उत्तराखंड के पर्वतीय मूल पर संकट !

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@ व्योमेश जुगरान

सत्रह साल में ही उत्तराखंड एक राज्य के रूप में असफल !

उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों और मैदानी क्षेत्रों में आबादी के भारी असंतुलन ने इस राज्य के पर्वतीय मूल पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। राज्य गठन के फौरन बाद 2001 और फिर 2011 की जनगणना के आंकड़ें देखें तो दस सालों में उत्तराखंड की आबादी करीब साढ़े 16 लाख बढ़ी। इस बढ़ी हुई आबादी में 12 लाख से अधिक लोग सिर्फ तीन जिलों- देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर में बढ़े और इसमें भी आधा यानी छह लाख से अधिक का इजाफा अकेले हरिद्वार जिले में हुआ।

2001 में राज्य के पहाड़ी जिलों की आबादी इन तीनों मैदानी जिलों के मुकाबले करीब साढ़े पांच लाख ज्यादा थी लेकिन 2011 आते-आते स्थि‌ति उलट गई। पहाड़ी जिलों की आबादी उन दस सालों में सिर्फ लगभग तीन लाख बढ़ी जबकि मैदानी जिलों में चौगुना यानी 13 लाख लोग बढ़ गए। अकेले हरिद्वार की जनसंख्या 14 लाख से बढ़कर 19 लाख से अधिक पहुंच गई।

पौड़ी और अल्मोड़ा जैसे जिलों में तो 2001 के मुकाबले 2011 में नकारात्मक वृ‌द्धि दर्ज की गई। यानी आबादी घट गई। जन-घनत्व पर गौर करें तो 2001 में उत्तरकाशी जिले में यदि एक वर्ग किलोमीटर में औसतन 37, चमोली में 48 और पिथौरागढ़ में 65 लोग रह रहे थे तो हरिद्वार में यह आंकड़ा 612 प्रतिवर्ग किलोमीटर था। 2011 की जनगणना के मुताबिक पिथौरागढ़ के जन-घनत्व में प्रतिवर्ग किलोमीटर चार, उत्तरकाशी में दो और चमोली में मात्र एक व्यक्ति की वृद्धिर हुई जबकि हरिद्वार में यह वृ‌द्धि दो सौ गुना अधिक यानी 205 आंकी गई।

राज्य की यह तस्वीर तो 2011 की जनगणना पर आधारित है। इधर छह साल और बीत चुके हैं। जाहिर है पहाड़ और मैदान के बीच आबादी का यह अंतर और चौड़ा हो चुका है। अब इसे समझने में किसी जटिल गणित की जरूरत नहीं है कि भावी उत्तराखंड में वोटों का खेल कहां होने वाला है। इधर सहारनपुर और बिजनौर के विलय की आहटें हैं। यदि ऐसा हुआ तो उत्तराखंड नामक इस ‘मिनी यूपी’ में पहाड़ी विधायकों की संख्या अविभाजित यूपी के जमाने (19) से भी कम रह जाएगी। तब पहाड़ से जुड़े बुनियादी सवालों पर जनसंघर्षों और क्षेत्रीय राजनीतिक शक्ति के उदय की संभावनाओं के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे।

17 साल पहले उत्तराखंड के गठन के साथ ही यहां कामकाज संभालने वाली भाजपा की अंतरिम सरकार गैरतजुर्बेकारी और ढुलमुल रवैये के कारण उत्तराखंड के भविष्य से जुड़े मुद्दों पर दो-टूक निर्णय नहीं ले सकी। उसे राजधानी, विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन और परिसंपत्तियों का बंटवारा जैसे विषयों को सुलझाने का संवैधानिक दायित्व निभाना था। लेकिन उसने ये तीनों विषय उलझा दिए जिसका खामियाजा पहाड़ आज तक भुगत रहा है।

राजधानी पहाड़ में न देकर इसके लिए आयोग बना दिया गया, परिसीमन में आबादी के आगे क्षेत्रफल और भौगोलिक आधार को कोई तवज्जो नहीं दी गई और उत्तर प्रदेश के साथ परिसंपत्तियों के बंटवारे पर दो-टूक निर्णय तो दूर, बात करने का साहस तक नहीं जुटाया जा सका। इसके अलावा भू-माफिया पर अंकुश के लिए सख्त कानून की जनताई मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। और तो और, बिजली-पानी जैसे बुनियादी अधिकार तक हासिल नहीं किए जा सके जिन्हें इस नवोदित राज्य के राजस्व का प्रमुख संसाधन माना गया था।

राज्य निर्माण से ठीक पहले उत्तर प्रदेश ने बेहद चालाकी से पुनगर्ठन विधेयक में उपधारा 79 (3) का सहारा लेकर बिजली-पानी पर अधिकार जमा लिया। ‘बड़े भाई’ की बदनीयत से साफ था कि यह धारा पुनर्गठन विधेयक में जानबूझ कर डाली गई। कुछ जानकारों और पहाड़ के हितचिन्तकों ने इसका विरोध किया और केंद्र सरकार से इसे हटाने की मांग भी की, लेकिन ऐसी आवाजें नए राज्य के जश्न-ए-आगाज में दबकर रह गईं। इस धारा में कहा गया था- ‘नया राज्य बनने से एक दिन पहले तक यदि उत्तर प्रदेश किसी व्यक्ति या प्राधिकार से कोई करार करता है तो उस करार से संबंधित अधिकार और दायित्व पूर्ववर्ती राज्य में ही रहेंगे, उत्तरवर्ती राज्य में नहीं जाएंगे।’

