समता के बिना स्वतंत्रता निरर्थक:डां अम्बेडकर

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महापुरुषों तक को निश्चित वर्ग, क्षेत्र, भाषा,प्रांत एवं जातियों में बांटने का हुआ कुत्सित प्रयास

कमल किशोर डुकलान

भारत रत्न संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने जीवनपर्यंत सामाजिक एवं शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य किए उनका “समता के बिना स्वतंत्रता निरर्थक” मुख्य उद्देश्य था। उनमें समाज के जुझारू पत्रकार,पराक्रमी नेता,कुशल संगठक,अर्थशास्त्री एवं मजदूर नेता जैसे अनेक गुणों का संगम एक साथ मिलता है।

भारत में महापुरुषों को निश्चित वर्ग,क्षेत्र, भाषा,प्रांत एवं जातियों में बांटने का कुत्सित प्रयास हुआ। हम जानते हैं,कि महापुरुष किसी एक वर्ग के न होकर संपूर्ण समाज एवं मानवता के लिए होते हैं। आज 14 अप्रैल है और आज देश की महान शक्शीयत भारतरत्न संविधान निर्माता डाक्टर भीमराव अम्बेडकर की जयंती है। किसी भी महापुरुष की जन्म जयंती को मनाने के पीछे का उद्देश्य उनके विचारों एवं आदर्शों की प्रासंगिकता पर होना चाहिए। अगर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के जन्म के समय को याद करें तो उस समय हिंदू समाज में अस्पृश्यता (छुआछूत) का वातावरण व्याप्त था। डाक्टर भीमराव अम्बेडकर भी हिंदू समाज की अस्पृश्य जाति महार जाति में जन्मे थे। इस कारण उनको भी इस अस्पृश्यता के संकट की अनुभूति जन्म काल से हो गई थी। प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने तक अस्पृश्यता की अनेक घटनाएं उनके जीवन में आई। उन घटनाओं ने उनको और अधिक संतप्त किया।

अस्पृश्यता के कारण होने वाली इन सब घटनाओं से वह बहुत दुःखी हुए। जिस कारण उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि मुझे अपने इस अस्पृश्य समाज को सम्मान एवं स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार दिलाना ही मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। उनका निष्कर्ष था कि “समता के बिना स्वतंत्रता निरर्थक है”। महाड का सत्याग्रह,नासिक का कालाराम मंदिर आंदोलन,जल एवं मंदिर में प्रवेश का अधिकार आदि आंदोलनों का नेतृत्व उन्होंने स्वयं शांतिपूर्ण तरीके से किया। हिंसक प्रतिक्रिया होने के बाद भी उन्होंने अपने समाज को हिंसक नहीं होने दिया। इस अस्पृश्य समाज की समस्या के निवारण को वे किस दृष्टि से देखते थे वे कहते थे “अस्पृश्य समाज की समस्या प्रचंड हिमालय के समान हैं। इससे टकराकर मैं अपना सिर फोड़ लेने वाला हूं। हो सकता है हिमालय न ढहेपर मेरा रक्तरंजित माथा देखकर 7 करोड़ अस्पृश्य उस हिमालय को भूमिसात करने के लिए तैयार हो जाएंगे। ” सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक एवं राजनीतिक सभी प्रकार से समानता के लिए उन्होंने अपनी योग्यता क्षमता को अस्पृश्य समाज के उद्धार में लगा दिया। आज समाज में जो भी परिवर्तन हुआ है,यह उनके ध्येय समर्पित जीवन का ही परिणाम है।

