विकास के पैमाने पर बीते 20 वर्षों में कितना बढ़ा उत्तराखंड

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उत्तराखंड की जनता चाहती है विकासमान जनतंत्र 

उत्तराखंड का विकास एवं राजनीति के पैमाने पर अगर मूल्यांकन किया जाए तो अन्य राज्यों की तुलना में विकास की गति बेहतर

उत्तराखंड की जनता अपनी आलोचनात्मक चेतना से हर पांच वर्षों में सत्ता हस्तांतरण कर यहां की राजनीति को करती रही है नियंत्रित

कमल किशोर डुकलान 
अविभाजित उत्तर प्रदेश से पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा ही दंश अलग राज्य के आंदोलन के मूल में रहा। … आंदोलनकारियों पर हुए तमाम तरह के दमन और संघर्षों के बाद 9 नवंबर सन् 2000 को देश के 27वें राज्य के रूप में उत्तरांचल का गठन हुआ। राज्य की भावनाओं के अनुरूप उस समय की तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने सन् 2007 में राज्य का नाम बदलकर उत्तराखंड किया। राज्य गठन के 20 वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश से अलग हुए के पर्वतीय अंचल जिसका कि 93 प्रतिशत पर्वत एवं 64 प्रतिशत वन अच्छादित क्षेत्र पड़ता है,इस क्षेत्र को एक नए राज्य के रूप में संयोजित इसलिए किया गया था। अलग राज्य बनाने के पीछे का एक हेतु यह भी था कि यहां का त्वरित विकास एवं सक्षम प्रशासन के लिए ऐसा किया गया था। उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड के साथ देश के मध्यप्रदेश से अलग छत्तीसगढ़ और बिहार से से अलग कर झारखंड दो अन्य राज्य एक साथ बनाये गये थे। इन राज्यों के बनने से यह माना जा रहा था कि छोटे राज्य बनने से इन पिछड़े क्षेत्रों में विकास को गति मिल सकती है।
विकास के साथ-साथ इन नए राज्यों की जनता में एक ऐसे नेतृत्व पाने की आकांक्षा थी,जो उनका हो, उनको जान-समझ हो एवं उनके प्रति संवेदनशील हो। इन राज्यों को बने 20 वर्ष का एक लंबा कालखंड पूरा हो चुका है। इन बीस वर्षों में विकास एवं राजनीति के संदर्भ में इन छोटे राज्यों के प्रदर्शन का एक मूल्यांकन किया ही जाना चाहिए। अगर अन्य राज्यों की तुलना में गहराई से मूल्यांकन किया जाए,तो उत्तराखंड की विकास गति अन्य छोटे राज्यों की तुलना में बेहतर मानी जाएगी। उत्तराखंड की आर्थिक विकास दर राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर से भी बेहतर मानी गई है। उत्तराखंड ने इन बीस वर्षों में आय का औसतन 10 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर का लक्ष्य प्राप्त किया है, जो छह-सात प्रतिशत की राष्ट्रीय विकास दर की तुलना में अधिक है।शिक्षा,स्वास्थ्य,सड़क,पर्यटन,परिवहन जन्म एवं मृत्यु दर जैसे अनेक सामाजिक मानकों के दृष्टिकोण से उत्तराखंड का प्रदर्शन अन्य दो राज्यों की अपेक्षा बेहतर माना गया है।
नवम्बर सन् 2000 को बने ये तीनों छोटे राज्य जन एवं सामाजिक आकांक्षाओं की मूल राजनीतिक अभिव्यक्ति थी। इन राज्यों को बनाने वाले जनांदोलनों में यह कल्पना साफ देखी जा सकती थी कि इन राज्यों का नेतृत्व जड़ों से जुड़े एवं यहां के समाज के प्रति संवेदना से ओत-प्रोत हो। ऐसा इन बीस वर्षों में हो भी रहा है उत्तराखंड विधानसभा की बात करें तो यहां की जनता अब तक पांच चुनाव देख चुकी है। इस राज्य के आठ मुख्यमंत्री अब तक बन चुके हैं। जो प्रायः सभी यहां की जमीन से जुड़े रहे हैं।
नारायण दत्त तिवारी हालांकि उत्तराखंड बनने के पूर्व से ही राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं। उत्तराखंड बनने के बाद इसके विकास की आधारशिला इन्होंने ही रखी। विजय बहुगुणा जो हेमवतीनंदन बहुगुणा के सुपुत्र हैं, इलाहाबाद में पले-बढ़े हैं। इलाहाबाद में अपने लंबे प्रवास के बाद जब वह उत्तराखंड की राजनीति में आए,तो उन्होंने साबित किया कि वह यहां के सामाजिक अन्तर्विरोधों को गहराई से समझते हैं। उत्तराखंड के अन्य मुख्यमंत्रियों में भगत सिंह कोश्यारी, भुवनचंद्र खंडुरी, रमेश पोखरियाल निशंक, त्रिवेंद्र सिंह रावत भी इस क्षेत्र की जनआकांक्षाओं से गहराई से जुड़े रहे हैं। हरीश रावत की शिक्षा-दीक्षा हालांकि लखनऊ में हुई,परंतु उत्तराखंड की जमीन से उनका रिश्ता बना रहा है।
