आसमां से हंसाओ कुंवर मास्टरजी

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  • मास्टर कुंवर जी दुनिया में हंसने -हंसाने के लिए आए थे,शायद

पौडी शहर अगर अपने  बीते दिनों को याद कर सके तो मास्टर कुंवर की याद धुंधली नहीं हुई होगी!

वेद विलास उनियाल 

जिंदगी के उस फलसफे , मायने को जीते हुए जिसपर  ग्रेट शो मैन राजकपूर  ने आपनी आखिरी फिल्म मेरा नाम जोकर बनाई थी। अपने पर हंसकर जग को हंसाना , बनके तमाशा मेले में आया। 

पौडी की रामलीला अपने भव्य मंचन के लिए शुरू से ही जानी गई है।  रामलीला के उन दिनों में पौडी शहर तो उमडता ही था आसपास के गांवों से भी लोग टोलियां बनाकर आते थे। यादों में है  कि ऐसी टोलियां लालेटेन लेकर चला करती थी । रामलीला होने के बाद अलग अलग गांव के लोग एक खास जगह पर इक्ट्ठा हो जाते थे ताकि कोई बिछुडे नहीं। मौसम तब हल्की सर्दी की दस्तक दे जाता था। पौडी मं हल्की सर्द हवाएं धीरे धीरे चलने लगती थी इसलिए कोट मफलर दस्ताने सब पहने जाते थे। बल्कि साल की नई स्वेटर रामलीला के दिनों में ही पहनी जाती थी।  पौडी के कंडोलिया मैदान में   फुटबाल मैच या फिर रामलीला को देखते हुए जेब में रखी गरम -गरम सी मूंगफली  भली लगती थी।

रामलीला के दृश्यों प्रसंगों का अपना रोमांच कौतूहल रहा है। गायन वादन और संवाद में निपुण रामलीला के कलाकारों ने पौडी की रामलीला को बेहद आकर्षक बनाया। पौडी की रामलीला मैदान का  ढांचा ही ऐसा रहा कि मंचन को देखने के लिए अनूकूल था। हर दिन की लीला का अलग अहसास । लेकिन बात यहां मास्टर कुंवरजी की। 

मास्टर कुंवर आ रहे हैं इतना भर की घोषणा पूरे रामलीला के पंडाल में कौतूहल जगा देती थी। पता नहीं क्या हुनर  क्या अंदाज था उस कलाकार का जो अपनी कुछ क्षण की प्रस्तुति में समा बांध देता था।  रामलीला की रात में बच्चों की  अलसाई सी आंखों में चमक आ जाती थी अगर सुन लिया कि मास्टर कुंवर अब आ रहे हैं। कोई बहुत अनोखे करतब के साथ नहीं आते थे, न ही उनके पास हंसने हंसाने के लिए कोई सीखी हुई तालीम थी। कोई दिव्य उपकरण भी नहीं।  बस  वो आते थे और चारों ओर रौनक।  बच्चों की खिलखिलाहट। केकई दशरथ संवाद,  कैकई मंथरा संवाद,  शबरी राम के प्रसंग  अंगद रावण संवाद  जैसे लंबे प्रसंगों के बाद बस कुछ देरे के लिए कुंवर मास्टर आ जाए तो समा बंध जाता था।  उनके हाव भाव, चेष्टाएं  हरकते  और कुछ लुभावनी बातें रामलीला के मंचन को बेहद आकर्षक बना देती थी।

पौडी की रामलीला को कई बडे कलाकारों ने सजाया संवारा है। मन्नाजी , तारी जी , धस्मानाजी  गौरीशंकर जी  जैसे कलाकार इसे भव्य बनाते रहे। नरेंद्र सिंह नेगी जी जैसे लोकगायक के संस्कार  कहीं न कहीं लोकपरंपरा के गीतों के साथ साथ रामलीला  के मंचन से भी जुडी है।  लेकिन मास्टर कुंवर कुछ अलग और हटकर याद आते हैं।  वह अपनी तरह के एक अनोखे कलाकार थे। वह हंसने हसाने के लिए ही आए थे।

