- पहली बार भाई बहन के त्यौहार रक्षाबंधन पर एक अजीब अनुभूति हुई
कुसुम रावत
मुझे जिन्दगी में त्यौहारों ने कभी नहीं लुभाया. क्या होली-क्या दिवाली-क्या ही रक्षाबंधन. न ही इन त्योहारों को लेकर मेरे मन में कभी कोई उल्लास रहा. मुझे हर दिन एक सा लगता है. मुझे किसी खास दिन विशेष पर कोई खास ख़ुशी बचपन से न हुई. मैं बचपन से हर दिन में ही अपने हिस्से की ख़ुशी खोजने की कोशिश में हूँ. मुझे याद नहीं कि मैंने कभी त्योहारों में शिरकत भी की हो. या कभी किसी को राखी बांधी हो. पता नहीं क्यों जीवन के इन सामाजिक बंधनों में बंधने की कभी रूचि ही नहीं हुई. हाँ जिम्मेदारी हमेशा हर रिश्ते की निभाई. मुझे सब अपने लगते हैं. या कोई भी अपना नहीं लगता है. मेरे लिए कुछ साल पहले तक 3 दिन खास होते थे- 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर. पर अब सालों से मन उदास होता है- संगीनों के साये में होते आजादी के उत्सवों को मनते देख. सो वो उल्लार भी जाता रहा.
पर आज पहली बार भाई बहन के त्यौहार रक्षाबंधन पर एक अजीब अनुभूति हुई- एक खास बूढी बहन को मिलकर. और उसके स्वर्गीय बेटे सरीखे भाई के प्रति प्रेम की हिलोरें महसूस कर. मुझे लगा मैं आपको भी इस भाई-बहन के जोड़े से मिलवाऊँ. तो ये खुश किस्मत भाई हैं- देश के महशूर पत्रकार, लेखक, चिंतक, आन्दोलनकारी सर्वोदयी स्वर्गीय कुंवर प्रसून. जो 15 जुलाई 2006 को अपनी 6 बड़ी बहनों को छोड़कर सितारों की दुनिया में चल बसे थे. उनकी सब बहनें जिन्दा हैं अभी. बात कुछ यूँ है-
टिहरी की हेंवलघाटी के चितेरे कुंवर प्रसून की मौत के बाद इस साल 15 जुलाई 2008 को उनकी पुण्यतिथि पर देहरादून में एक श्रधांजलि कार्यक्रम हुआ. मैंने उनके जीवन पर विस्तार से एक लेख लिखा- ‘कुंवर प्रसून: मेरा जीवन एक आन्दोलन’. वो लेख युगवाणी के अगस्त अंक में छपा. साथ ही सोशल मीडिया में भी पोस्ट किया. कई न्यूज़ पोर्टल समेत कई छोटे पेपर में वो चर्चा में रहा. बात आई गई हो गई. मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब कोई 15 दिन पहले मेरी पोस्ट पर किसी रेनू बंगारी ने लिखा-
दीदी कुंवर प्रसून मेरे मामा हैं. मेरा परिवार आपका आभारी हैं कि आपने मामा जी को 12 साल बाद फिर से जिन्दा कर दिया. आपने तो उनको एक लेख में बाँध दिया. मैंने अपनी माँ को ये पढ़ाया. वो कुंवर प्रसून की सबसे बड़ी बहन हैं. वो आपको मिलना चाहती है. आप उत्तराखंड में जहाँ रहती हो. क्या हम आपको मिलने आ सकते है? मेरी माँ आपको मिलने कहीं भी आ सकती है. वो ये सुनकर बहुत खुश है. उसको लग रहा है उसका भाई जिन्दा हो गया है. अब हैरान होने की बारी मेरी थी. जितना वो मुझसे मिलने को उत्सुक थीं तो मेरी उत्सुकता उससे ज्यादा हो गयी. मैंने तुरंत रेनू को कहा- आज ही मिलते है. वो देहरादून में ही थीं.
