देहरादून। आगामी 15 मार्च तक प्रदेश में आदर्श चुनाव आचार संहिता लगी हुई है। जिसका तात्पर्य यह कि इतने समय तक प्रदेश में कहीं भी धरना प्रदर्शन अथवा सरकारी स्तर पर कार्य नहीं कराए जा सकते हैं। यूं कहें कि 15 मार्च तक पुलिस प्रशासन असामाजिक तत्वों पर सख्त कार्रवाई अमल में ला सकता है, वह भी इसलिए कि पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों पर राजनैतिक दबाव ना के बराबर माना जा रहा। यह एक कड़वी सच्चाई है कि अधिकारियों पर राजनेताओं का दबाव रहता है, और इस दबाव के चलते ही कई बार अनहोनी को होनी बनाने वाले फैसले लिए जाते रहे हैं। यह सारी बातें सिर्फ इसलिए बताई जा रही हैं कि 15 मार्च के बाद फिर वहीं दिन लौटने वाले हैं। जबकि 11 मार्च को चुनाव परिणाम घोषित होते ही एक नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जाएगा। बहरहाल तो प्रदेश में मेरी सरकार, तेरी सरकार, मेरी जीत-तेरी हार का जुमला बोला जा रहा है।
प्रदेश गठन के बाद से राज्य में कांग्रेस और भाजपा की सरकार सत्ता नसीं रही हैं। केंद्र में रही भाजपा सरकार ने उत्तराखंड राज्य के गठन की घोषणा की ओर नौ नवंबर 2000 को उत्तरांचल नाम से नए पर्वतीय बाहुल्य राज्य का गठन हो गया। हालांकि कुछ वर्षों बाद उत्तरांचल नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया। प्रदेश का नाम भले ही बदला गया हो, मगर भाजपा या कांग्रेस को इससे बहुत अधिक राजनैतिक लाभ नहीं मिल सका। कभी भाजपा और कांग्रेस की सरकार का दौर जारी रहा।
बात करें नौ नवंबर 2000 से शुरू हुई भाजपा सरकार की तो दो वर्ष के राजनैतिक सफर में पार्टी को नए गठित प्रदेश के विकास का अधिक समय नहीं मिल सका और 2002 में प्रदेश का पहला विधानसभा चुनाव आयोजित कराया गया। भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को आस थी कि प्रदेश गठन का श्रेय मिलेगा और जनता का बहुमुल्य वोट उसके पक्ष में जाएगा। हालांकि ऐसा नहीं हो सका, और कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत के साथ राज्य की सत्ता हालिस करने का गौरव प्राप्त किया।
एनडी तिवारी के नेतृत्व में पांच साल तक कांग्रेस की सरकार ने राज्य विकास का खाका खींचा। इसके बाद 2007 के दूसरे विधानसभा चुनाव आयोजित हुए। चुनावी परिणाम भाजपा के फेवर में गए, निर्दलीयों का साथ लेकर भाजपा ने उत्तराखंड में सरकार बनाई। सभी जानते होंगे कि 2007 से 2012 तक पांच साल में भाजपा के भीतर उथल पुथल वाला माहौल बना रहा। 2012 के विधानसभा चुनाव में सत्ता की चाबी पुन: हासिल करने के लिए नेतृत्व परिवर्तन का पासा फेंका गया। मगर जीत भाजपा के हाथ से एक सीट से फिसल गई। 2012 में एक बार फिर से कांग्रेस के हाथ में सत्ता की चाबी रही। हालांकि कांग्रेस के लिए 2012 की सत्ता संभालना आसान कतई नहीं रहा। सरकार को अपनों का ही निशाना बनते रहना पड़ा। जिसके बाद उत्तराखंड में फिर एक बार 2007 वाली भाजपा सरकार जैसी परिपाठी निभाई गई और कांग्रेस की मौजूदा सरकार में चेहरा परिवर्तन कराया गया।
नौ नवंबर 2000 के बाद से मौजूदा राज्य सरकार के कार्यकाल में कभी कांग्रेस विपक्ष में रही तो कभी भाजपा। मगर दोनों ही दलों की सरकारों के समय एक बात समान रही और वह यह कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारों के कार्यकाल में तथाकथित घोटालों को खूब हवा दी गई। यहां एक के बाद कर सामने आए घोटालों का नाम गिनाना जरूरी नहीं है। जनता ने खूब देखा कि सत्ता में लौटने की रणनीति के तहत भाजपा और कांग्रेस दोनों ही ने कांग्रेस और भाजपा कार्यकाल में हुए घोटालों पर खूब छींटाकशी की। वह और बात है कि सरकार बनते ही सत्ताधारी दल विपक्ष के घोटालों को हवा देता नहीं दिखा और विपक्ष ने भी मित्र विपक्ष की भूमिका निभाई। बहरहाल 15 फरवरी को चौथी विधानसभा के चुनाव हेतु मतदान सम्पन्न हो चुके हैं और जनता ने जिस चुप्पी से मतदान किया, वह राजनैतिक दलों की समझ से परे रहा है।