डायनासोर का नामो-निशानजिस महाविनाश में मिट गया , उससे कैसे बच गए मगरमच्छ?

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तेजी से विकास करते हुए मगरमच्छों ने खुद को जमीन और महासागरों में रहने के लायक बना लिया : शोधकर्ता

शोधकर्ताओं ने की अब तक 200 से अधिक अवशेषों की जांच 

मगरमच्छों ने खुद को जैव विविधता के मुताबिक रहने और खाने के लिए अनुकूल बना लिया : शोधकर्ता

देवभूमि मीडिया ब्यूरो 
मैसच्यूसेट्स  : करीब 6.6 करोड़ साल पहले अंतरिक्ष से आए एक क्षुद्रग्रह ने डायनासोरों को खत्म कर दिया था। वहीं मगरमच्छ इस महाविनाश से कैसे जिंदा बच गए थे। ऐसा क्यों हुआ था इस पर शोधकर्ता लंबे अर्से से अध्ययन कर रहे हैं। लेकिन अब उन्होंने इसका जवाब खोज लिया है। शोधकर्ताओं की मानें तो तेजी से विकास करते हुए मगरमच्छों ने खुद को जमीन और महासागरों में रहने के लायक बना लिया था। 
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ऑर्गैनिज्मिक एंड इवोल्यूशन बायोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर स्टेफनी पियर्स के मुताबिक, प्राचीन मगरमच्छ एक चक्करदार रूप में आए थे। इसके बाद उन्होंने लगातार विकास किया और समय के साथ जमीन पर चलना, पानी में तैरना, मछली पकड़ना और पौधे खाना सीखने लगे। पियर्स के अनुसार, हमे अध्ययन में पता चला कि जीवन जीने के ये तमाम तरीके मगरमच्छों में बहुत तेजी से विकसित हुए। 
इस अध्ययन में ब्रिस्टल विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मिलकर मगरमच्छों और उनकी विलुप्त प्रजातियों के 200 से अधिक खोपड़ी और जबड़े समेत अन्य अवशेषों का बारीकी से अध्ययन किया। इनमें 23 करोड़ साल पहले तक के अवशेष शामिल थे। शोधकर्ताओं की टीम ने विश्लेषण के दौरान पाया कि कैसे खोपड़ी और जबड़े की आकृति सभी प्रजातियों के बीच भिन्न होती थी और समय के साथ तेजी से मगरमच्छ समूह बदल जाते थे। 
डेली मेल की खबर के मुताबिक, निष्कर्षों में पता चला कि कुछ विलुप्त मगरमच्छ समूह लाखों वर्षों में बहुत तेजी से विकसित हुए। इन प्रजातियों ने अपनी खोपड़ी और जबड़े में बड़े परिवर्तन किए, जो कई बार स्तनपायी जैसे हो गए। शोधकर्ताओं का कहना है कि वर्तमान में मौजूद मगरमच्छ और घड़ियाल पिछले आठ करोड़ साल में लगातार विकसित हुए हैं। आज मगरमच्छ की करीब 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से अधिकांश एक समान ही नजर आती हैं। 
शोधकर्ताओं का कहना है कि विकास में तेजी जीव के रहने के स्थान और खाने की वजह पर बहुत अधिक निर्भर करती है। कुछ ऐसा ही मगरमच्छों के साथ भी हुआ। उन्होंने खुद को जैव विविधता के मुताबिक रहने और खाने के लिए अनुकूल बना लिया और महाविनाश के बावजूद आज भी हमारे पास मौजूद हैं।