गंगा और यमुना घाटी के लोगों के बीच जब हुई पुश्तैनी दुश्मनी समाप्त

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  • जब नरु-बिजुला ने अकेले ही दुश्मनों के दांत खट्टे कर भागने को मजबूर किया 

सावित्री सकलानी उनियाल 

इस कहानी की शुरूआत होती है पंद्रहवीं सदी से। उत्तरकाशी के तिलोथ गांव में रहने वाले दो भाई नरु और बिजुला गंगा घाटी में अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। एक बार दोनों भाई बाड़ाहाट के मेले (माघ मेले) में गए। यहां उन्हें एक युवती दिखी, नजरें मिली और बड़े भाई को वह खरसाली की युवती पसंद आ गयी और वह उसे दिल दे बैठे। युवती भी आंखों ही आंखों में इजहार कर वापस लौट गई। भाइयों ने युवती के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि युवती यमुना पार रवांई इलाके के डख्याट गांव की रहने वाली थी। उन दिनों गंगा और यमुना घाटी के लोगों के बीच पुश्तैनी दुश्मनी थी। दोनों पक्षों में रोटी-बेटी का संबंध नहीं होता था।

मगर दोनों भाइयों ने इसकी परवाह किए बिना डख्याट गांव पहुंचकर युवती का अपहरण कर लिया और उसे कुठार (अनाज रखने के लिए लकड़ी का बक्सेनुमा घर) सहित उठाकर ही तिलोथ लेकर आ गए। उस दौर में दुश्मन के इलाके में घुसकर ऐसी घटना को अंजाम देना कोई मामूली बात नहीं थी। न तो सड़कें थीं, न वाहन, इसके बावजूद दोनों भाइयों ने बड़ी चतुराई और बहादुरी से इस कार्य को अंजाम दिया।

इधर जब डख्याट से युवती के अपहरण की खबर फैली तो यमुना घाटी रवांई के कई गांवों के लोग इकट्ठा हो गए। उन्हें गंगा घाटी वालों का यह दुस्साहस कतई नागवार गुजरा। गंगा घाटी वालों ने जंग का ऐलान कर दिया और सैकड़ों लोग हथियार लेकर नरु-बिजुला से बदला लेने निकल पड़े। गंगा घाटी के सैकड़ों लोग रवांई की सीमा पर ज्ञानसू पहुंच गए और उन्होंने सुबह तक यहीं इंतजार करने का फैसला लिया। नदी पार रवांई के लोगों के जमा होने की सूचना मिलते ही नरु-बिजुला ने अपने गांव के लोगों को अन्न-धन समेत गुप्त तरीके से डुण्डा के उदालका गांव की ओर रवाना कर दिया। सुबह दोनों भाइयों ने गंगा नदी पर बने झूलापुल काट डाला। सभी लोगां को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाकर नरू बिजूला गांव से 3 किमी ऊपर सिल्याण गांव पहुंचे जहां उन्होंने विशालकाय पत्थरां से एक चबूतरा बना दिया। ये चबूतरा आज भी इस गांव की थात (सार्वजनिक पूजा, मेले आदि का स्थान) के रूप में है।

अपने गांववालों व प्रेमिका को सुरक्षित कर दोनों भाई दुश्मनों से लड़ने पहुंच गए। बताया जाता है कि इस लड़ाई में नरु-बिजुला ने अकेले ही दुश्मनों के दांत खट्टे कर भागने को मजबूर कर दिया। हालांकि उनमें से कई लोग कीमती सामान (जंजीरें, घण्टा, धातु के बर्तन अदि) लेकर गए। आज भी उनके वंशजों के पास वह सामान निशानी के रूप में है। इस घटना के बाद दोनों पक्षों की पुश्तैनी दुश्मनी भी समाप्त हो गई। नरू-बिजूला ने तिलोथ में अपनी पत्नी के साथ सुखद जीवन जिया। उनके वंशज आज भी तिलोथ व सिल्याण गांव में रहते हैं।

तिलोथ में नरु-बिजुला का छह सौ साल पुराना चार मंजिला भवन आज भी है। कभी आठ हॉल व आठ छोटे कक्ष वाले भवन की हर मंजिल खूबसूरत अटारियां बनी थी। इसकी मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में 1991 में आया भीषण भूकंप भी इसे नुकसान नहीं पहुंचा सका। लेकिन साल दर साल सुरक्षा व संरक्षण के अभाव में भवन जर्जर होता जा रहा है। लकड़ियां सड़ चुकी हैं और दीवारें दरकने लगी हैं।

