इस ‘रंगीन’ बजट के पीछे है एक ‘भयावह’ सच

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फिलवक्त जो ‘रंगीनी’ और ‘मौज’ नजर आ रही है, वह सब उधार की है 

योगेश भट्ट
कर्मचारियों को तन्ख्वाहें समय पर मिल रही हैं, अफसरों और मंत्रियों की गाड़ियां फर्राटे भर रही है, हैलीकाप्टर उड़ रहे हैं । सितारा होटलों में सरकारी जलसे भी हो रहें और विदेश यात्राएं भी हो रही है । अवार्ड भी मिल रहे हैं और खूब फूल मालाएं भी पड़ रही हैं, अखबार और टीवी चैनलों में सरकार की प्रशस्ति के विज्ञापन भी चल रहे हैं ।

यह सब देखकर हर किसी को लगता होगा कि उत्तराखंड बड़ा समृद्ध राज्य है, प्रगति पथ पर है । मगर सावधान, बहुत लंबे समय तक यह सब नहीं चल पाएगा। उत्तराखंड की यह ‘रंगत’ नजरों का धोखा है । फिलवक्त जो ‘रंगीनी’ और ‘मौज’ नजर आ रही है, वह सब उधार की है, राज्य के भविष्य की कीमत पर है । इसके पीछे एक भयावह सच छिपा है, सरकारें जिस पर पर्दा डाले हुई हैं । यह वाकई सच है कि कर्ज लेकर पिया गया घी अब राज्य के लिए मुसीबत बनता जा रहा है । यह भी सही है कि राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ जा रहा है, राज्य की आमदनी ‘चवन्नी’ और खर्चा ‘अठन्नी’ से भी ज्यादा है ।

मगर जिस ‘भयावाह’ सच की बात यहां की जा रही है वह यह है कि राज्य की बजट व्यवस्था में बड़ा झोल है । सरकार हर साल जो बजट पास कराती है, वह तो सिर्फ एक ‘ढोंग’ है । लाखों रुपया खर्च कर बजट बनाना और उसे विधानसभा से पास कराना महज एक ‘रस्म’ बनकर रह गया है । राज्य में बजट मैनुअल की धज्जियां उड़ाते हुए हर साल बजट से बाहर जाकर सैकड़ों करोड़ खर्च कर दिया जाता है और इसकी कानों कान किसी को खबर नहीं लगने दी जाती ।

चलिए सीधे मुद्दे पर आते हैं, नियम कहता है कि राज्य में विधानसभा से जो बजट पास होता है, उसके अलावा सरकारी खजाने से एक भी रुपया खर्च नहीं किया जा सकता । मगर उत्तराखंड में इस नियम को हाशिये पर धकेलते हुए अभी तक बीस हजार करोड़ से अधिक रकम विधानसभा की अनुमति के बिना खर्च की जा चुकी है । बजट से इतर जाकर खर्च करने का यह सिलसिला आश्चर्यजनक रूप से साल 2005 से लगातार चलता चला आ रहा है। साल 2005-06 के बजट में विधानसभा की मंजूरी के बिना 663 करोड़ 50 लाख अधिक खर्च किये जाने से शुरू हुआ सिलसिला 2015-16 में 2334 करोड़ 24 लाख और 2016-17 में 5457 करोड़ 33 लाख तक पहुंच चुका है ।

नियंत्रक एवं महा लेखापरीक्षक कैग अगर राज्य में बजट व्यवस्था की समीक्षा नहीं करता तो इसका शायद अभी खुलासा भी नहीं होता । मोटेतौर पर यह पूरी कारस्तानी राज्य के बाबूओं की नजर आती है । जिस तरह साल दर साल बजट से इतर खर्च करने की रकम बढ़ती जा रही है उससे लगता है कि राज्य के बड़े बाबू इस खेल में दक्ष हो चुके हैं । कैग के मुताबिक राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के कार्यकाल से लेकर मौजूदा सरकार के कार्यकाल तक बीस हजार सात सौ अस्सी करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं । बजट से अधिक खर्च की गयी इस रकम को विधानसभा से नियमित नहीं कराया गया ।