हरिद्वार की घंटी उत्तराखंड के गले में बहुत सोच-समझकर बांधी गई। यहां कुंभ का व्यय-भार और संसाधनों के लिहाज से गैरपहाड़ी आबादी का एक विशाल बोझ तो नए राज्य की पीठ पर लाद दिया गया मगर गंग नहर समेत तमाम महत्वपूर्ण ठिकाने उत्तर प्रदेश के ही कब्जे में बने रहे। तब यूपी के पर्यटन मंत्री केदार सिंह फोनिया जो कि पहाड़ से ही विधायक थे, पार्टी लाइन यानी हरिद्वार को उत्तराखंड में शामिल करने की मुहिम छेड़े हुए थे और उत्तराखंडी आंदोलनकारियों के मंचों से यह दलील देते न अघाते थे कि हरिद्वार के शामिल होने पर गंग नहर का बटन उत्तराखंड के पास होगा।

पहाड़ी नेता गंगनहर के बटन जैसी खुशफहमियों में रहे और उधर दुरभि संधियों के जरिये राज्य के पर्वतीय मूल पर पलीता लगाने की कोशिशें परवान चढ़तीं रहीं। उत्तराखंड का नया नामकरण (उत्तरांचल) पहले ही हो चुका था, हरिद्वार का विलय होते यह भी साफ हो गया कि उत्तराखंड एक पर्वतीय प्रदेश नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश का विभाजन मात्र है। प्रथम मुख्यमंत्री और प्रथम राज्यपाल के रूप में गैर-पहाड़ियों की नियुक्ति से रही-सही गलतफहमी भी दूर हो गई।

शिक्षित बेरोजगारी से आक्रांत उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश ने अपने विकल्पधारी कर्मचारियों को तो वापस नहीं ही बुलाया, ऊपर से हिल काडर के अपने तमाम विकल्पधारियों को उत्तरांचल के गले बांधने में जरा भी देर नहीं की। साथ ही, प्रतिनियुक्ति पर कर्मचारियों की एक बड़ी फौज का बोझ भी नए राज्य पर अलग से लाद दिया।

फरवरी 2002 में सूबे के पहले चुनावों के साथ ही नेताओं के आपसी टकराव और अहं की पटकथाएं लिखी जाने लगीं। मुख्यमंत्री के रूप में कद्दावर नारायण दत्त तिवारी का छोटी सूबेदारी के लिए तैयार होना सबको हैरत में डाल गया। पार्टी में अपने धुर विरोधी हरीश रावत का रास्ता रोकना इसका तात्कालिक कारण भले ही रहा हो, पर तिवारीजी को जल्द समझ में आ गया कि उत्तरांचल का सांप उनके गले में जानबूझ कर डाला गया है। सोनिया गांधी के चाटुकार बड़ी चतुराई से ‘वैकल्पिक प्रधानमंत्री’ को हाशिए पर ठेल चुके हैं।

मर्मांहत तिवारी न उत्तराखंड की गद्दी का मोह छोड़ सके और न यह सच्चा ई हजम कर सके कि दिल्ली् उनसे काफी दूर जा चुकी है। लेकिन दोनों स्थितियों में नुकसान राज्य का ही हुआ। तिवारी-शासन मंत्रियों के भ्रष्टाचार, लाल बत्तियों का मायाजाल, जमीनों की लूट और विवेकाधीन कोष के दुरुपयोग इत्यादि आरोपों के लिए चर्चा में रहा। उन्हीं के कार्यकाल में जिला मुख्यालयों से रातों-रात विभागों को समेटकर तुगलकी अंदाज में देहरादून शिफ्ट करा दिया गया। इस तरह विकेंद्रित उत्तराखंड की अवधारणा भी चूर होती चली गई।

पूरे देश ने देखा कि उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए कितना बड़ा आन्दोलन चला। उत्सर्ग भी हुए। मगर जो राज्य दिया गया, वो जनभावना का नहीं, सत्ता की मेहरबानी का राज्य था। यही कारण है कि आज फिर से पहाडों में बेचैनी का आलम है। राज्य बनने के सत्रह सालों में ग्रामीण उत्तराखंड एक ओर शिक्षा और स्वास्थ जैसी बुनियादी सेवाओं की बदहाली से जूझ रहा है, वहीं प्राकृतिक आपदा, मौसमी मार तथा बाघ, बंदर व जंगली सुअरों के आतंक से खेती-किसानी का सारा ढांचा तहस-नहस हो चुका है। इसका सीधा नतीजा ग्रामीण उत्तराखंड से पलायन की हैरतअंगेज व्यथा के रूप में सामने है।

यह सारी परिस्थिति पर्वतीय राज्य के भीतर एक बंजर हिमालय के आकार लेने का भी संकट है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मानवीय आवरण हिमालय के अस्तित्व की सबसे मजबूत गारंटी है। यदि संकट दूरदराज के क्षेत्रों में मनुष्य के टिके रहने पर बन आया हो और सरकार को पलायन आयोग जैसे निर्णय लेने पड़े हों तो यह निष्कर्ष निकालने में कोई अतिरंजना नहीं है कि मात्र सत्रह साल में ही उत्तराखंड एक राज्य के रूप में असफल हो चुका है।

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