■■चौबीसों घण्टे ‘पलायन’ ‘पलायन’?

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”जय प्रकाश उत्तराखंडी” 
••विकट पहाड ठहरा,इसलिए पलायन बेचारे उत्तराखण्ड के लोग ही करते हैं,ऐसा पलायन करते हैं कि शहरों से कभी पलट के नहीं लौटते।बगल में ऐसा ही शेम टू शेम विकट पहाड है-हिमाचल,वहाँ 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिलते ही देश के दूरस्थ शहरों से हिमाचली अपने राज्य का निर्माण करने अपना सब जमा जमाया छोडछाड के वापिस लौट आये।

मुझे याद है मसूरी में लकडी और उसके कोयले के व्यापार पर हिमाचल के सिरमोरियों का आधिपत्य था,हजार-डेढ हजार से उपर सिरमोरी थे उन दिनों मसूरी में।जैसे ही हिमाचल बना उनके ठेकेदार और टण्डेल बनियों और दूसरे ग्राहकों से तकादा करने लगे-“ओ बाणिया,बाक्की के दे दे..अपने मुलुक(हिमाचल) कू जाणा है..मुखमन्तरी परमार बोल रा घर कू देख्खो..।

“हिमाचलियों को डा• यशवन्त सिहं परमार जैसा तपस्वी व सृजनशील मुख्यमंञी मिला था,जिसने प्रधानमंञी श्रीमती इन्दिरा गाँधी से खुले कहा-“मुझे टाईवाले लद्द आईएएस अफसर नहीं चाहिए,हिमाचली पहाडी तो उनकी अगवानी कर मुर्गियां ही पकाते रह जायेंगे।”परमार ने सिर्फ एक ईमानदार आईएएस पकडा और पहली मीटिंग हिमाचल के किन्नौर के एक बर्फानी और सीमान्त पहाडी गाँव में की,जहाँ आदिवासी बकरी पालक जाडू रहते थे।

डा• परमार ने अपने कर्मचारियों से कहाँ-भैय्या हर महिने तनख्वाह की इन्तजारी ना करना।परचूनियों और बनियों से कहा-“मेरे भरोसे पर अगर मेरे कर्मचारियों को राशन उधार दे सकते हो तो मैं एक दिन तुम्हारी उधारी लौटा दूंगा..व्यापारियों ने अपने गल्ले खोल दिए,उन्होने घर के गहने बेच के भी गल्ले चलाये।हिमाचल उन दिनों सदावर्ती आश्रम सा हो गया था,पर उन्हे अपने मुख्यमंञी के ईमान और कर्मठता पर विश्वास था।

हिमाचल आज कहाँ है और उत्तराखण्ड कहाँ?वहाँ का पुलिसवाला अगर आपकी गाडी पकड ले तो कागज माँगता है..घूस लेगा नहीं,लेगा तो कम से कम हजार रूपये लेगा..शुरू से बडप्पन और कल्चर जो बना था..देश में घूम आओ-एक लाख में एक हिमाचली नहीं मिलेगा..और दिल्ली में ही एक हजार में छः सौ उत्तराखण्ड के मिलेंगे,हर शहर और अमेरिका-जापान में भी उत्तराखण्ड का मिलेगा,70 प्रतिशत उत्तराखण्डी दुनिया और देश में फैला पडा है,यही बजह है कि 16 साल से यहाँ के राजकाज में प्रवासियों का सिक्का चल रहा।

..और हिमाचली हैं-पलायन क्या है,वो ये जानते नहीं।यहाँ 2000 से पहले की तरह उत्तराखण्ड बनते ही बसे-रेलगाडियाँ शहरों में भर भर कर पहुँच रही है,जब यहाँ रहना ही नहीं था,तो 1994 में अलग प्रदेश का बवाल किसलिए मचाया? हिमाचल भी ऐसा ही पहाड है,जैसा यहाँ है।मुझे याद है 1991 के आसपास मेरा एक लेख-“लौट आ प्रवासी पहाड पर” शीर्षक से “युगवाणी” में छपा था,कई प्रवासियों ने संपादक के नाम लिखी चिठठियों में मेरी ऐसी तेसी कर दी।

मानते हैं हमें कोई डा• परमार नहीं मिला-राज करने को शुरू में ही माफियायों और उनके दल्लों के सरपरस्त मिले।पर हम इतने कमजोर क्यों हैं कि हम इनसे जल,जंगल,जमीन, न्याय और विकास के लडने का माद्दा और लोकतांञिक दमखम ही खो चुके हैं?खेत के लिए तो वो हलिया ही लडेगा,जो खेत के बीच खडा होगा-जो गाँव और खेत छोडकर दिल्ली और चण्डीगढ बैठ गया,वो पलायन पर किसलिए लफ्फाजी कर रहा? मेरी उनको राय है-वहाँ वो नरेन्द्रसिहं नेगी नाईट देंखे और खुश रहे,कृपया पहाडवालों को उपदेश न दें।

वैसे रीजनल चरिञ भी काऊण्ट करता है,उत्तराखण्ड मूल के कई अफसर बाबू अपनी पितृभूमि उत्तराखण्ड में लखनऊ से लौटने को ही तैयार नहीं थे,सब ससुरे कोर्ट चले गये।वो हिमाचली ही थे,जो बोले थे-ओ बाणिया बाक्की के दे-अपने मुलुक को जाणा है..।हिमाचलियों ने शुरू के नये बने राज्य मे अपनी तकलीफे नहीं गिनी..जैसे उत्तराखण्ड वाले गिनते हैं-“बाबू जी अस्पताल नहीं है..स्कूल नहीं..खेती पर पानी टैम से नहीं बरसता..।

अरे जब गाँव पैक होगा,कोई बस्ती होगी-तभी तो खेती होगी,सरकारी रोजगार आयेगा..स्कूल अस्पताल आयेगा..।मरघट की नीरव शाँति में कोन सा महकमा आयेगा-गाँव में छः जिन्दे बुढढों की गिनती करने को,बुढढों की आवाज तो यमराज ही सुन सकता है ???…..
(माफी के साथ-जयप्रकाश उत्तराखंडी)।

जयप्रकाश उत्तराखंडी राज्य आंदोलनकारी के साथ ही वरिष्ठ पत्रकार लेखक और विचारक भी हैं (उनकी फेसबुक वाल से साभार)