कुछ बातें तो उनकी जानी पहचानी थी और वह उसमें  हिट थे। जैसे जनक के दरबार में अगर कुंवर बाबू  राजा बनकर न आएं तो दरबार कैसे सजेगा।  धनुष तोडने के लिए वह नगर पालिका की कूडे की छोटी गाडी को खूब सजाकर आते थे। राजा के चेले उन्हें उसमें बिठाकर लाते थे। बाकी राजा भी शोर्य कौशल के हास्यास्पद दृश्य दिखाते थे  अपनी कला हुनर को दिखाते थे  लेकिन लोटपोट तो मास्टर कुंवर जी करते थे।  लक्ष्मण जनक के संवाद से पहले जो अंतिम राजा धनुष तोडने के लिए बुलाया जाता था वह मास्टर कुंवरजी होते थे। हर शब्द में हसी,  हर अंदाज में हसी। लगता था कि राम धनुष जब तोडे तब तोडे  पर मास्टरजी कुछ कहते जाएं।  इस तरह से भी कि कहीं मजाकर मजाक में सचमुच धनुष उठा न लें। लेकिन सधे हुए थे मास्टरजी।  शूपर्नखा लीला तो विचित्र थी।  वह शूपर्नखा के साथ साथ आते और हाथ में आइना  कंघी रखे होते। जाहिर था वह शूर्पनखा के सेवक की तरह आते थे।  शूपर्नखा की नाक कटने के बाद , और खरदूषण तक उसके पहुंचने के बीच का पूरा हास परिहास के वे दृश्य भुलाए नहीं भूलते। किस अदा से वह शूर्पनखा के नाक कटने पर उससे वार्तालाप करते थे किस तरह खरदूषण के दरबार में पहुंचते थे  इसके सुंदर यादगार प्रसंग मन में आज भी समाए हुए हैं।  पौडी  की रामलीला में समय समय पर आवाजे लगती थी  मास्टर कुंवर मास्टर कुंवर। निश्चित यह उनकी भारी लोकप्रियता थी। रामलीला कमेटी के लोग इस फरमाइश को रोकने की स्थिति में कम रहते थे। उन्हें निवेदन सा करना पडता था कि भई  राम की  लीला भी चलानी है। 

मास्टर कुंवर जी  को तब हम नहीं जानते थे कि कुंवरजी के साथ मास्टर क्यों जोडा जाता है। वह अंग्रेजी के शिक्षक थे।  उनकी छवि एक शानदार शिक्षक के तौर पर शहर भर में थी। बच्चों को वह घर बुलाकर अलग से भी अंग्रेजी पढाया करते थे। कुंवर मास्टरजी को मंच पर तो खूब निहार कर देखा , पर करीब से कभी नहीं देखा। न कभी मिल पाया।  बाद में हसरत रह गई कि पौडी जाकर मास्टर कुंवरजी को मिलना है। किसी ने एक रोज बताया कि अब मास्टर कुंवरजी इस दुनिया में कहां है। बहुत समय हो गया भगवान राम के पास उन्हे गए हुए। बहुत मन उदास हुआ था। काश एक बार उन्हं मिल लेता। बचपन की रामलीला की खूब बातें उनसे करता। बोलता  आप तो हमारे हीरो थे मास्टर कुंवरजी। बहुत खिलखिलाया आपने। आप जैसा कलाकार आसानी से नहीं मिलता। इस दुनिया मे ऐसे लोग कम है जो दूसरो के चेहरे में मुस्कराहट ला सके। आपका और हमारा संवाद एक कलाकार और बच्चे के बीच का था। भले ही तब बच्चे अपनी अनूभूति को व्यक्त न कर पाते हो लेकिन उनका जोरजोर से हंसना खिलखिलाना मास्टर कुंवर के लिए शानदार सर्टिफिकेट था। और जब अपनी बात कहने के दिन आए तो वह कलाकार पंछी की तरह उड गया।

पौडी मे आज भी रामलीला के भव्य मंचन होते हैं।  उन्हें उन दिनों की याद होगी  वो उस आहट को आज भी महसूस करते होंगे।  रामलीला के ही नहीं हर उत्सव कला मंच ऐसे कलाकारों की अपेक्षा करता है। रामलीला के मंचनों में मास्टर कुंवर के हास्य प्रसंग अपनी कला के साथ थे। मास्टर कुंवरजी की कोई तस्वीर भी मेरे पास नहीं , उनके परिवार से भी कोई संवाद नहीं।  लेकिन वे घनी यादों में है,  उन्हें भूलना आसान नहीं। बचपन में ऐसी छाप छोडकर गए हैं मेरे मास्टर कुंवरजी।   कुंवर जी,  मोहम्द रफी का एक गीत है  – चिराग दिल का जलाओ बहुत अंधेरा है। आप जैसे इंसान की धरती को जरूरत है। आसमान से ही सही  ,  हंसाओ कुंवरजी। मास्टर कुंवर जी।

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