होली आते ही सुनाई देने लगती है मुअज्जम भाई के हाथों से बनी ढोलकों की थाप

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अल्मोड़ा। अल्मोड़ा की होलियां मुअज्जम भाई के हाथों से बनी ढ़ोलक के बिना अधूरी सी लगती है। महिलाओं की बैठकी होली हो या पुरुषों की खड़ी होली, थिरकने के लिए बस मुअज्जम भाई के बनाए हुए ढोलकों की थाप ही काफी है। अपने बाप-दादा से विरासत में मिली ढोलक बनाने की कला को मुअज्जम पिछले 40 सालों से बरकरार रखे हुए हैं। उनके बनाए ढोलक 200 से लेकर 1500 रुपये तक बिकते हैं।

होली से ठीक 15-20 दिन पहले वह ढोलक बनाने के साजो सामान के साथ अल्मोड़ा आ जाते हैं और इसके बाद हर सुबह अपने साथियों के साथ तडक़े निकल पड़ते हैं गली मोहल्लों में ढोलक बेचने। मुअज्जम बताते हैं कि उनके बाप-दादा होलियों के दिनों में अल्मोड़ा आकर ढ़ोलक बनाते और दूर दराज गांवों में जाकर बेचते। अपने बड़े-बुजुर्गों के हाथ की कलाकारी देखकर उनका भी ढोलक बनाने का मन हुआ और वह भी जुट गए ढोलक बनाने और बेचने के कारोबार में।

बाप-दादा के बाद उन्होंने इस विरासत को आगे बढ़ाया और आज भी साथियों के साथ गांव-गांव में फेरी लगाकर ढोलक बेचने का काम करते हैं। सुबह और शाम थोड़ा वक्त निकालकर ढोलकें भी बना लेते हैं। उन्होंने बताया कि वह दो तरह की ढोलकें बनाते हैं पेंच वाले और बिना पेंच वाले। पेंच वाले ढ़ोलक की कीमत 1200 से 1500 रुपये तथा बिना पेंच वाले ढोलक की कीमत 200 से 600 रुपये तक है।

मुअज्जम बताते हैं कि वह ढ़ोलक बनाने का खोल, पेंच, पुड़े आदि साजो-सामान अमरोहा और मुरादाबाद से लाते हैं। यहां अल्मोड़ा आकर वह सुबह शाम ढोलक के सामान को एक साथ जोडक़र आकार देते हैं, एक ढोलक बनाने में करीब एक घंटा लगता है। उनके साथी इकराम, करामात भाई, शफीक आदि अपने कंधे में 5 से 6 ढोलकें टांगे निकल पड़ते है गली मोहल्लों में। उन्होंने बताया कि ढोलक के खोल आमतौर पर पॉपुलर, आम, कटहल आदि लकडिय़ों के बनते हैं जो सालों साल तक मजबूत और टिकाऊ बने रहते हैं।

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