उत्तराखण्ड के बहुमूल्य उत्पाद-जख्या

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डॉ.राजेन्द्र डोभाल 

जख्या अपने अदभुत स्वाद के लिये पूरे विश्वभर में प्रसिद्ध है जिसकी उत्तराखण्ड में व्यवसायिक खेती तो नहीं वरन घरेलू उपयोग के लिये उगाया जाता है या स्वतः ही उग जाता है। उत्तराखण्ड में शायद ही कोई ऐसा भोजन होगा जिसमें जख्या का उपयोग तड़के में न किया जाता हो, इसका स्वाद अपने आप में अनोखा है। आज उत्तराखण्ड में ही नहीं अपितु बड़े शहरों के होटलों में भी जख्या का प्रयोग तड़के के रूप में किया जाता है तथा उत्तराखण्ड के प्रवासी भी विदेशों में जख्या यहीं से ले जाते हैं ताकि विदेशों में भी पहाड़ी जख्या का स्वाद ले सकें।

Cleome जीनस के अन्तर्गत लगभग विश्वभर में 200 से अधिक प्रजातियां उपलब्ध है। जख्या निम्न से मध्य ऊंचाई तक उगने वाला पौधा है। यह मूल रूप से अफ्रीका तथा सऊदी अरब से सम्बन्धित माना जाता है। वैज्ञानिक रूप से जख्या capparidaceae परिवार से सम्बन्ध रखता है।

जख्या शायद ही कहीं पर, मुख्य फसल के रूप में उगाया जाता होगा, वस्तुतः यह एक खरपतवार की तरह ही जाना जाता है व मुख्य फसल के साथ बीच में ही उग जाता है। सम्पूर्ण एशिया व अन्य कई देशों में जख्या को खरपतवार के रूप में ही पहचाना जाता है जबकि प्राचीन समय से ही यह पारम्परिक मसालें का मुख्य अवयव है। जख्या का महत्व केवल इसके बीज से ही है जिसको मसालें के रूप में प्रयोग किया जाता है।

एशिया तथा अफ्रीका में इसकी पत्तियों को पारम्परिक रूप से बुखार, सिरदर्द, गठिया तथा संक्रमण के निवारण के लिये भी प्रयुक्त किया जाता है। जबकि विश्व के कई अन्य देशों में सम्पूर्ण पौधे को कानदर्द, घाव भरने तथा अल्सर के लिये प्रयुक्त किया जाता है। आज भी पारम्परिक रूप से पहाड़ी क्षेत्रों में जख्या के बीज का रस मानसिक बीमारियों के निवारण के लिये प्रयोग किया जाता है। जख्या का महत्व इसी गुणों से समझा जा सकता है कि इसमें anti-helminthic, analgesic, antipyretic, anti-diarrhoeal, hepatoprotective तथा allelopathic गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ antiseptic, carminative, cardiac तथा digestive stimulant गुण भी पाये जाते हैं।

जख्या में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें cleomiscoinas, coumarina-lignoids, clcosandrin तथा flavouring agent पाए जाते हैं, जिसकी वजह से इसका स्वाद विश्व प्रसिद्ध है इसके बीज में 18.3 प्रतिशत तेल जो कि फैटी एसिड, अमीनो अम्ल से भरपूर होता है, भी लाभकारी पाया जाता है क्योंकि इसमें analgesic गुणों के साथ-साथ ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 महत्वपूर्ण अवयव पाये जाते हैं। जहां तक जख्या के पोष्टिक गुणों की बात की जाय तो इसमें फाईबर 7.6 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 53.18 प्रतिशत, स्टार्च 3.8 मि0ग्रा0, प्रोटीन 28 प्रतिशत, वसा 0.5 प्रतिशत, विटामिन सी 0.215 मि0ग्रा0, विटामिन इ 0.0318 मि0ग्रा0, कैल्शियम 1614.2 मि0ग्रा0, मैग्नीशियम 1434.3 मि0ग्रा0, पोटेशियम 145.25 मि0ग्रा0, सोडियम 59.85 मि0ग्रा0, लौह 30.10 मि0ग्रा0, मैग्नीज 7.70 मि0ग्रा0, जिंक 1.995 मि0ग्रा0 तक पाये जाते हैं।

इसके अतिरिक्त जख्या के बीज में coumarinolignoids रासायनिक अवयव का स्रोत होने से भी फार्मास्यूटिकल उद्योग में लीवर सम्बन्धी बीमारियों के निवारण के लिये अधिक मांग रहती है। वर्ष 2012 में प्रकाशित इण्डियन जनरल ऑफ एक्सपरीमेंटल बायोलॉजी के एक शोध पत्र के अध्ययन के अनुसार जख्या के तेल में जैट्रोफा की तरह ही गुणधर्म, विस्कोसिटी, घनत्व होने के वजह से ही भविष्य में बायोडीजल उत्पादन के लिये परिकल्पना की जा रही है।

सम्पूर्ण पौधे के औषधीय गुणों के साथ-साथ जख्या का बीज मुख्यतः मसाले के रूप में प्रयोग किया जाता है जो cumin का बेहतर विकल्प भी माना जाता है। 80 एवं 90 के दशकों तक जख्या को केवल स्थानीय काश्तकारों द्वारा स्वयं के उपयोग के लिये ही उगाया जाता था परन्तु वर्तमान में राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय कम्पनियों के द्वारा इसके पोष्टिक एवं स्वाद के अद्भुत गुणों के कारण वृहद मांग रहती है। परन्तु कम मात्रा में इसका उत्पादन होने के कारण इसको नकदी फसल का स्थान नहीं मिल पाया है क्योंकि उत्तराखण्ड में स्वयं के उपयोग के लिये ही उगाया जाता है जबकि एक अध्ययन के अनुसार यदि जख्या को मुख्य फसल के रूप में अपनाया जाय तो यह तीन गुना उत्पादन देने की क्षमता रखती है।

यह एक अत्यन्त विचारणीय विषय है कि पोष्टिक एवं औषधीय रूप से इतने महत्वपूर्ण जख्या को खरपतवार के रूप में पहचाना जाता है जबकि उत्तराखण्ड के ही स्थानीय फुटकर बाजार में इसकी कीमत 200 रूपये प्रति किलोग्राम तक है तथा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें खरपतवार के रूप में विपरीत वातावरण, असिंचित व बंजर भूमि तथा दूरस्थ खेतों में भी उगने की क्षमता होती है। यदि जख्या को कम उपजाऊ भूमि तथा दूरस्थ खेतों में भी उगाया जाय तो यह बेहतर उत्पादन के साथ-साथ आर्थिकी का जरिया भी बन सकती है। पहाड़ी जख्या को खरपतवार ही नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण फसल भी बन सकती है।

(लेखक -डा0 राजेन्द्र डोभाल, महानिदेशक, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् ,उत्तराखण्ड)

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