ऐसे आदेश भी हैं जो सरकार के पक्ष में नहीं थे, इसके बावजूद उन पर तत्काल अमल कर दिया
योगेश भट्ट
पिछले साल प्रदेश के जंगलों में भीषण आग लगी। इस कदर हाहाकार मचा कि, वायु सेना की मदद से हालात काबू में किए जा सके। उस वक्त जो काम सरकार को करना चाहिए था, वह नैनीताल उच्च न्यायालय ने किया। उच्च न्यायालय ने सरकार को वनाग्नि रोकने के लिए व्यापक प्रबंध करने के आदेश दिए, जिसमें यह भी कहा गया कि वन अधिकारी वनाग्नि रोकने में विफल रहेंगे तो उन्हें निलंबित मान लिया जाएगा।
आदेश में स्पष्ट था कि 24 घंटे के अंदर आग पर काबू नहीं पाया गया तो डीएफओ को निलंबित मान लिया जाए। आग 48 घंटे तक जारी रहती है तो वन संरक्षक को निलंबित मान लिया जाए। आदेश में यह भी कहा गया कि अगर 72 घंटे में भी आग नहीं बुझती है तो इसके लिए प्रमुख वन संरक्षक को निलंबित कर दिया जाएगा और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू कर दी जाएगी। सवाल यह है कि उच्च न्यायालय के इस आदेश में आखिर ऐसी क्या दिक्कत थी, कि राज्य सरकार ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला किया? इस आदेश के जरिए न्यायालय ने उत्तराखंड में वनाग्नि पर प्रभावी नियंत्रण के लिए जिम्मेदारी ही तो तय की थी? लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खुद सरकार ने इस आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायाल में विशेष अनुमति याचिका दायर की। उ
च्चतम न्यायालय ने इस याचिका पर सुनवाई के बाद फिलहाल उच्च न्यायलय नैनीताल के आदेश पर रोक लगा दी है। दिलचस्प यह है कि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने रोक के आदेश में कहा कि, ‘यह आदेश तो अच्छा है, लेकिन हर अच्छे आदेश को सरकार चुनौती देती है।’ दरअसल यही सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर सरकार न्यायालय के हर अच्छे आदेश को चुनौती क्यों देती है? ऐसा तो कतई नहीं है कि सरकार उच्च न्यायालय के हर फैसले को उच्च अदालत में चुनौती देती हो।
तमाम ऐसे आदेश भी हैं जो सरकार के पक्ष में नहीं थे, इसके बावजूद उन पर तत्काल अमल कर दिया गया। वनाग्नि से जुड़े उच्च न्यायालय के आदेश को ही लें तो इससे सरकार को क्या परेशानी हो सकती है? परेशानी तो उन अधिकारियों को होनी है, जिन्हें उच्च न्यायालय इस आदेश के माध्यम से दायित्वबोध करा रहा है। आश्चर्यजनक यह है कि सरकार उच्चतम न्यायाल में तर्क देती है कि डीएफओ व अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को राज्य सरकार निलंबित नहीं कर सकती। जबकि आए दिन किसी न किसी घटना में डीएफओ निलंबित होते रहे हैं।
ऐसा लगता है कि सरकार वाकई जनप्रतिनिधि नहीं बल्कि अफसर चला रहें हैं। कोई जनप्रतिनिधि उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय नहीं जाता, क्योंकि पहाड़ में हर जनप्रतिनिधि वाकिफ है कि वनाग्नि कितनी बड़ी समस्या है। गर्मियां शुरू होते ही हजारों हेक्टेयर वन संपदा वनाग्नि की चपेट में आकर स्वाहा हो जाती है। हर साल वन महकमें पर सवाल उठते हैं। जिम्मेदार लोग हालात सुधारने के लिए दावें तो करते है, लेकिन हर बार उनके दावे वनाग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं।
महकमा हर बार संसाधनों का रोना रोता है। जिम्मेदार जनप्रतिनिधि हर बार ‘एक्शन’ की बात करते हैं। लेकिन न जवाबदेही तय होती है और न जिम्मेदारी, जो कि सबसे ज्यादा जरूरी है। हाईकोर्ट के फैसले में वही तो बात है, जिम्मेदारी व जवाबदेही। देखा जाए तो सरकार का काम वही करना ही तो है। इसके बाद भी सरकार ऐसे फैसलों को चुनौती देती है तो जाहिर है कि दाल में कुछ काला है। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट जाने का फैसला सरकार से ज्यादा सरकार चलाने वाले उन अफसरों ने लिया होगा, जो इस फैसले की जद में आ रहे होंगे। जो जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, जो जवाब नहीं देना चाहते। सवाल यह है कि, आखिर सरकार कब तक ऐसे अफसरों की ढाल बनती रहेगी, जो सरकार के वजूद पर ही सवाल खड़े करा देते हैं?