लम्हों की ‘खता’ और सदियों की ‘सजा’…!

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सतपुली में घटी ये दो घटनाएं अमन में जहर घोलने सरीखी

राज्य बनने के डेढ़ दशक बाद अब हालात गंभीर 

नेपाल से लेकर बांग्लादेश मूल तक के लोगों के उत्तराखंड में आधार कार्ड बने 

योगेश भट्ट 

पौड़ी जिले का छोटा सा कस्बा सतपुली महीनेभर में दो बार सांप्रदायिक तनाव की जद में आया है। सतपुली क्षेत्रफल के लिहाज से छोटा जरूर है मगर यह प्रदेश का कोई सामान्य कस्बा नहीं है। इसकी अपनी कुछ खासियतें जरूर रही होंगी, जिनके चलते यह उत्तराखण्ड के लोक में बसा हुआ है। प्रदेश के, खासकर गढवाली बोली के लोकगीतों में सतपुली का जिक्र अक्सर होता रहता आया है।

सतपुली दरअसल प्रदेश की सांस्कृतिक और सामाजिक विविधताओं तथा समरसता का अहम केंद्र रहा है। लेकिन कुछ समय से इसे मानो किसी की नजर लगी हो, यहां का मिजाज बिगड़ने सा लगा है। कुछ दिन पहले केदारनाथ धाम की तस्वीर का एक मुस्लिम युवक द्वारा कथित तौर पर अपमान किए जाने का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि एक और घटना घट गई। इस बार भी आरोप मुस्लिम युवक पर है। आरोप के मुताबिक युवक ने गौवंश के साथ अप्राकृतिक कृत्य किया। इसके बाद से सतपुली में तनाव पैदा हो गया है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सतपुली में घटी ये दो घटनाएं अमन में जहर घोलने सरीखी हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इन्हें सियासत से जोड़ कर देखें। कुछ की नजर में ये सांप्रदायिक तनाव बिगाड़ने का षड़यंत्र भी हो सकती हैं तथा कुछ इन्हें मानसिक विकृति कह कर जाने भी दे सकते हैं। मगर जो भी हो, एक बात तो स्पष्ट है कि इन घटनाओं में एक ही संप्रदाय के, तथा उस पर भी लगभग समान उम्र के युवकों का नाम सामने आया है। इन घटनाओं में यदि सच्चाई पाई जाती है तो न केवल सतपुली बल्कि पूरे प्रदेश की सामाजिक समरसता के लिए बड़े खतरे का संकेत है।

हकीकत यह है कि अब प्रदेश की स्थितियां पहले जैसी नहीं रह गई हैं। पिछले एक-डेढ दशक में प्रदेश में देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी से लेकर जोशीमठ और पिथौरागढ़ तक यानि मैदान से पहाड़ तक बड़ी संख्या में बाहरी लोगों की आमद हुई है। दुर्भाग्यूर्ण है कि एक तरफ हम तो पलायन का रोना रोते रहे हैं और दूसरी तरफ राज्य में इतनी बड़ी आबादी न केवल दूसरे प्रदेशों बल्कि दूसरे देशों से भी आकर बसी है जिसका कि ब्यौरा तो छोड़िए अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि आने वाले सालों में यह आबादी यहां के संस्कार, समाज, संस्कृति और परिवेश के लिए बड़ी चुनौती बनेगी।

चिंताजनक बात है कि आज तक प्रदेश में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई ताकि इस तरह की चुनौतियों से निपटा जा सके या कोई नियंत्रण,अंकुश लग सके। जहां तक प्रदेश के सामाजिक परिवेश का सवाल है तो उत्तराखंड की पहचान एक आध्यात्मिक, धार्मिक और सर्वधर्म समभाव वाले प्रदेश की रही है। देश-दुनिया से अधिकतर लोग यहां तीर्थाटन के लिए ही आते हैं। चाहे चारधाम हों, पिरान कलियर हो या फिर हेमकुंड साहिब और नानकमत्ता, ये सभी तीर्थ स्थल लोगों की धार्मिक मान्यताओं के ही प्रतीक तो हैं। इस सबके बीच बात यदि हिंदू-मुस्लिम संबंधों की करें तो दोनों समुदायों के बीच उत्तराखंड में किसी तरह की कड़वाहट की बात बीते कुछ सालों तक कल्पना में भी नहीं की जा सकती थी।

इसकी वजह यह है कि प्रदेश के तमाम छोटे बड़े कस्बों, नगरों में कई पीढियों से मुस्लिम परिवार रहते आ रहे हैं। चाहे देवप्रयाग हो, जोशीमठ हो, नंदप्रयाग हो या फिर अल्मोड़ा और पिथौरागढ, वर्षों से मुस्लिम परिवार न केवल इन नगरों में रह रहे हैं बल्कि यहां की लोक संस्कृति पूरी तरह उनके दिलों में रची बसी है। लेकिन राज्य बनने के डेढ़ दशक बाद अब हालात गंभीर होते जा रहे हैं। स्थिति यह है कि नेपाल से लेकर बांग्लादेश मूल तक के लोगों के उत्तराखंड में आधार कार्ड बन रहे हैं, घर बन रहे हैं। देहरादून, ह्ल्द्वानी आदि नगरों में तो बड़े पैमाने पर जमीन भी खरीदी गयी हैं ।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि राजनेताओं ने न इस पर ध्यान दिया और न गंभीरता से लिया। वो तो सिर्फ अपनी सियासत और कुर्सी की गणित में उल्टा इसे संरक्षण देते रहे । हाल यह है कि पलायन के आंकड़े तो जारी हो जाते हैं लेकिन बाहरी लोगों के उत्तराखंड में बसने के आंकड़े कोई सरकार जारी नहीं करती। क्या सरकारों के पास यह आंकड़े हैं भी कि राज्य बनने के बाद प्रदेश में बाहर से कितने लोग आए? जो लोग आए वे क्यों और कहां-कहां से आए, उनकी पृष्ठभूमि क्या है? यहां बसने का उनका मकसद क्या है, कौन उन्हें मदद कर रहा है ? उनके यहां क्या सम्पर्क हैं और क्या गतिविधियां हैं? होना तो यह चाहिए था कि सरकारों के पास इस बारे में ठोस जानकारी होती। लेकिन चेतने और सतर्कता बरतने के बजाय सरकारें या तो जानबूझकर या अंजान बन कर इस सबकी अनदेखी करती आई हैं।

इसी अनदेखी का दुष्परिणाम है कि आज ये आमद बड़ी समस्या बनती जा रही है। कोई शक नहीं कि आज जो घटनायें सतपुली घटित हो रही हैं, वो या उससे भी बदतर अब राज्य में कहीं भी घटित हो जाएं। इसलिये अमन पसंद लोगो चेतो, राज्य चलाने वालो चेतो, इसे राज्य से प्रेम करने वालो उठो।यदि अब भी कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए तो इन आशंकाओं को खारिज नहीं किया जा सकता कि मूल रूप से उत्तराखंड की पहचान रखने वाले लोगों को, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, कल अपने ही ‘घर’ में अपना वजूद तलाशना पड़ेगा।