बजट मैनुअल के मुताबिक यदि किसी स्थिति बजट से अधिक व्यय हो भी जाता है तो उसे विधानसभा के समक्ष रखा जाता है और लोक लेखा समिति तय करती है कि बजट से अधिक खर्च के मामले में क्या किया जाए ? लोक लेखा समिति की संस्तुति के आधार पर बजट से अधिक किया गया व्यय नियमित होता है । हैरानी की बात यह है कि सरकारों ने कभी इस ब्यौरे को विधानसभा के समक्ष रखा ही नहीं । बजट जैसे गंभीर व संवैधानिक मामले में सरकार का यह रवैया स्पष्ट तौर पर सरकारी खजाने पर विधायी नियंत्रण को चुनौती है ।

कैग ने अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख भी किया है कि यह कार्य विधायी मंशा के विपरीत है । साथ ही यह भी कहा है कि बजट से अधिक व्यय के सभी प्रकरणों को नियमित करते हुए नियंत्रण अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही की जाए । पता नहीं सरकार इसको लेकर कितनी गंभीर है, मगर इस मसले पर सरकार फिलहाल तो एक्शन में नहीं है । ऐसे में सरकार और सरकार के बड़े बाबूओं की मंशा पर सवाल खड़ा होता है ।

मुख्यमंत्री ने रिपोर्ट पर तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए इतना तो कहा कि अनियमितताओं के लिए दोषी को बख्शा नहीं जाएगा चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो ।तकरीबन तीन महीने बीत चुके हैं कैग की इस रिपोर्ट को पटल पर आए मगर अभी तक इसके लिए किसी जिम्मेदार या जवाबदेह का नाम तक सामने नहीं आया । काश सरकार इसे गंभीरता से लेती, अगर यह चूक है तो सबक लेती और अगर लापरवाही या जानबूझकर किया गया कारनामा है तो जवाबदेही तय करती और जिम्मेदारों पर एक्शन लेती । मगर तमाम दूसरी रिपोर्टों की तरह इसे भी हवा में उड़ा दिया गया लगता है । संभवत: सरकार लाचार है, बहुत संभव है कि जो “मौज” इस प्रदेश के राजनेता और अफसर ले रहे हैं वह बजट से इतर इसी रकम की देन हो । बहरहाल जब राज्य की बजट व्यवस्था पर सवाल है तो बजट में दिखाये जाने वाले हर सपने और हर योजना पर सवाल उठ खड़ा होता है । बजट में जिस वित्तीय प्रबंधन का दावा किया जाता है वह भी खोखला महसूस होता है ।

अफसोस यह है कि सरकार चेताने के बाद भी चेतती नजर आ रही है । कैग की रिपोर्ट आईने में दिखा चुकी है कि अंदरूनी हालात बेहद नाजुक हैं, रंगीन नजर आने वाली तमाम योजनाएं और आंकड़े ‘हवा हवाई’ हैं । अभी तक तो हम तनख्वाह और योजनाओं के लिए कर्ज लेते थे, लेकिन हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि कर्ज की रकम और उसका ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज उठाना पड़ रहा है । कैग ने तो यहां तक खुलासा किया है कि साल 2013 से 2017 के बीच राज्य ने जो कर्ज उठाया, उसका तकरीबन 75 फीसदी कर्ज के भुगतान और ब्याज में खर्च किया जा रहा है । राज्य की आकस्मिता निधि से जो रकम ली जा रही उसकी प्रतिपूर्ति तक नहीं कर पा रहे हैं हम । अब सरकार के दावों की हीककत का अंदाजा लगाइये, राज्य में क्या विकास हो रहा होगा ? क्या योजनाएं चल रही होंगी ? दूसरी ओर राज्य में राजकोषीय घाटा ‘सुरसा के मुंह’ की तरह बढ़ता जा रहा है, मतलब आमदनी के मुकाबले खर्च लगातार बढ़ रहा है । राजकोषीय घाटा सालाना आठ हजार करोड़ तक पहुंच चुका है, दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसकी भरपाई के लिए सरकार केंद्र से उम्मीद लगाये बैठी है ।

