंगे।