गैरसैंण राजधानी ही पर्वतीय राज्य के विकास का एक मात्र विकल्प

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गैरसैंण को स्थायी राजधानी के रूप में देखना होगा तभी विकास संभव 

व्योमेश जुगरान 

गैरसैंण है उत्तराखंड का दिल 

गैरसैंण उत्तराखंड का दिल है और मानव शरीर में दिल से ही रक्तवाहिनियाँ रक्त का प्रवाह बनाते हुए शरीर को जीवंत बनाती है ठीक इसी तरह जब तक गैरसैंण स्थायी राजधानी नहीं बन जाती पर्वतीय प्रदेश की न तो परिकल्पना ही पूरी हो सकती है और न प्रदेश के आखिरी गांव तक ही विकास की किरण ही पहुँच सकती है।
क्योंकि देहरादून सचिवालय या विधानसभा के वातानुकूलित कमरों में बैठकर आराकोट से अस्कोट के बारे में नहीं सोचा जा सकता है इसके लिए उसी वातावरण में रहकर योजनाएं बनानी होंगी वहां की भौगोलिक परिस्थितियों को समझना होगा वहां के जल,जमीन और जंगलों से जुड़ना होगा।
                                                  राजेन्द्र जोशी 
गैरसैंण ने उत्तराखंड के नक्शे पर नए सिरे से दस्तक दी है। सीमान्त जिला चमोली की यह तहसील अब उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी होगी। राज्यपाल बेबीरानी मौर्य ने 8 जून को इस आशय के विधेयक पर मुहर लगा दी। इसी साल 4 मार्च को गैरसैंण में राज्य विधानसभा के विशेष ग्रीष्मकालीन सत्र के दौरान इस विधेयक को पारित किया गया था। तब मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने स्वीकार किया था कि प्रदेश की जनभावना से जुड़ा कोई अन्य मसला इससे बड़ा नहीं है। यह सवा करोड़ उत्तराखंडियों की भावना का सम्मान है और गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर उन्होंने इसे राज्य आंदोलनकारियों और प्रदेश की माताओं व बहनों को समर्पित किया है।
गौरतलब है कि उत्तराखंड के साथ झारखंड और छत्तीसगढ़ भी बने थे। उनके प्रारूप में स्पष्ट था कि रांची और रायपुर उनकी राजधानियां होंगी लेकिन उत्तराखंड के मामले में यह फैसला यहां सत्ता ग्रहण करने वाली पहली सरकार पर छोड़ दिया गया। हालांकि उत्तराखंड का जनमानस स्वप्नद्रष्टा वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली की भावना के अनुरूप आठ साल पहले ही गैरसैंण को अपनी राजधानी स्वीकार कर चुका था। उत्तराखंड राज्य का गठन 8-9 नवम्बर 2000 को हुआ और गैरसैंण में राजधानी की नींव का पत्थर 24 अप्रैल 1992 को ही स्थापित कर दिया गया था। 1994 में यूपी की मुलायम सिंह सरकार द्वारा उत्तराखंड के लिए गठित कौशिक समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में गैरसैंण को ही प्रस्तावित राजधानी माना। लेकिन जब राज्य बना तो अंतरिम सरकार खुद देहरादून में बैठी और स्थायी राजधानी के लिए उसने आयोग बैठा दिया। बाद के सालों में मसला इस कदर उलझा कि राजधानी गैरसैंण का सपना पूरी तरह सरकारी कृपा पर आश्रित होता चला गया। जनदबाव को कभी बल तो कभी छल के जरिये साधकर जनाकांक्षा की लगातार उपेक्षा होती रही।
आज करीब 19 साल बाद सरकार जागी जरूर है मगर गैरसैंण के भाग जगेंगे या नहीं, लोगों में यह विश्वास नहीं जग रहा। त्रिवेन्द्र सरकार के इस निर्णय को गैरसैंण के कट्टर समर्थक प्रकारांतर से देहरादून को ही पूर्णकालीन राजधानी बनाने के इंतजाम के रूप में देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि यह राजधानी चयन के लिए 2001 में गठित उसी दीक्षित आयोग का नया संस्करण है जो आठ साल तक बैठे-ठाले मौज करता रहा और अदालती हस्तक्षेप के बाद जब रिपोर्ट देने की बारी आई तो आनन-फानन में गैरसैंण को नकार कर चलता बना। पूर्व विधायक और उत्तराखंड क्रांति दल के युवा नेता पुष्पेन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि सरकार को चाहिए कि वह गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन नहीं बल्कि स्थायी राजधानी घोषित करे और एक तयशुदा समय-सीमा के भीतर वहां इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाए। इससे लोगों में भरोसा बढ़ेगा और उनकी ऊर्जा उत्तराखंड के विकास में लग सकेगी।
