उत्तराखंड के मुद्दों पर कांग्रेस व भाजपा नहीं कर रहे चर्चा

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देवभूमि मीडिया ब्यूरो 

देहरादून  । प्रदेश में सत्ता के दावेदार दो प्रमुख दल कांग्रेस एवं भाजपा चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद भी एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से बाहर आकर उत्तराखण्ड के मुद्दों पर चर्चा नहीं कर पा रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस जहां विकास कार्यों के नाम पर वोट मांगने की बात कर रही है, वहीं सत्ता की दावेदार भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर एक बार फिर वोट मांगने को तैयार है। यही कारण है कि स्थायी राजधानी, लटकी पड़ी जल विद्युत परियोजनाओं, बेरोजगारी व पलायन जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दल अभी भी  खुलकर चर्चा नहीं कर रहे हैं कि  आखिर उनका इन मुद्दों पर क्या ।

प्रदेश में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। राज्य गठन के बाद  सूबे में यह चौथा चुनाव होगा। पिछले 16 साल में राज्य गठन की अवधारणा के अनुरूप उत्तराखण्ड विकास की राह पर उस तरह आगे नहीं बढ़ पाया, जैसी कि उम्मीद की जा रही थी। पहाड़ के ज्वलंत मुद्दे आज भी पहाड़ जैसे बनकर खड़े हैं। जनभावनाओं के केंद्र गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के सवाल पर दोनों ही प्रमुख दल खुलकर बोलने से कतरा रहे हैं। हालांकि विरोधी को कटघरे में खड़ा करने के लिए वे आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति राजधानी के सवाल पर करते रहे हैं।

आपसी झगड़े से नैपथ्य में खड़े उत्तराखण्ड क्रांति दल को एक बार फिर गैरसैंण को राजधानी बनाने के अपने प्रतिबद्ध एजेंडे से आगामी चुनाव में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। हालांकि उक्रांद नेताओं के आपसी अहम के कारण काफी बिखर चुका है। इसलिए चुनाव से पहले एकजुट होना दल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। राज्य आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला उक्रांद उत्तराखण्ड में तीसरी शक्ति के रूप में नहीं उभर पाया है। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश में तो है, लेकिन उसे सशक्त दल की तलाश पूरी होती नहीं दिखाई देती। वर्ष 2002, 2007 एवं फिर 2012 के तीन चुनावों में लगातार उक्रांद विधानसभा में अपनी संख्या कम होते देखता रहा है। इस बीच बहुत कुछ बिखरा, जिसे युवा नेतृत्व के रूप में पुष्पेश त्रिपाठी संभालने की कोशिश में तो हैं, लेकिन कई वरिष्ठ नेताओं का अहम अभी भी कम हुआ नहीं है।

उत्तराखण्ड में कथित पर्यावरणवादियों के भारी विरोध के चलते कई विद्युत परियोजनाएं अधर में हैं और कई पर काम भी शुरू नहीं हो पाया। सैकड़ों करोड़ खर्च होने के बाद दो परियोजनाओं पर काम रुका हुआ है। केंद्र में यूपीए शासन के दौरान भारत एवं नेपाल के संयुक्त उपक्रम से 6600 मेगावाट की पंचेश्वर परियोजना पर आपसी सहमति बनी थी। कई दौर की बैठकें भी हुई। परियोजना शुरू करने से पहले दोनों देशों के अधिकारियों की तैनाती के साथ उपक्रम अस्तित्व में आना था, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। यदि यह परियोजना अस्तित्व में आती तो देश की उर्जा जरूरतों को काफी हद तक पूरा करने में मदद मिलती। उत्तराखण्ड को भी इस परियोजना से कापफी लाभ होना है। 12 प्रतिशत की दर से 792 मेगावाट बिजली भारत व नेपाल को रायल्टी के रूप में मिलेगी। भारत के हिस्से की रायल्टी में मिलने वाली लगभग 396 मेगावाट बिजली उत्तराखण्ड के हिस्से में आनी है। इस प्रकार उत्तराखण्ड जैसे कम वित्तीय संसाधनों वाले राज्य के लिए यह परियोजना मील का पत्थर साबित हो सकती है। उत्तराखण्ड की आर्थिकी में सुधार की दृष्टि से भी पंचेश्वर बांध परियोजना महत्वपूर्ण है।

इसके अलावा सीमांत क्षेत्रों के साथ-साथ आपदा की जद में खड़े गांवों के पुनर्वास एवं रोजगार के लिए पलायन को रोकना उत्तराखण्ड के सबसे बड़े मुद्दे हैं। पिछले 16 साल में कांग्रेस व भाजपा ने बारी-बारी से शासन किया, लेकिन धरातल पर ज्वलंत मुद्दों पर काम होता कम ही दिखाई दिया। लोक लुभावन पफैसलों से जनमत जुटाने की नीति ने उत्तराखण्ड के वास्तविक मुद्दों को पीछे छोड़ दिया। अब विधानसभा का चौथा चुनाव सिर पर है। जनता पिछले 16 सालों में उसके हिस्से आए विकास की समीक्षा कर रही है। मिजाज देखकर लगता है कि इस बार जनता लोक लुभावने वायदों व काल्पनिक घोषणा पत्रों से प्रभावित हुए बिना स्वविवेक से मतदान करेगी और विधानसभा में जनता के हक-हकूकों की लड़ाई लड़ने में सक्षम लोगों को निर्वाचित कर भेजेगी।