अपनी नालायकी ढकने की चाल रही इंटरनेट सेवा की बंदी !

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  • आखिर हम किस प्रकार के लोकतंत्र में रह रहे हैं ?

रमेश पहाड़ी 

पलायन लगातार बढ़ रहा है जबकि बाहर से काम व व्यापार करने बड़ी संख्या में लोग यहाँ आ रहे हैं। इन लोगों के साथ बाहरी विकृति भी उसी मात्रा में आ रही है, जो स्वाभाविक है। सरकार और प्रशासन को इसका तोड़ निकाल कर व्यवस्था को कारगर बनाना चाहिए था लेकिन इस दिशा में कोई प्रभावी कार्य नहीं हो पा रहा है।

उत्तरकाशी जिले में 12 वर्ष की बालिका से सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या की वीभत्स घटना के बाद अपराधियों को पकड़ कर कानून के हवाले करने की बजाय पूरे गढ़वाल के पहाड़ी जिलों में इंटरनेट सेवा को बंद करने की पुलिस-प्रशासन की कार्यवाही अपने निकम्मेपन को छिपाने की एक कोशिश के अलावा कुछ नहीं थी। कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर पूरी तरह असफल पुलिस-प्रशासन तंत्र की इस घटिया हरकत का सख्त विरोध होना चाहिए। यह लोगों के वाक्-स्वातंत्र्य पर हमला है और इसे नागरिक संगठनों को अघोषित आपात्काल के रूप में देखना चाहिए। विचार कीजिए कि क्या इस घटना के विरोध में लोगों के आक्रोश को रोकने का षड़यंत्र नहीं है यह? इंटरनेट के बाद का कदम क्या होता? मीडिया पर सीधा प्रतिबंध ? फिर बोलचाल पर प्रतिबंध और फिर?

प्रदेश की लचर कानून-व्यवस्था से जनजीवन बेहाल है। इस प्रदेश से गरीब लड़कियों की तस्करी और उनके साथ दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं। सरकार इसे रोकने में नाकाम है। इसलिए लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। सरकार अपनी कार्य-प्रणाली सुधारने, लोगों को समुचित सुरक्षा प्रदान करने में असफल है तो इसके खिलाफ आवाज उठाने के रास्ते बंद कर दिए जाएं, क्या यही सुशासन है? सड़क पर यातायात सुचारू रूप से चलाने के तरीके नहीं ढूँढे जा सकते तो यातायात बन्द या एकतरफा कर दो! शांति-व्यवस्था नहीं बना पा रहे तो लोगों का सड़क पर निकलना बंद कर दो! पहले लोगों को अतिक्रमण करने दो, अतिक्रमणकारियों से खा-पी लो, फिर न्यायालय कहे तो बिना बिना सोचे-समझे लोगों के घर-कारोबार बेरहमी से उजाड़ दो लेकिन कब्जा करवाने वाले नौकरशाहों को खुले छोड़ दो, उनके द्वारा खाई घूस-रिश्वत पर सवाल भी न उठाओ, यह क्या मज़ाक है? ये कौन-सी शासन-व्यवस्था है? और तुर्रा यह कि इस पर सवाल भी न उठाओ! प्रश्न उठेगा ही कि आखिर हम किस प्रकार के लोकतंत्र में रह रहे हैं, वोट देकर कैसी सरकार बना रहे हैं और टैक्स देकर कैसे सरकारी तंत्र को पाल रहे हैं- जो अपना काम तो नहीं कर पा रहा लेकिन लोगों पर अवैध पाबंदियां लगाने के मौके तलाशता रहता है।

उत्तराखंड में विकृत सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के चलते स्थानीय लोग गरीब और बेरोजगार हैं, पलायन लगातार बढ़ रहा है जबकि बाहर से काम व व्यापार करने बड़ी संख्या में लोग यहाँ आ रहे हैं। इन लोगों के साथ बाहरी विकृति भी उसी मात्रा में आ रही है, जो स्वाभाविक है। सरकार और प्रशासन को इसका तोड़ निकाल कर व्यवस्था को कारगर बनाना चाहिए था लेकिन इस दिशा में कोई प्रभावी कार्य नहीं हो पा रहा है। यह नागरिकों का काम नहीं है कि अपराधियों का सत्यापन या नियमन करे। यह सरकार का काम है और इसी में सरकार बुरी तरह असफल है। कई वर्षों से हम माँग कर रहे हैं कि बाहर से आने वाले लोगों का सत्यापन हो। उनको सत्यापन के बाद परिचय-पत्र जारी किए जाएं, जिन्हें वे अनिवार्य रूप से गले में लटकाकर रखें। उसी के आधार पर मकान मालिक उन्हें मकान या दुकान किराये पर दें, ठेकेदार, दुकानदार, कारखानेदार उन्हें काम पर रखें और तब उनकी भी जिम्मेदारी तय हो सकेगी।

सरकार यह छूट अफसरों को बिल्कुल भी न दे कि वे व्यवस्था बनाने के नाम पर जब-तब अपनी निरोधक शक्तियों का उपयोग करें। यह किसी अनिवार्य और अपरिहार्य स्थिति में ही होना चाहिए अन्यथा कदापि नहीं। यह सरकार की पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वह समस्याओं का प्रभावी समाधान करे लेकिन उच्च लोकतांत्रिक मर्यादाओं व परंपराओं के साथ।