जितनी बड़ी जीत उतनी बड़ी जिम्मेदारी !
योगेश भट्ट
भाजपा के नेता अभी शायद यह आभास नहीं कर पा रहे हैं कि जितनी बड़ी जीत होती है, उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी बढ जाती है। बड़ी जीत केवल फक्र करने के लिए नहीं होती, बल्कि जिम्मेदारी महसूस करने के लिए भी होती है। जादुई आंकड़े से कहीं ज्यादा ऊपर पहुंची भाजपा के विधायक इन दिनों भारी उत्साह में हैं।
आश्चर्यजनक यह है कि मोदी लहर में जीते विधायकों ने अभी विधायक पद की शपथ तक नहीं ली और जुगत मंत्री बनने की भिड़ाने में लगे हैं। दूसरी-तीसरी बार विधायक चुने गए नेताओं के बारे में तो खैर कहना ही क्या है, मगर यहां तो पहली बार चुनाव जीतने वालों की नजर भी मंत्री की कुर्सी पर है। ये माननीय चुनाव भले ही मोदी लहर में जीते हैं, लेकिन इनके हावभाव देख कर तो ऐसा कतई नहीं लगता।
इनमें से हर विधायक अपनी जीत का सेहरा खुद अपने सर बांध रहा है। हर विधायक अपनी जीत का श्रेय अपनी काबिलियत और अपने प्रबंधन को देता नजर आ रहा है। इन नए चेहरों का ख्वाब विधायक के रूप में जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरकर एक सच्चे जनप्रतिनिधि के रूप में अपने क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करना नहीं है बल्कि इनका एकमात्र लक्ष्य यही है कि मुख्यमंत्री भले ही कोई भी बने, उन्हें मंत्रिमंडल में जगह मिल जाए। प्रधानमंत्री मोदी की राजनीति का जो ट्रेंड है, उससे भी इन नए चेहरों की उम्मीदों को पंख लगते नजर आ रहे हैं।
इन्हें लगता है कि बदले ट्रेंड में पुराने चेहरों को हाशिए पर रखते हुए नए नए चेहरों पर दांव खेला जाएगा। हालांकि राजनीति में महत्वाकाक्षाएं होना और अपने लिए संभावनाएं तलाशना गलत नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन जब लक्ष्य बड़ा हो तो व्यक्तिगत हितों के कोई मायने नहीं रह जाते हैं। उत्तराखंड में अगर नए नवेले विधायक पहले दिन से ही मंत्री बनने का सपना देख रहे हैं, तो यह न तो प्रदेश के लिए और ना भी भाजपा के लिए अच्छा संकेत है। उत्तराखंड पहले से ही इस बीमारी से त्रस्त है।
जो पुराने विधायक जीत कर आते हैं, उनका एकमात्र उद्देश्य किसी भी हाल में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज होना होता है। पिछले सोलह साल से प्रदेश कुर्सी के ही घमासान में फंसा हुआ है। विडंबना देखिए कि इस बार कहां तो इतने प्रचंड बहुमत के बाद कुर्सी का यह मोह खत्म होना चाहिए था और कहां यह और भी ज्यादा बढता दिख रहा है। चुनाव नतीजे आने के इतने दिन बाद भी भाजपा मुख्यमंत्री तय नहीं कर पाई है, यह इसका जीता जागता प्रमाण है। बहरहाल, बात पहली बार चुनाव जीतने वाले विधायकों की हो रही है, तो बेहतर होता कि इन नए चेहरों की प्राथमिकता में संसदीय परंपराओं को सीखना होता।
बेहतर होता कि जिस क्षेत्र की जनता ने इन्हें अपना प्रतिनिधि चुना है ये उस क्षेत्र की प्राथमिकताओं को तय करते और जिम्मेदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वहन करने का संकल्प लेते। लेकिन अफसोस है कि ऐसा एक भी विधायक नजर नहीं आता। प्रदेश के लिए तो यह चिंताजनक है ही, साथ ही भाजपा के लिए किसी बड़ी चेतावनी से कम नहीं है। यदि शुरुआत से ही भाजपा ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, तो 57 विधायकों की यह फौज पार्टी के भीतर और बाहर कितना तूफान मचाएगी, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।