सनद रहे कि सरकार ग्रीष्मकालीन राजधानी के किसी ठोस ब्लूप्रिंट के साथ सामने नहीं आई है। उसके पास अभी तक भराड़ीसैंण में 36 एकड़ भूमि है। यहां करीब सवा सौ करोड़ की लागत से खड़े किए गए विधानभवन, विधायक आवास और ऑफिसर्स कॉलोनी के दरकते ढाचें हैं जिनके दम पर यह ऐलान हुआ है। करीब 7000 फीट की ऊंचाई पर ‌स्थित भराड़ीसैंण में अब तक हुए नुमाइशी विधानसभा सत्रों के लिए हमेशा टेंट कॉलोनी खड़ी करनी पड़ी हैं। वहां मौजूद इंफ्रास्ट्रक्चर इस लायक नहीं है कि आवासीय सुविधा के लिहाज से उसका उपयोग किया जा सके। जनता इन सत्रों को फिजूलखर्ची और माननीयों की ग्रीष्मकालीन पिकनिक मानती आई है। सवाल है कि ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम पर क्या गैरसैंण बतर्ज शिमला, अंग्रेज बहादुर की ‘छोटी बिलायत’ सिद्ध होने वाला है! क्या गर्मियों में दो-चार दिन सैर-सपाटे होंगे और फिर सारा अमला देहरादून के अपने स्थायी ठिकानों लौट जाया करेगा! एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि पहले से ही कर्ज में डूबे इस राज्य का सरकारी खजाना क्या हमेशा के लिए दो-दो राजधानियों का खर्च उठा सकेगा?
इन प्रमुख सवालों के बावजूद यदि ग्रीष्मकालीन राजधानी का ऐलान गैरसैंण को स्थायी राजधानी की ओर ले जाने वाला कदम है तो सरकार के निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए। हर कोई भलीभांति समझता है कि सरकार को स्थायी तौर पर गैरसैंण में बैठाने से पहले वहां आधारभूत सरंचना के लिए अच्छा-खासा वक्त चाहिए। इसके लिए ग्रीष्मकालीन जैसा विचार एक सेतु का काम कर सकता है, बशर्ते यह एक कामचलाऊ प्रबंध हो और सरकार की मंशा साफ हो कि उसे अन्ततः गैरसैंण को ही स्थायी तौर पर राजधानी के रूप में तराशना है। फिलहाल तो मुख्यमंत्री इस सवाल का कोई सीधा जवाब देने को तैयार नहीं है कि गैरसैंण में कितने दिन कामकाज होगा और सारी व्यवस्थाएं किस प्रकार चलेंगी। उनका कहना है कि इसका एक प्लान बनाया जाएगा। हमारी सरकार ग्रीष्मकालीन राजधानी को हाईटेक सिटी बनाना चाहती है। वहां की विधानसभा और सचिवालय पूरी तरह ई-सिस्टम से ओतप्रोत होंगे। हम इस सिस्टम को ब्लॉक स्तर तक ले जाएंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि दूरस्थ इलाकों के समेकित विकास में अत्या‌धुनिक संसाधनों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। आंध्रप्रदेश जैसे राज्य में तो इसे कामयाबी का नया मंत्र मानकर तीन-तीन राजधानियों का फार्मूला ईजाद किया गया है। मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी ने राजधानी के विकेंद्रीकरण का विधेयक पारित कर अमरावती के साथ-साथ विशाखापट्टनम और कुर्नूल को राजधानी का दर्जा दे दिया। विधानसभा सत्र अमरावती में होगा, सरकार विशाखापट्टनम में बैठा करेगी और कुर्नूल में हाईकोर्ट होगा। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के विकेंद्रीकरण के इस फार्मूले को राज्य के समग्र विकास की अवधारणा से जोड़कर देखा जा रहा है। हालांकि परिणामों नतीजों के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी। उत्तराखंड में भी यदि सरकार क्षेत्रीय आकांक्षाओं के प्रति योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ना चाहती है तो इसे बेहतर संकेत मान सकते हैं। चारधाम राजमार्ग और कर्णप्रयाग रेल जैसी निर्माणाधीन महत्वाकांक्षी परियोजनाओं ने गैरसैंण की भौगोलिक अहमियत बढ़ा दी है और इससे यह विश्वास पक्का हुआ है कि एक समृद्ध विकास का रास्ता गैरसैंण से निकल सकता है। ऐसा नहीं है कि गैरसैंण को राजधानी बनाने से सबकुछ दुरुस्त हो जाएगा मगर असमान विकास की परिस्थितियों के चलते लोगों के मन में यह बात बैठ चुकी है कि नीति निर्माण में ग्रामीण उत्तराखंड की हिस्सेदारी देहरादून में नहीं, बल्कि गैरसैंण में बैठकर ही सुनिश्‍चित की जा सकती है। ऐसे में सरकार को जनभावना और नीतिनिर्माण के आधार पर यह भरोसा जगाना होगा कि वह गैरसैंण के विचार को संपूर्ण रूप से अमली जामा पहनाने का मन बना चुकी है और ग्रीष्मकालीन गैरसैंण इसकी शुरुआत भर है।