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के माता-पिता धार्मिक स्वभाव के होने के कारण सम्पूर्ण परिवार का वातावरण ही धार्मिक हो गया। प्रतिदिन रात्रि को सभी का एकत्रित होकर प्रार्थना करना परिवार का अनिवार्य कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम में उनकी बहनें भक्ति स्तोत्र मधुर कंठ से गाती थी l पिताजी कबीरपंथी थे। तीन श्रेष्ठ संत जिनको वे अपना गुरु मानते थे, उनमें संत कबीर दास, संत ज्योतिबा फुले एवं महात्मा बुद्ध इन तीनों ही संतों ने जाति विहीन समाज निर्माण के लिए अनेकों प्रयास किये। अध्ययनशील स्वभाव होने के कारण सभी धार्मिक ग्रंथों का उन्होंने अध्ययन किया। गीता का उदाहरण देकर वह सत्याग्रह की निष्ठा का दावा करते थे। उन्होंने अपने मूकनायक समाचार पत्र का प्रारंभ किया।निस्वार्थ भाव से इतने लंबे समय तक जय,पराजय, यश-अपयश एवं निराशा के वातावरण में वह सक्रिय रह सके,बाल्यकाल से ही परिवार के संस्कारों के कारण उनकी धार्मिक एवं आध्यात्मिक वृत्ति होने के कारण ही संभव हो सका।

भीमराव अम्बेडकर का निष्कर्ष था कि जब तक अस्पृश्य समाज के युवक शिक्षा प्राप्त नहीं करेंगे वह आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं बन सकते एवं समाज में बराबरी का सम्मान नहीं प्राप्त कर सकते। मुंबई में उन्होंने अपने सम्मान के लिए एकत्रित की गई राशि को अस्पृश्य छात्रों की छात्रवृत्ति के लिए खर्च करा दिया। शिक्षा में ही संस्कार का स्थान हो इस विषय के महत्व को प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि ” इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा का महत्व है,लेकिन शिक्षा के साथ ही मनुष्य का शील भी सुधरना चाहिए। शील के बिना शिक्षा का मूल्य शून्य है।” आगे वे कहते हैं “विद्यालय में बच्चों के मन को सुसंस्कारित कर समाज हितोपयोगी बनाना होता है इसके लिए विद्यालय श्रेष्ठ नागरिक बनाने के कारखाने हैं।

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर बाल्यकाल से ही धार्मिक प्रवृत्ति एवं पारिवारिक संस्कारों के कारण उनकी संस्कृत भाषा के प्रति विशेष प्रेम रखते थे,वे कहते थे कि संस्कृत भाषा का अभिमान होने के कारण मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि संस्कृत मुझे अच्छी तरह आनी चाहिए परन्तु वे कहते थे कि वह शुभ दिन कब आयेगा इसके उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। अस्पृश्यता के प्रश्न पर उनका मत था कि अस्पृश्यता संपूर्ण हिंदू समाज का प्रश्न है व उसके लिए उच्च वर्ग तथा अस्पृश्य दोनों को कंधे से कंधा मिलाकर समरस होना चाहिए। महाड सत्याग्रह के समय भाषण देते समय उन्होंने कहा था कि ‘सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह प्रश्न अत्यंत महत्व का है। हिंदुत्व पर जितना अधिकार स्पृश्यों का है उतना ही अस्पृश्यों का भी है। इसी मान्यता को लेकर अछूतों के कार्य में सवर्ण वर्ग के भी अनेक श्रेष्ठ पुरुष उस समय सक्रिय थे | वीर सावरकर,सम्भाजी राव गायकवाड, क्रांतिकारी नेता लोकमान्य तिलक,शाहू जी महाराज एवं गांधीजी सहित अनेक नाम इस श्रेणी में आते हैं। मुंबई के एक कार्यक्रम में लोकमान्य तिलक ने कहा था कि “यदि स्वयं भगवान अस्पृश्यता मानने लगे तो मैं उसे भगवान नहीं मानूंगा ” कोल्हापुर के साहूजी महाराज बाबा साहब से सीमेंट कॉलोनी मुंबई में मिलने के लिए आए तो उन्होंने डाक्टर भीमराव अम्बेडकर को अत्यंत आत्मीय भाव से गले लगा कर कहा कि अब मेरी चिंता दूर हुई। “दलितों को एक नेता मिल गया |” पुणे करार के बाद ठक्कर वापा को एक पत्र में वे लिखते हैं अस्पृश्यता निवारण का मार्ग हिंदू समाज को समर्थ करने के मार्ग से भिन्न नहीं हैं। निसंदेह मैं कह सकता हूं कि अपना कार्य जितना स्वहित का है,उतना ही राष्ट्रहित का भी है। बौद्ध धर्म को स्वीकार करने के पीछे भी उनकी राष्ट्रीय दृष्टि ही थी,इस कारण उन्होंने इस्लाम एवं ईसाइयत के मार्ग को नहीं चुना। इस्लाम के संबंध में उनका कहा था कि इस्लामी भ्रातृत्व विश्वव्यापी भातृत्व नहीं है, वह मुसलमानों का मुसलमानों के लिए ही है। पाकिस्तान निर्माण के समय दलितों को उन्होंने कहा कि “मैं पाकिस्तान में फंसे दलितों से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग से व साधन से हिंदुस्तान आ जाना चाहिए।”उत्तेजक परिस्थिति एवं शारीरिक हमले सहन करने के बाद भी उन्होंने समाज में संघर्ष की भूमिका नहीं ली। उनकी स्पष्ट भूमिका थी कि”हमें वर्ग संघर्ष अथवा वर्ग युद्ध उत्पन्न नहीं होने देना है। संपूर्ण समाज की एकता निर्माण होनी चाहिए। उन्होंने बार-बार अपनी भावना प्रकट करते हुए कहा कि ऐसी एकता निर्माण हो सकी तो बाकी बातें ठीक हो सकती हैं |”

