यहां की माटी में उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों के रक्त से लिखी हैं इबारतें

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पूर्णकालीन गैरसैंण’ का मुद्दा पीछे न चला जाए !

ब्योमेश जुगरान

गर्मियों की राजधानी बनाने का ऐलान यदि गैरसैंण को स्थायी राजधानी की ओर ले जाने वाला कदम है तो निश्चित ही सरकार के निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए। हरकोई भलीभांति समझता है कि सरकार को स्थायी तौर पर गैरसैंण में बैठाने से पहले वहां आधारभूत सरंचना के लिए अच्छा-खासा वक्त चाहिए। इसके लिए ग्रीष्मकालीन जैसा विचार एक सेतु का काम कर सकता है, बशर्ते यह एक कामचलाऊ प्रबंध हो और सरकार की मंशा साफ हो कि उसे अन्ततः गैरसैंण को ही स्थाई तौर पर राजधानी के रूप में तराशना है।

आन्दोलनकारी ताकतें भी यही मांग करती आई हैं कि सरकार गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित कर दे और एक तयशुदा समय-सीमा के साथ वहां इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार हो जाए। लेकिन ऐसा न कर सरकार ने आदतन एक हवा-हवाई ऐलान कर दिया कि गैरसैंण ग्रीष्मकालीन राजधानी होगी। इस निर्णय के माध्यम से सरकार ने प्रकारांतर से ‘पूर्णकालीन देहरादून’ का ही प्रबंध किया है।

सनद रहे कि सरकार ग्रीष्मकालीन राजधानी के किसी ठोस ब्लूप्रिंट के साथ सामने नहीं आई है। उसके पास अभी तक भराड़ीसैंण में 36 एकड़ भूमि है। यहां करीब सवा सौ करोड़ की लागत से खड़े किए गए विधानभवन, विधायक आवास और आफिसर्स कॉलोनी के दरकते ढाचें हैं जिनके दम पर यह ऐलान हुआ है। करीब 7000 फीट की ऊंचाई पर स्थित भराड़ीसैंण में अब तक हुए नुमाइशी सत्रों के लिए बाकायदा टेंट कॉलोनी खड़ी करनी पड़ी हैं।

जनता इन सत्रों को फिजूलखर्ची और माननीयों की ग्रीष्मकालीन पिकनिक मानती आई है। आगे भी यही होने वाला है। औपनिवेशिक दौर में जिस तरह गर्मियों में शिमला अंग्रेज बहादुर की ‘छोटी बिलायत’ में बदल जाता था, लगभग उसी तर्ज पर हमारे ये ‘काले साबबहादुर’ गर्मियों में दो-चार दिन सैर-सपाटे के लिए गैरसैंण में जुटेंगे, सत्र-स़त्र खेलेंगे और जनता की गाढ़ी कमाई को हजम कर वापस अपने स्थायी ठिकानों में देहरादून लौट जाएंगे। कथित ग्रीष्मकालीन राजधानी की यही फजीहत होनी है। सोचिए, पहले से ही कर्ज में डूबे इस राज्य का सरकारी खजाना क्या हमेशा के लिए दो-दो राजधानियों का खर्च उठाने को तैयार है !

सरकार के निर्णय पर सदन में मेजें थपथपाने वाले जरूर सोचें कि यह राज्य शहादती जनांदोलन से हासिल हुआ है। गैरसैंण को राजधानी बनाने का जनमत कभी का जुटाया जा चुका है और इसके लिए स्वप्नद्रष्टा वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की भावना के अनुरूप 1992 में ही नींव रख दी गई थी। जाहिर है, पहाड़ की जनता का सबसे गहरा और जज्बाती रिश्ता गैरसैंण को स्थायी रूप से राजधानी बनाने की इच्छा से जुड़ा है।

यहां की माटी में उत्तराखंड आंदोलन के शहीदों के रक्त से लिखी इबारतें हैं। गैरसैंण एक विचार है जो कि राज्य के सर्वांगीण विकास के सपने को आकार देता है। यह ऐसी धुरी है जहां से विकास की रोशनी राज्य के हर कोने तक फैलाई जा सकती है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली का समाधिस्थल कोदाबगड़ बेशक उपेक्षित पड़ा हो, लेकिन इसका इस क्षेत्र में होना इसे प्रतीकात्मक रूप से गैरसैंण के विचार को बहुत बड़ा संबल प्रदान करता है। इन सब बातों के मद्देनजर सरकार की नई घोषणा के खास मायने नहीं हैं। सरकार को चाहिए कि वह गैरसैंण को तत्काल स्थायी राजधानी घोषित करे और ग्रीष्मकालीन दर्जे का उपयोग पूर्णकालीन की दिशा में बढ़ने वाले सेतु की तरह करे।

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