शराब के बिना सरकार का भी गुजारा नहीं !

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योगेश भट्ट 

शराब भले ही खराब हो लेकिन सरकार के लिए तो शराब किसी “प्राणवायु” से कम नहीं।  शराब बची रहे इसके लिए सरकार सड़कों की बलि देने तक को तैयार है। प्रसिद्ध व्यंगकार श्रीलाल शुक्ल का एक बहुत प्रसिद्ध व्यंग्य है कि, ‘हम महात्मा गांधी के बताये मार्ग पर नहीं चल सकते थे, इसलिए हम जिस रास्ते पर चले उसका नाम हमने महात्मा गांधी मार्ग रख लिया।’ बिल्कुल इसी तर्ज पर उत्तराखंड सरकार ने प्रदेश के निकायों से गुजरने वाले राज्य राजमार्गों (स्टेट हाई-वे) का स्टेटस बदल कर उन्हें जिला मार्ग ( डिस्ट्रिक रोड) में तब्दील कर दिया है। इसके पीछे सरकार का मकसद केवल और केवल सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश से बचना था, जिसके तहत एक अप्रैल से राष्ट्रीय तथा राज्य राजमार्गों पर स्थित शराब की दुकानों को हटा कर पांच सौ मीटर दूर शिफ्ट किए जाने की बाध्यता थी।

सरकार यदि चाहती तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को योजनाबद्ध तरीके से सूझ-बूझ के साथ अमली जामा पहना सकती थी। ऐसा करके पूर्ण शराबबंदी भले ही न हो पाती, मगर शराब के बढते प्रचलन को हतोत्साहित तो किया ही जा सकता था। लेकिन सरकार ने ऐसा करने के बजाय शराब की दुकानों को बचाने को प्राथमिकता दी और इसके लिए देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश का एक तरह से मजाक बना दिया। सरकार का यह कदम सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मूल भावना के साथ न केवल खिलवाड़ है बल्कि सीधे-सीधे अदालत की अवमानना है।

अवमानना इसलिए क्योंकि अदालत के आदेश की मूल भावना यह थी कि शराब की दुकानें इस वक्त जहां पर स्थित हैं, वहां से हटा दी जानी चाहिए। लेकिन स्टेट हाई-वे को डिस्ट्रिक रोड में बदल दिए जाने के बाद भी ये दुकानें उन्हीं स्थानों पर बनी रहेंगी, जहां वे अभी हैं। इन सड़कों पर गुजरने वाला यातायात भी पहले की ही तरह रहेगा, और शराब खरीदने वाले लोग भी पहले की ही तरह इन दुकानों से शराब खरीद सकेंगे। तो सवाल  यह है कि फिर अदालत के आदेश का मकसद कहां पूरा हुआ? सरकार का यह कदम दिखाता है कि राजस्व जुटाने के लिए उसके पास पास शराब से आगे बढकर सोचने की दृष्टि नहीं है। यदि होती तो वह शराब की दुकानों को बचाने के बजाय अपनी ऊर्जा राजस्व के अन्य स्रोतों को ढूंढने में लगाती।

राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का जो तोड़ निकाला, उससे तो यही लग रहा है मानो सरकार शराब से ही और शराब के लिए ही चल रही है। दुकानों को बचाने के पीछे सरकार का एक ही तर्क है कि यह प्रदेश की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है। यह बात सही भी है कि प्रदेश को मिलने वाले कुल राजस्व का दूसरा बड़ा श्रोत शराब का कारोबार है।

इससे भी अहम यह है शराब सरकार में शमिल नेताओं और अफसरों की कमाई का भी बड़ा जरिया है l ऐसे में शराब के प्रति सरकार का प्रेम स्वाभाविक है। लेकिन इसमें संशय है कि सरकार का यह हालिया कदम आय के इस स्रोत को बचाये रखने में कामयाब रहेगा? दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तोड़ निकालने के लिए सरकार ने यह जो पैंतरा चला है, वह इतना कमजोर है कि अदालत में इसे आसानी से चुनौती दी जा सकती है। जिस तरह उत्तराखंड के साथ-साथ अन्य राज्यों ने भी शराब की दुकानों को बचाने के लिए यही ‘ट्रिक’ चली है, उसे देखते हुए इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में यह बड़ा मुद्दा बनेगा।

ऐसे में यदि सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस फैसले को चुनौती मिलती है और सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकारों की इस मनमानी को अवैध करार देता है तो तब सरकार के लिए कितनी हास्यास्पद स्थिति होगी? राष्ट्रीय व राजकीय राजमार्गों पर स्थित शराब की दुकानों को हटाने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पिछले एक दशक से एडवाइजरी जारी करता आ रहा है, जिसके बाद केंद्र भी राज्यों को हाई-वे से शराब की दुकाने हटाने को कहता रहा है, लेकिन राज्यों ने कभी भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। इस बार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बड़ी ‘उम्मीद’ जगी थी, लेकिन इस उम्मीद को पूरा करने के बजाय सरकार शराब कारोबारियों के हितों की रक्षा में जुटी है।