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव भी लड़ा। चुनावों की जय-पराजय,राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वाले दल एवं कार्यकर्ताओं के संबंध में भी उनके विचार अविस्मरणीय हैं। राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वाले सभी कार्यकर्ताओं को उनका अध्ययन एवं मनन करना चाहिए। उससे हमारा लोकतंत्र और अधिक समृद्ध होगा। जिस कार्य से अम्बेडकर की प्रतिभा का पूर्ण उपयोग देश के लिए हुआ एवं बाबा साहब भीमराव भी सार्वदेशिक हो गए वह उनकी संविधान निर्माण में भूमिका है। बाबा साहब संविधान निर्माण की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे | प्रारूप समिति में उनके शेष सहयोगी अन्यान्य कारणों से सहयोग करने की स्थिति में न होने के कारण समस्त कार्य अम्बेडकर को ही करना पड़ा। जिसको उन्होंने पूर्ण कुशलता के साथ निभाया।

इस भीम कार्य के लिए पंडित नेहरू जी एवं सरदार पटेल किसी विदेशी विद्वान सर इवोर जेनिंग को लाना चाहते थे। महात्मा गांधी जी के आग्रह पर यह भीम कार्य भीमराव को देने का निर्णय हुआ। ऑल इंडिया रेडियो से 3 अक्टूबर 1954 को अपने भाषण में डॉ० भीमराव ने कहा कि “वेद निम्नवर्णीय व्यास जी,रामायण महाकाव्य भगवान वाल्मीकि, अब संविधान का दायित्व मुझे मिला है।”

भारतीय परंपरा में भी प्राचीन गणराज्य व्यवस्था एवं उनके संविधान,विश्व भर में लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक व्यवस्थाएं प्रचलित थीं। इन सबका अध्ययन आदि का विचार करते हुए भारत को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ सकने वाला एवं संकट काल में उचित मार्गदर्शन कर सकने वाला संविधान भारत को मिले यह भीमराव अम्बेडकर की संविधान के संबंध में दृष्टि थी। लोकतंत्र का विचार करते समय भीमराव अम्बेडकर सोचते थे कि “लोकतंत्र का केवल राजनीतिक होना पर्याप्त नहीं है वह सामाजिक एवं आर्थिक भी सम्पन्न होना चाहिए। धर्म के संबंध में विचार करते समय उनकी मान्यता थी कि लोकसभा किसी एक विशेष धर्म को लोगों पर लाद नहीं सकेगी, यह एक मात्र मर्यादा संविधान को मान्य है।” धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म का विसर्जन नहीं।