यह संकेत राज्य के भविष्य के लिए कतई अच्छे नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि इसकी परवाह है किसे ? सरकार न व्यवस्था पर नियंत्रण करती है और न राज्य के संसाधनों को मजबूत करती है । विडंबना देखिए एक ओर सरकार भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस के दावे करती है दूसरी ओर बड़े बाबू लोग बेखौफ मनमाने तरीके से बजट ठिकाने लगाते हैं । सिस्टम में अराजकता और लापरवाही का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राज्य के कई जिलों में छह छह साल से राज्य में मुर्दों को सरकारी खजाने से पेंशन दी जा रही है, कहीं कोई पूछने वाला नहीं । हजारों मिट्रिक टन गेंहूं और चावल की अनावश्यक खरीद कर पर डेढ़ डेढ़ सौ करोड़ रुपए लुटा दिए जाते हैं, किसी को कोई परवाह नहीं । विभाग के खातों में रकम उपलब्ध होती है फिर भी अफसर आरबीआई से 500 करोड़ के कर्ज की लिमिट बना लेते हैं, तकरीबन 19 करोड़ रुपया अनावश्यक राज्य को ब्याज के रूप चुकाना पड़ता है मगर अफसरों पर नकेल कसने वाला कोई नहीं । एक ही आधार कार्ड से सैकड़ों सैकड़ों राशन कार्ड लिंक कर अपात्र लाभार्थियों को योजनाओं को लाभ दिया जाता है और पात्र योजना से बाहर कर दिये जाते हैं, लेकिन कोई सवाल उठाने वाला नहीं । अस्पतालों से डाक्टर करार भंग कर डयूटी से गायब हो जाते हैं, न उनसे चवसूली होती है न कोई खबर लेता है । यही नहीं ऐसे तमाम मसले हैं जो सरकार को नजर नहीं आते । सरकार तो तब कोई एक्शन नहीं लेती जब कि एक्शन में किसी असरदार की किसी की व्यक्तिगत दिलचस्पी नहीं हो जाती ।

राज्य में अराजकता का अंदाजा कैग रिपोर्ट के उस तथ्य से भी लगाया जा सकता है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि अकेले वित्तीय वर्ष 2017-2018 में ही प्रदेश के तमाम विभागों ने व्यापक अनियमितताएं की जिससे राज्य को 2271 करोड़ के राजस्व का नुकसान हुआ । यह आंकड़ा तो सिर्फ समाज कल्याण, वन विभाग और खाद्य आपूर्ति आदि कुछ एक विभागों की लेखा परीक्षा से निकला हुआ है । इसमें अकेले वन विभाग में ही हजार करोड़ से ऊपर की अनियमितताएं हैं, बाकी तमाम विभागों की मिलाकर क्या स्थिति होगी यह सोच कर ही डर लगता है । रिपोर्ट कहती है कि नियम ,कायदे कानून का पालन किया जाता तो यह नुकसान कम किया जा सकता था । दुर्भाग्य देखिए कि यह स्थिति तब है जब हर कोई जान रहा है कि राज्य कर्ज की बैसाखी पर टिका है । किसी भी राज्य की व्यवस्था में कर्ज का बढ़ना चिंताजनक तो है, लेकिन मंशा सही तो इससे निपटना बड़ी चुनौती नहीं है । यह ठीक उस बीमारी की तरह है जो लंबे समय तक परेशान तो रखती है परंतु इसमें जीवन को खतरा नहीं होता । मौजूदा स्थिति में चिंताजनक है बजट की व्यवस्था पर सवाल उठना और कर्ज की रकम का सही इस्तेमाल न होना।

आखिर कब तक झूठ और फरेब के भरोसे रहेगा उत्तराखंड ? कब तक हकीकत से हम मुंह छिपाएंगे ? कभी तो जवाबदेही तय करनी ही होगी, कभी तो परिस्थितयों को बदलने की शुरूआत करनी ही होगी । यह सही है कि शासन की व्यवस्थाएं रुकती नहीं हैं, मगर यह भी सच है कि जो हालात हैं उनमें किसी भी दिन बड़ा झटका लग सकता है । अभी भी नहीं संभले, कुछ कड़े निर्णय नहीं लिये तो किसी भी दिन व्यवस्था पटरी से उतर जाएगी । जिम्मेदार सिर्फ वो सरकार ही नहीं होगी जो बजट पेश कर उसे पास कराकर इतिश्री कर लेती है । दोषी विपक्ष भी होगा मुद्दों से परहेज करता है, बजट जैसे अहम सत्र को भी हंगामे की भेंट चढ़ाकर बजट में खेल करने वालों की राह आसान करता है । उत्तराखंड का तो यही दुर्भाग्य है, यहां के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि बजट पर विभागवार विस्तृत चर्चा हुई हो, अच्छे सुझाव आए हों । बहरहाल विधान सभा में सरकार इस बार भी बजट पेश करेगी, विपक्ष हल्ला करेगा । देखते है कोई चर्चा होती है या नहीं, कैग ने जो चिंता व्यक्त की है उसका समाधान होता है या नहीं । बजट की जिस व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा है, वह हटता है या नहीं ?