डाक्टर रमेश पोखरियाल ‘निशंक’उत्तराखंड के ऐसे लोकप्रिय जननेता हैं। जिन्होंने 1990 के दशक में कांग्रेस के अत्यंत लोकप्रिय नेता डाक्टर शिवानन्द नौटियाल जो पांच बार से लगातार उस समय कर्णप्रयाग विधानसभा क्षेत्र से लगातार जीत रहे थे, डाक्टर रमेश पोखरियाल निशंक ने डाक्टर शिवानन्द नौटियाल को हराकर 1991 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुंचे। 2009 से 2011 के बीच जब वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हरिद्वार एवं उधमसिंह नगर का सफल विलय उत्तराखंड में करने का जटिल काम संपन्न किया। आज ये क्षेत्र उत्तराखंड के लिए खाद्य उत्पाद करने वाला महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में मौजूद है। हरीश रावत भी पहले एक सफल जननेता के रूप में उत्तराखंड में लोकप्रिय हुए, फिर वह राज्य के मुख्यमंत्री बने। त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड की जमीन में संघर्ष कर बड़े हुए हैं।
उत्तराखंड की राजनीति में दो दल कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी मुख्य रूप से प्रभावी हैं। हर पांच साल में राज्य सत्ता पर इन दो दलों की ही अदला-बदली चलती रहती है। उत्तराखंड क्रांति दल जैसे संगठन जो उत्तराखंड के निर्माण के समय काफी सक्रिय था,राज्य की राजनीति कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा की सरकारो में भागीदारी के कारण आज हाशिये पर हैं। अगर उत्तराखंड क्रांति दल के राज्य से हासिये पर जाने के अन्य कारणों का विश्लेषण किया जाए तो इसका एक कारण यह भी है कि उत्तराखंड की जनता राज्य निर्माण के लिए जनसंघर्ष इसलिए कर रही थी, कि उसको अपना दीर्घकालिक विकास चाहिए था। जिन दलों के पास उत्तराखंड के निर्माण के साथ उसके भविष्य के जनतंत्र एवं विकास की टिकाऊ राजनीति की संभावना जनता ने देखी राज्य बनने के बाद उत्तराखंड की जनता उन्हीं दलों से जुड़ती चली गई।
आज अगर इन बीस वर्षों में देखा जाए तो जनतंत्र की राजनीति मूलतः विकास की राजनीति में परिवर्तित होती जा रही है। जो उसे जितनी प्रतिबद्धता एवं ईमानदारी से करेगा जनता उन दलों से उतनी जुड़ती चली जाएगी। उत्तराखंड की जनता ने भी बीस वर्षों में दिखाया है कि राज्य की जनता एक विकासमान जनतंत्र चाहती है। वह अपनी आलोचनात्मक चेतना से हर पांच वर्षों में सत्ता हस्तांतरण कर यहां की राजनीति को नियंत्रित भी करती रहती है।
उत्तराखंड के इन पूर्व एवं वर्तमान मुख्यमंत्रियों ने राज्य को विकास के पथ पर आगे ले जाने की अपनी ओर से हर तरह से कोशिशें की हैं। फिर भी उत्तराखंड में, जिसकी लगभग 66.6 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और जहां दुर्गम एवं दुरूह पर्वतीय एवं जंगल क्षेत्रों में लोगों का वास है, बिजली एवं सड़क गांव-गांव पहुंचाना भौगौलिक बिकट परिस्थितियों के कारण एक बड़ी चुनौती बनी है। ‘इको-टूरिज्म’ की अनंत संभावनाएं उत्तराखंड में छिपी हुई हैं। उन्हें अभी पूर्ण रूप से विकसित होना बाकी है। दुरूह एवं दुर्गम क्षेत्रों के वासियों तक जनतंत्र एवं विकास को पूर्ण रूप से पहुंचना बाकी है। इसके लिए जरूरी है कि राज्य सरकार जरुरी परिणाम निकट भविष्य में देने वाली रहेगी। आवश्यकता है जड़ों से जुड़ी एवं संवेदनशील राजनेताओं की जो जनता की सामाजिक एवं विकासपरक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर सके।