अब तक पुराने ढर्रे से निकल नहीं पाया उत्तराखंड

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वेद विलास उनियाल
उत्तराखंड को नए शासकों ने पिछले शासकों की तरह ही चलाया। आज 17 वां स्थापना दिवस मना रहे इस राज्य को अपने परिवेश के अनुरूप विकास का इंतजार है। उत्तराखंड राज्य आज अट्ठारह साल का हो रहा है। इसे एक बड़ा मौका बनाने की पूरी-पूरी कोशिश हुई है। राज्य की आगे की दिशा किस तरह तय हो, इस पर मंथन के लिए रैबार कार्यक्रम के तहत राज्य की शख्सियतों को न्यौता भेजा गया। सांस्कृतिक छटाओं को खुशहाली का प्रतीक बनाया गया है। इस सबके जरिए यह जताने का प्रयास है कि जिस क्षेत्र में कठिनाई, विपदा, आर्थिक दिक्कतें रही हों, वह राज्य अपनी उस दशा से निकलकर कुलांचे भरने को तैयार है। लेकिन ऐसे आयोजनों से हम किसी राज्य की दिशा और दशा का आकलन नहीं कर सकते।

उत्तराखंड आंदोलन के पीछे जो सोच थी उसमें तीन अहम पहलू थे। पहला, इस राज्य को इसके संसाधनों से समृद्ध बनाया जाए। दूसरा, इसकी संस्कृति परंपरा और जीवन शैली को फिर आत्मगौरव से जोड़ा जाए। तीसरा, हिमालयी राज्य में बार-बार आती आपदा से निपटने पर विशेष ध्यान दिया जाए, आपदा प्रबंधन की समुचित व्यवस्था हो। कहीं न कहीं अलग राज्य गठित करने की मांग का औचित्य यही था कि जिस ढर्रे पर अब तक इस पहाड़ को देखा जा रहा था, वह शैली बदलनी चाहिए। बेशक आरक्षण का सवाल उत्तराखंड आंदोलन की एक चिंगारी बना, लेकिन लोगों के अंतर्मन में यह सवाल पहले से सुलग रहा था कि इस राज्य को इसके भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक परिवेश के अनुरूप चलाया जाना चाहिए। उत्तराखंड के संदर्भ में पहली भूल यही थी कि इसे अलग राज्य तो बना दिया गया, लेकिन इस राज्य की व्यवस्था और उसकी शैली में कोई बदलाव नहीं आया। उत्तराखंड के नए शासकों ने इसे पिछले शासकों की शैली के अनुरूप ही चलाया।

उत्तराखंड की उपलब्धियों को जताने का जब भी अवसर होता है तो यहां आए हुए उद्यम, कुछ सड़कें, कुछ इंस्टिट्यूट्स का हवाला दिया जाता है या धार्मिक स्थलों पर पर्यटक बढ़ने का कौतूहल जगाया जाता है। इस बात का भी जयघोष किया जाता है कि आज थलसेनाध्यक्ष, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, प्रधानमंत्री के सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर उत्तराखंड के लोग दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। उत्तराखंड का परिचय इससे भी विस्तार पाता है कि देश-विदेश की होटल इंडस्ट्री में यहां के लोग बड़ी संख्या में हैं और फिल्म, मॉडलिंग, संगीत के क्षेत्रों में भी में यहां के युवा तेजी से जगह बना रहे हैं। ऐसी उपलब्धियों का भी अपना महत्व है, लेकिन गौर किया जाना चाहिए कि ऐसी ज्यादातर उपलब्धियां व्यक्तिगत प्रकृति की हैं।

राज्य की अब तक की सरकारें जिन क्षेत्रों में बढ़-चढ़ कर अपने कदम उठा सकती थीं वहां उनकी उपलब्धियां कमजोर हैं। लोक कला और परंपरा को बढ़ावा दिए जाने की बात भी केवल सांस्कृतिक आयोजनों की ठेकेदारी तक सिमट गई है। उत्तराखंड में कला का अभिप्राय केवल लोकगीत और नृत्य हो कर रह गया है। मूर्ति शिल्प, काष्ठ शिल्प, लोक संगीतिक परंपराएं, थिएटर, मांगल, लोक साहित्य इन विधाओं के संरक्षण पर ठोस काम नहीं हो पाया। पर्यटन के विकास पर आंकड़े चार धामों की बातों पर सिमट जाते हैं। यह भुला दिया जाता है इसी केदारनाथ से जुड़ी समूची मंदाकिनी घाटी किस तरह सिसक रही है। किस तरह यमनोत्री-गंगोत्री के क्षेत्र अपने विकास की राह देख रहे हैं। किस तरह मंदिरों-तीर्थ स्थलों के गलियारे किसी टूरिस्ट सर्किट की अपेक्षा कर रहे हैं। कैसे यहां के चर्चित ऐतिहासिक स्थल उपेक्षित पड़े हैं।

आर्थिक प्रगति के लिए सरकार को जिस तरह बागवानी, जड़ी-बूटी, मत्स्यपालन जैसे तमाम पहलुओं पर सक्रियता दिखानी थी वह झोल खाती रही। हालांकि ऐसा नहीं है कि राज्य बनने से जुड़ा हर सपना उजड़ ही गया हो। राज्य बनने से लोगों में अपने क्षेत्र के प्रति एक स्नेह जागा है। अपनी परंपरा, संस्कृति, रीति-रिवाज को जानने-समझने और उनसे जुड़ने की कोशिश हुई है। जरूरत है तो राज्य की आकांक्षाओं जरूरतों और विशिष्टताओं को समझते हुए इनके बीच तालमेल स्थापित करके आगे बढ़ने की।