संविधान समिति में डॉ० अंबेडकर कहते थे कि “राजनीतिक जनतंत्र आधारभूत सामाजिक जनतंत्र के बिना टिक नहीं सकेगा। सामाजिक जनतंत्र का अर्थ क्या है यह तो स्वतंत्रता,समता,बंधुता को जीवन मूल्य देने वाली पद्धति है।” उन्होंने भारतीय संविधान में अनेक प्रकार के सुझावों को समावेश करते हुए,देश के समस्त प्रश्नों का समाधान कर सकने वाला संविधान हमको दिया। वंचित वर्ग की समस्याएं,समाज के सभी वर्गों का राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक क्षेत्र में बराबरी,सभी को अपने मत का समान अधिकार आज यह सब जो हमको प्राप्त है। उनके योगदान को स्मरण करते हुए पं० नेहरू ने संसद में कहा कि “संविधान तैयार करने के विषय में डॉ० अंबेडकर से अधिक चिंता व कष्ट अन्य किसी ने सहन नहीं किया।”

संविधान की सफलता उस देश के नागरिकों के व्यवहार पर निर्भर करती है | इसका पालन उन्होंने स्वयं भी अपने जीवन में किया एवं नागरिकों से भी अपेक्षा की। भंडारा के चुनाव के समय दूसरा मत देने से आप चुनाव हार जाएंगे इसलिए हम दूसरा मत नहीं देंगे, उनके अनुयायियों ने निर्णय किया था। तब बाबा साहब ने नाराज होते हुए कहा “मुझे चुनाव में हार स्वीकार है मगर आप लोगों को दूसरा मत खाली छोड़ने की अनुमति नहीं दूंगा। मैंने संविधान तैयार किया है उस संविधान की व्यवस्था में ऐसा गैर जिम्मेदार व्यवहार मैं सहन नहीं कर सकता।”

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने दिये गये अपने साक्षात्कार में कहा कि “संविधान की अपेक्षा संवैधानिक नैतिकता का महत्व अधिक है। संवैधानिक नैतिकता रहने पर संविधान की कमियों से कुछ नहीं बिगड़ेगा। परंतु संवैधानिक नैतिकता न रहने पर संविधान कितना भी अच्छा रहे परिणाम कारक नहीं होगा।”

हमारे देश में आज भी अपनी -अपनी मांगों को मनवाने के लिए अनेक प्रकार के हिंसक आंदोलन होते हैं। पिछले नवम्बर माह से किसान आन्दोलन हिंसा का विचार लेकर अनेक प्रकार के संगठन भी सक्रिय हैं । इस विषय पर अपने विचार रखते हुए बाबा साहब डॉ० भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था कि “हमें अपने सामाजिक व आर्थिक उद्देश्य प्राप्त करने के लिए संविधान से चिपके रहना चाहिए। रक्तरंजित क्रांति के मार्ग को त्यागना होगा। अब जब संवैधानिक मार्ग खुल गया है तब असंवैधानिक मार्ग का समर्थन नहीं किया जा सकता। यह मार्ग दूसरा, तीसरा न होकर अराजकता का मार्ग है इसका जितनी जल्दी हो सके त्यागना ही अपनी दृष्टि से अच्छा रहेगा। “

बाबा साहब ने अपने संपूर्ण जीवन में अनेक प्रकार के कार्य किए।वे अपने समाज के अप्रतिम योद्धा थे।जुझारू पत्रकार,पराक्रमी नेता,कुशल संगठक,अर्थशास्त्री,मजदूर नेता एवं संविधान निर्माता अनेक गुणों का संगम उनमें एक साथ मिलता है। ऐसे महापुरुष का समग्रता से विचार करना आवश्यक है। मेरी उनको विनम्र श्रद्धांजलि।