फाइवस्टार हॉस्पिटल यानी बिना लाइसेंस के मानव कसाईखाने

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अजय अजेय रावत
यूं तो बीते एक दशक के दौरान अस्थाई राजधानी में खुले हाई प्रोफाइल अस्पतालों द्वारा मरीजों की जेब काटे जाने की अनेक शिकायतें पूर्व से आती रहीं हैं, लेकिन गत दिनों गढ़वाल मंडल के उपायुक्त हरक सिंह रावत के मैक्स मल्टीस्पेशियलिटी अस्पताल की ठगी का शिकार होने व उसके बाद उनकी पत्नी द्वारा अस्पताल प्रशासन और और्थो सर्जन के खिलाफ एफआईआर दर्ज किए जाने के बाद यह बहस तेज हो गई है। इस मर्तबा एक वरिष्ठ प्रशासनिक अफसर के साथ इस प्रकार की ठगी होने के बाद इस मसले को इतनी गंभीरता से लिया जा रहा है अन्यथा पूर्व में भी ऐसे फाइवस्टार रुग्णालयों द्वारा कई बार मरीजों व उनके परिजनों से ठगी के मामले सामने आते रहे हैं।

हालिया मामला गढ़वाल मंडल के उपायुक्त व वरिष्ठ पीसीएस अफसर हरक सिंह रावत से जुड़ा हुआ है। दरअसल, श्री रावत के पुत्र की टांग फ्रैक्चर हो गई थी, वह अपने पुत्र को लेकर मैक्स अस्पताल पहुंचे, जहां उनके बच्चे की शल्य क्रिया की गई, लेकिन इसके बाद डाक्टरों द्वारा इन्फैक्शन का भय दिखाकर बच्चे की टांग का एक और आॅपरेशन कर दिया गया। इसके बाद उसके टांग की हालत बिगड़ने लगी। निराश रावत अपने पुत्र को लेकर मुजफ्फरनगर के नामी गिरामी आर्थो सर्जन के पास ले गए, जहां उन्हे बताया गया कि दूसरे आॅपरेशन की तो जरूरत ही नहीं थी। इसके बाद हरक रावत द्वारा अस्पताल प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोल दिया गया।

अब देखना होगा कि इस मसले पर पुलिस प्रशासन किस हद तक कार्रवाई कर पाने में सफल होगा। इतना तय है कि इन अस्पतालों के प्रबंधन के हाथ काफी लंबे हैं, देहरादून ही नहीं दिल्ली तक सरकारी सिस्टम में इनकी गहरी पैठ होती है, बावजूद इसके उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मर्तबा उंट पहाड़ के नीचे आ ही जाएगा। इन अस्पतालों के प्रबंधन की पकड़ का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के अधिकांश तथाकथित बडे़ दैनिक समाचार पत्रों ने इस खबर को प्रमुखता देने से भी गुरेज किया।

वर्ष 2000 से पहले देहरादून, रांची और रायपुर जैसे मझौले शहरों में इस प्रकार के फाइवस्टार अस्पताल नहीं हुआ करते थे, इन तीनों शहरों के नवगठित राज्यों की राजधानी बनने के पश्चात इन शहरों में तकरीबन सभी प्रमुख अस्पताल कंपनियों मसलन मैक्स, अपोलो,कैलाश, एस्काॅर्ट और सिनर्जी आदि के द्वारा इन शहरों में अपने हाई प्रोफाइल फ्रेंचाइचीज खोल दी गईं। हाल ही में देहरादून में एक अस्पताल कारोबारी और वर्तमान में संघीय कैबिनेट में मंत्री के इसी प्रकार के एक अन्य अस्पताल का उद्घाटन भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा किया गया। जाहिर है इस कारोबार में गहरी सियासी पैठ रखने वाले सूरमा भी मोटा माल काट रहे हैं।

दूसरा अहम पहलू यह कि आखिर राजधानी बनने से पहले जिन शहरों में केवल सरकारी अस्पताल और कुछ अच्छे क्लीनिकों के सहारे ही लोगों की सेहत की हिफाजत हो जाती थी, वहां एकाएक ऐसा क्या हुआ कि सेहत के नाम पर मोटा पैसा खर्च करने वाले ग्राहक यानी मरीज पैदा हो गए। दरअसल, राजधानी बनने के बाद नेता, अफसर, दलाल और ठेकेदार नवधनाढ्य बन बैठे। इनके लिए हाई प्रोफाइल फाइवस्टार अस्पतालों में जरूरी और गैरजरूरी इलाज कराना स्टैटस सिंबल बन गया। इस नवधनाढ्य वर्ग की इस बदली हुई प्रवृत्ति को देखते हुए इन अस्पताल कारोबारियों द्वारा इन शहरों में व्यापार की असीम संभावनाएं नजर आईं, नतीजतन सभी नामी गिरामी अस्पतालों द्वारा इन शहरों में अपनी फ्रेंचाइचीज खोल दी गईं। देखा देखी आम मध्यमवर्गीय लोग भी इन अस्पतालों के तिलिस्म में फंसते गए और लुटने लगे।

बीते एक वर्ष में अनेक ऐसे प्रकरण सामने आए जिनमें इन अस्पतालों की करतूतों से साबित हो गया कि यह अस्पताल नहीं बल्कि कसाईखाने हैं। करीब डेढ़ वर्ष पूर्व एक युवा पत्रकार के दुर्घटना में घायल होने के बाद जो मनमानी इस अस्पताल द्वारा की गई, वह अभी तक लोगों के जहन में है।

बहरहाल, हालिया मामले में पीसीएस अफसर रावत द्वारा एक सराहनीय कदम उठाया गया है, उम्मीद की जानी चाहिए कि पूर्व की भांति इस मर्तबा मामले को मैनेज करने के लिए किसी प्रकार का दबाव कारगर नहीं होगा। यह मौका है उन लोगों के लिए जो पूर्व में इन कसाईखानों की ठगी का शिकार हुए हैं, सभी को एकमंच पर आकर एक निर्णायक जंग में भागीदारी निभानी होगी। स्वास्थ्य और चिकित्सा के नाम पर हो रही इस खुली व हाईप्रोफाइल लूट को रोकने के लिए यदि इन अस्पतालों को इस सूबे की सरहदों से बाहर खदेड़ने की मुहिम भी छेड़नी पड़ी तो अब उससे भी पीछे नहीं हटा जाना चाहिए।

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