कुंवर प्रसून की बहन श्रीमती दया रमोला लगभग 78 साल की हैं. वो पढ़ी लिखी नहीं हैं. कद काठी में बिलकुल अपने भाई की तरह हैं. उनकी ही तरह तेज तर्रार, हिम्मती, साफ बोलने वाली. निडर, संयत और विदुषी औरत. दया रमोला के चेहरे की झुर्रियों में ज़माने के अनुभव छुपे थे. वो अपने निडर कवि पिता गब्बर सिंह और भाई कुंवर प्रसून का ही प्रतिबिम्ब हैं. जबरदस्त याददास्त है उनकी. वो मेरा बेसब्री से इंतजार कर रही थीं- गोया जैसे कोई बहुत बड़ा बन्दा मिलने आ रहा है. वो तख्त पर बैठी थी- उसी तख्त पर जिस पर उनका प्रिय भाई सालों लेटा रहता था. शायद उसी पे बैठ दोनों भाई-बहन आज भी यादों में मिलते होंगे. बोली- ये वही तख्त है जिस पर कुंवर लेता रहता है. क्या तुमने ही लिखा इतना सुन्दर? तूने मेरे भाई को जिन्दा कर दिया. जरा मेरे पास तो आ. उन्होंने मेरे हाथ प्रेम से पकडे और ऐसे चूमे जैसे वो मेरे हाथ न होकर उनके भाई कुंवर प्रसून के हाथ हों. वो बहुत देर चुप रहीं मुझे पकड कर. उनकी डबडबाई और छलकती आँखों में भाई के लिए तैरता प्रेम और गर्माहट सिर्फ महसूस की जा सकती है. उसे लिख नहीं सकते. वो अपने भावों को छुपाना जानती थीं. फिर मुझे तखत पे बिठाकर बोली- मुझे लग रहा है मेरा कुंवर तेरे रूप में जिन्दा होकर मेरे पास आ गया है. फिर से मेरे हाथ चूमकर चुप हो गईं. मुझे लगा आज दुनिया का सबसे बड़ा ख़िताब मुझे मिल गया है. हम काफी देर चुप रहे. रेनू अपने मामा को बहुत प्यार करती है. वो दोनों माँ बेटी चुपचाप रोते रहे. उनके बारे में बातें करते रहे. मैं भी उस ख़ामोशी में उन दोनों भाई–बहन के प्रेम की खुशबु का आनंद उठा रही थी.
फिर उनकी बहन ने अपने भाई, उसके आन्दोलनकारी दोस्तों, निडर पिता के बारे में बात की. भाई की बीमारी और मौत का बताया. वो एक हैरान करने वाली बात बोलीं कि- वो आखरी वक्त जौनपुर और पुरोला गया था. वंहा से आ उसका व्यवहार बदल गया था. वो बैचैन रहता था. मेरे पास 15 दिन रहा पर हमको पता ही नहीं चला क्या बात है? वो एक टेप लेकर सजवान की दुकान पर सुनने को चला जाता. पता नहीं क्या था उस टेप में. खाना पीना ठीक खाता. पर इतना परेशान उसको कभी न देखा. एक कुर्सी उठा कभी बाहर और कभी भीतर. हाँ वो किसी अनजाने डर में लगता था. जबकि वो बड़ा निडर था. ये बात प्रसून जी की पत्नी रंजना भंडारी ने भी महसूस की. दया दीदी बोलीं- चंडीगढ़ जाते समय उसकी पीठ पर अजीब काले खून के निशान मैंने देखे. पूरी रीढ़ की हड्डी पर लम्बाई में ये निशान थे-गर्दन से नीचे तक. मैं हैरान थी ये देख. उसके बेटे ने उसे नहलाया था. तो मेरी नजर पढ़ी. उसकी पत्नी ने भी मुझे यही कहा की जौनपुर से आने के बाद ये उदास, कहीं खिन्न से और बैचैन रहते हैं. हम लोग कुछ पूछते हैं तो चुप हो जाते हैं या गुस्सा करते है.
दीदी उदास हो बोली पता नहीं क्या हुआ मेरे कुंवर को? मैं 7 भाई बहनों में सबसे बड़ी और कुंवर सबसे छोटा था. वो मेरा बेटा सा था. हम सबमें वो सिर्फ मेरे से ही बहुत लगाव रखता था. हक सा समझता था मुझ पर. मैं लखनऊ रही तो उसके दसियों दोस्तों की टोली आती और कहता दाल-भात खिलाओ सबको. मरते दम तक सब आते थे. पर उसके जाने के बाद कोई नहीं आया. वो भारत डोगरा, नवीन नौटियाल. राजीव नयन बहुगुणा, विजय जड्धारी, धूम सिंह नेगी समेत सबके बारे में मुझे पूछताछ करती रहीं. उनका संयमित चेहरा, संयत बातचीत, चेहरे के मजबूत भाव और नम आखों में तैरती यादें…. मेरी हैरानी का मुद्दा था.