महलनुमा घर आज बन गया खण्डहर 
तिलोथ में नरु-बिजुला का छह सौ साल पुराना चार मंजिला भवन आज भी है। कभी आठ हॉल व आठ छोटे कक्ष वाले भवन की हर मंजिल खूबसूरत अटारियां बनी थी। इसकी मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में 1991 में आया भीषण भूकंप भी इसे नुकसान नहीं पहुंचा सका। लेकिन साल दर साल सुरक्षा व संरक्षण के अभाव में भवन जर्जर होता जा रहा है। लकड़ियां सड़ चुकी हैं और दीवारें दरकने लगी हैं। 

 

  • नर-बिजुला की प्रेम गाथा

विजय पाल रावत 

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“ज्ञानसू लगी घुंडयूं बांधी रासौ नर-बिजुला” 
“हम त लाणी सिंगोटीयों की बांद नर-बिजुला”

किस्सों और कहानियों के बीच हिमालय की लोकगाथा का इतिहास लिपिबद्ध ना होने के कारण अनेक भ्रामक जानकारियों से भरा पड़ा है। ये लोकगाथायें इतिहास के पारंपरिक श्रोत लोकगीत के माध्यमों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होते आये है। जिसमें समय-समय पर समाज अपनी सहूलियत के हिसाब से रोचकता का तड़का लगाने के लिये इसे मनगढ़ंत तरीके से भी परिवर्तित करता रहा है। इसकी सही ऐतिहासिक विवेचना कर इस सत्य के निकट प्रस्तुत करना नये लिखवारों की जिम्मेदारी है।

ऐसी ही एक प्रेम गाथा बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) के गढ़पति दो भाई नर-बिजुला के सामूहिक प्रेम विवाह के लिये प्रचलित है। जिसमें नारी सम्मान का एक पूरा युद्ध लड़ा गया था।

बात लगभग 14 या 15वीं शताब्दी की है। आज का उत्तरकाशी तब बाड़ाहाट नाम का प्राचीन कस्बा था। इसके पास बसे तिलोथ गांव के थोकदार दो भाई नर-बिजुला थे। जो अपने ग्रीष्मकालीन प्रवास पर अपने मामाकोट (ननिहाल) सुदूर रंवाई के डख्याट गांव में गये थे। उस दौर में आखेट और मेले ही मनोरंजन के मुख्य साधन हुआ करते थे। मामाकोट के रिश्तेदारों की सलाह पर नर-बिजुला को खरसाली गांव में अषाढ़ के महीने में आयोजित होने वाले पशुपालक समाज के अधिष्ठाता सोमेश्वर देवता के मेले में जाने का अवसर मिला। बेहद खूबसूरत प्राकृतिक छटाओं में बसे खरसाली गांव में नर-बिजुला उत्सव एवं उल्लास में खो गये। जहां खरसाली गांव की एक खूबसूरत युवती से उनकी आँखें लड़ गयी। जो उस गांव के “सिंगोटी” जाति के परिवार की थी जो आज तोमर जाति के रूप में वहां विद्यमान है।

दोनों ही भाईयों ने उस युवती के साथ सामूहिक विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे उस लड़की ने भी स्वीकार किया। (तब ऐसे सामूहिक विवाहों का प्रचलन आम बात होती थी) किंतु उस लड़की ने नर-बिजुला को बताया की उसके परिवार वाले उसके विवाह का वचन किसी और को पहले ही दे चुके थे जिस कारण सीधे तरीके से विवाह संभव नहीं था। इसलिए दोनों भाइयों ने उस लड़की को मेले से ही भगा ले जाने का निर्णय लिया।

नर-बिजुला दोनों उस लड़की लेकर भाग निकले। लेकिन अभी वो ज्यादा दूर नहीं निकले थे की गांव वालों को इसकी भनक लगी और उन्होंने उन्हें कुथनौर के पास पकड़ कर बंदी बनाकर वापस खरसाली ले आये। नर-बिजुला को खरसाली गांव में (आज भी मौजूद) एक पांच मंजिला भवन में सबसे ऊपर की मंजिल पर बने कमरे में कैद कर दिया गया। जब आधी रात की गहरी नींद में पूरा गांव सोया हुआ था तब उस लड़की ने पशुओं के लिये चारा-पत्ती के रूप में लाया गया बांझ-बुंराश के पत्तों का ढेर उस पांच मंजिला भवन के निचे इकट्ठा कर दिया। जिस पर सकुशल कूद कर नर-बिजुला उस लड़की को लेकर आधी रात को ही रंवाई की सीमा से निकल कर अपने गांव बाड़ाहाट वापस लौट आये।

