माना अंधेरा घना है, लेकिन दिया जलाना कहां मना है!

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अनिल बलूनी के  पलायन रोकने के प्रयास से जगी लोगों में नई आस
विपिन कैंथोला 
देहरादून : उत्तराखंड में पलायन एक विकराल समस्या का रूप लेती जा रही है, प्रदेश के अंदर कई जिलों में तो बड़ी तेजी से पलायन ने बड़े बड़े गांवों को अपनी जद में ले लिया हैं, ऐसा नही की उत्तराखंड में पलायन राज्य के अस्त्तित्व में आने के बाद से प्रारंभ हुआ  हो पलायन तब भी राज्य के गांवों से जारी था तब परिवार के पुरूष सदस्य केवल धन उपार्जन के लिए बड़े शहरों में जाते थे, लेकिन परिवार गांव में ही रहता था।
     
9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य उत्तरप्रदेश से अलग राज्य बना तब से राज्य के गांव से पलायन होने की गति तेज हो गई , सन 2000 से और अब तक अगर पूरी तरह निर्जन हो चुके गांव की संख्या देखी जाय तो पहाड़ की स्थिति भयावह लगती है, अभी तक अगर लगभग निर्जन हो चुके गांव की संख्या लगभग 1700 से 1800 के बीच पहुंच गई है,   जहां पर शायद ही  कोई मानव आता हो इसे देखकर यह नही लगता कि यह लगाम यहीं पर रुक जायगी क्योंकि कई गांव ऐसे हैं जिनमे महज गिनती के परिवार व उंगलियों में गिनती गिनने लायक  लोग निवास कर रहे हैं, यह कहा जाए कि इन गांवों में अधिकतर ऐसे परिवार रह गए है जिन्हें अपनी विरासत व मिट्टी से प्यार है या अपनी पारिवारिक परिस्थिति से गाँव छोड़ नहीं सकते।
आज गांव से लोग इस लिए पलायन करने को मजबूर है कि गांव में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है या इस लिए भी मजबूर है कि उनके बगल के अधिकांश मकान खण्डहर में तब्दील हो गए है और जो गांव छोड़कर चले गये उनके खेत बंजर हो गए व खेतों में झाड़ियां उग गयी है जिस कारण गांव में अक्सर जंगली जानवरों का खतरा रहता है व बंजर हो चुके खेंतो में उगी झाड़ियों के कारण गांव में रह रहे  परिवारों की खेती को जंगली सुअर व बन्दर नष्ट कर देते है, इस कारण भी गांव निर्जन होते जा रहे हैं,  आज हर माता पिता की प्राथमिकता होती है कि उसके बच्चे अच्छा पढे व उसके परिवार को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो सके व उनके परिवार के भरण पोषण को रोजगार उपलब्ध हो जो शहरों में उपलब्ध हैं, जिस की चाह में परिवार के परिवार गांव से शहर की ओर पलायन कर गये।
राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से आज भी पहाड़ो में कई ऐसे गांव है जहाँ कई मील पैदल चलना होता है , इस परिस्थिति के बीच राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी जी द्वारा पोड़ी जिले के दुग्गड्डा ब्लॉक के “बोरगांव” को गोद लेकर एक नई बहस को जन्म दे दिया है ये गांव भी निर्जन है , बलूनी के इस कदम से इस गांव के लोगों को ही नही अपितु राज्य के लोगों को उम्मीद की नई आश जगी है, वह है रिवर्स मार्गरेशन (गांव की और लौटे) कई गांव से पलायन कर चुके कुछ युवा गांव की ओर लौटे है लेकिन यह आंकड़ा मामूली सा है, बलूनी का यह कार्य सराहनीय है उतना ही कठिन भी ।
बलूनी के जज्बे को देखकर एक लेखक की कुछ पंक्तिया याद आती हैं कि””” माना अंधेरा घना है,लेकिन दिया जलाना कहाँ मना है,””” राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी जी ने जैसे ही गाँव को गोद लिया कई केंद्रीय मंत्रियों ने उन्हें गाँव को आबाद करने का सहयोग का पूरा आश्वासन दे दिया, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद जी, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह जी , व केंद्रीय मंत्री राम कृपाल यादव जी ने ऐसे गाँवों को बसाने के लिए अपने विभागीय स्तर से कार्य करने का आश्वासन दिया, एक  ऐसी ही पहल को राज्य को दरकार थी, केंद्र की सक्रियता से ऐसे गांवों के लोगों को भी उम्मीद जगी है जहाँ महज 5, 10, परिवार व 50 से 100 लोगों की जनसंख्या निवास करती हैं, ऐसे गाँवों का आंकड़ा बहुत अधिक संख्या में है ।
ऐसा नही की राज्य सरकार इस और सोच नही रही हो यह राज्य की पहली सरकार है जिसने राज्य के पलायन को देखते हुए राज्य के अंदर पलायन की क्या स्थिति है उसके लिए पलायन आयोग का भी गठन किया , पलायन कैसे रुके यह राज्य सरकार की प्राथमिकता में भी है , इस माकूल समय मे राज्य सरकार को केंद्र के सहयोग से तेजी से पलायन पर कार्य करना चाहिए व केंद्र के साथ मिलकर पहाड़ो में मूलभूत सुविधाएं अच्छी शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं, गांव के नजदीक रोजगार के साधन,  की व्यवस्था हो ताकि गांव से परिवारों का पलायन रुक सके व जी लोग इन कारणों से गांव छोड़ रहे है वो गांव न छोड़े , व बाहर बस चुके परिवारों से सपंर्क के संवाद करके उन्हें भी यह विश्वास दिलाना होगा कि उनका भविष्य गांव में सुरक्षित है , इस सारी मुहिम में जनप्रतिनिधियों से लेकर सरकार, अधिकारी, व स्थानीय लोगो के प्रयास व सहयोग व संवाद से खाली ही चुके गांव फिर से आबाद हो और जो गांव खाली होने की कगार पर है उन्हें खाली होने से रोका जा सके , तभी अलग उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना साकार हो पाएगी ।