अजब-गजब व्यक्तित्व है दया रमोला दीदी का- ठीक अपने भाई कुंवर प्रसून के ही माफिक. अगर वो पढ़ी लिखी होती या उनको सामाजिक कामों में शिरकत का मौका मिलता तो वो भाई से बीस ही साबित होती. पर वो शादी के बाद लखनऊ चली गयी थीं. उनकी 3 बेटी और एक बेटा है. वो पति दयाल सिंह रमोला की मौत के बाद 1989 से अकेली रहती हैं. अपने हर काम काज को खुद पर निर्भर हैं. खेती भी करती हैं. पाँव पर राड़ पड़ी है. पर मजाल है कि चेहरे पर कोई शिकन हो? बड़ा घर है. साफ सुथरा. सब काम अपने हाथ से. 3 बेटियां नियमित आकर देख रेख करती हैं. उनके बेटे देहरादून के मशहूर नेत्र डॉक्टर वी.सी. रमोला हैं.
सच में वो प्रसून जी की माँ सरीखी बहन है. उनके लिए आश्चर्य की बात थी जब मैं जाते वक्त उनको ‘युगवाणी और विकास का हमराही’ अखबार की प्रति दे गयी. वो रोने लगीं. बोली मैं आखर-आखर जोड़ कर उसकी कहानी पढूंगी. तू फिर आना. उन्होंने ऐसे प्रेम से युगवाणी लेकर छाती से लगाई- जैसे वो अपने भाई को सीने से लगा रही हों. 2 घंटे बैठ मैं भी उदास और खुश हो वापस आ गई. वो मेरे मन में घूमती रही.
मैं रेनू के साथ दुबारा उनको गयी. वो इंतजार कर रही थी. बोली मैंने तेरी पूरी कहानी पढ़ी कई बार. मैंने उस दिन खाना नहीं खाया. मैं दिन भर उदास रही. मुझे ऐसे लग रहा है मेरा कुंवर वापस आ गया है तेरी कहानी से. ऐसे लग रहा है- जैसे वो और मैं आपस में बात कर रहे हों. मैं उसकी कहानी पढ़ रोती रही दिन भर. उसकी मौत के बाद सब बातचीत बंद हो गयी. अब अचानक 12 साल बाद ये सब सुनना किसको अच्छा न लगेगा? मैंने उसकी दी हुई प्रिय हरी साड़ी पहन के ही युगवाणी की कहानी पढ़ी. भांजी रेनू की यादों में भी मामा कुंवर प्रसून जिन्दा है. ये रेनू के ही प्रयासों का प्रतिफल है कि मैं दया रमोला दीदी से मिल पाई. रेनू बोली दीदी मैंने नहीं सोचा था- कभी मैं आपसे यूँ मिलूंगी. आपने मेरे मामा को हमेशा के लिए जिन्दा कर दिया. वो दुनिया में फैल गए सोशल मीडिया से. मेरी माँ ने आपको पहचान लिया है कि आप मामा की मौत के बाद उनके गाँव आये थे. माँ उस वकत वहीं थी. न जाने क्या-क्या बोलती रही रेनू. माँ ने वो युगवाणी बक्से में संभाल कर रखी है किसी गीता या रामायण के माफिक.
कल मेरे लिए दुनिया की सबसे सुन्दर समूण याने उपहार आया- रेनू बारिश में भीगते-भीगते स्कूटर में आई. उसके पास दया रमोला दीदी ने अपने हाथों से उगाए भूट्टे मेरे लिए भेजे. दुनिया में कौन इतना खुश किस्मत होगा? और किसको इतना प्रेम भरा उपहार मिलेगा-
शुक्रिया रेनू और दया दीदी! आपके बेशर्त प्रेम ने भी मेरे मन में कुंवर प्रसून भाई जी और उनके सुन्दर रचना संसार को सालों बाद जिन्दा कर दिया. ये मेरा किसी जन्म का पुण्य होगा कि कुंवर प्रसून जैसे महान व्यक्ति पर लिखने का मौका मिला. उससे भी कमाल की बात है कि उनकी माँ सरीखी दया दीदी ने उस लेख को पढ़ भाववश मेरे हाथों को चूमकर कहा कि- लगता है अब मैं 6-7 साल और जिन्दा रह सकूंगी अपने कुंवर की यादों के सहारे. कुसुम तुमने मुझे जीने का मकसद दे दिया बेटा…ये बोलकर फिर से उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिए.
सो दया रमोला दीदी को मिली ख़ुशी के बहाने दुनिया के हर भाई-बहन को राखी मुबारक!