अगली सुबह जब रात को घटी घटना का एहसास खरसाली गांव के ग्रामीणों को हुआ तो उन्होंने समस्त रंवाई के आसपास के सगे-संबंधियों के गांवों को बाड़ाहाट पर युद्ध का धाड़ा मारने का आव्हान किया। गीठ पट्टी के 12 गांवों के साथ सहयोगी गांवों की एक फौज बना कर गंगनानी से राड़ी डांडा होते हुऐ नाकुरी के रास्ते वे गंगाघाटी के इलाके में पंहुंचे। जहां गंगा नदी के तट पर थोड़ी देर आराम कर रंवाई की लोगों ने एक विशालकाय पत्थर पर अपने डांगरे एवं धारदार हथियारों को धार दी। जिसके प्रमाण आज भी वहां देखे जा सकते हैं।

यहाँ से ढ़ोल-दमाऊ और रणसिंघों के युद्ध उदघोष में हाथों में डांगरे लहराते हुऐ घुंडयूं बांधी रासौं (मृत्यु तांडव) करते हुऐ रंवाई के योद्धाओं का हुजूम बाड़ाहाट के निकट ज्ञानसू पंहुचा। जहां नर-बिजुला के नेतृत्व में उसकी सेना ने रंवाई से धाड़े (युद्ध,हमला) में आये योद्धाओं के साथ भीषण युद्ध लड़ा। जिसमें युद्ध रंवाई के लोगों के पक्ष में जाता देख नर बिजुला ने अपनी मां और रंवाई से भगा कर लायी पत्नी के साथ बाड़ाहाट में गंगा नदी पार से पुल काट मानपुर होते हुऐ धनारी की तरफ निकल गये।

अषाढ़ माह की ऊफनती गंगा नदी को पूरी सेना सहित पार करना रंवाई वालों के लिये संभव ना था। इसलिए नर-बिजुला के अपमान तथा अपनी युद्ध विजयी की निशानी स्वरूप उनके घर की पटाल उठाकर और उसके कोठार(अन्न भंडार) पर बंधी टनों वजन वाली शंगल तथा नर बिजुला के घर में रखे तांबे के दो बड़े बर्तन उठा कर वापस खरसाली गांव ले गये। जिसे देखने के लिये आज भी देश विदेश के पर्यटकों का जमावड़ा खरसाली गांव में लगा रहता है। उस जमाने में किसी के घर की पटाल उठाकर लाना गृह स्वामी का सबसे बड़ा अपमान होता था।

ये युद्ध रंवाई के लोगों ने अपनी बेटी को भगा ले जाने के विरूद्ध नारी सम्मान के लिये लड़ा तो नर बिजुला ने भी पत्नी के रूप स्वीकार की गयी उस नारी को किसी भी रूप में वापस ना लौटाने के लिये अंतिम छण तक नारी सम्मान के लिये ही लड़ा। इसमें कौन जीता कौन हारा ये विवेचना का विषय है। जिसे लोक गाथाओं में हम सुनते आये हैं। आज भी नर -बिजुला का यह पौराणिक घर और इससे लगभग 100 किलोमीटर दूर खरसाली गांव में इस घर से लायी गयी निशानीयों को उन दोनों अधिपति की पौराणिक प्रेमगाथा और रंवांल्टाओं के साथ हुऐ युद्ध की शौर्यगाथा से संजोये हुऐ है।

(नोट : नरु -विजोला के शौर्य और पराक्रम  की इस तरह की कई और कहानियां हो सकती हैं हमारा उद्देश्य इस तरह की कहानियों को सामने लाकर पाठकों को  पढ़ने और विचार करने के लिए देने का है। पाठकों से निवेदन है कि वे कहानियों पर अवश्य टिपण्णी करें और भी कहानिया यदि पहाड़ के वीरो और वीरांगनाओं की हों तो हमें ईमेल करें। क्योंकि इस तरह की कहानिया हमारे पहाड़ के शौर्य और वीरता को उजागर करती है.ईमेल – devbhumi.media@gmail.com  )