ईमानदारों… उत्तराखंड छोड़ो !

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योगेश भट्ट 

उत्तराखंड में क्या सिर्फ बेईमानों की चलेगी? ईमानदारी की कोई इज्जत नहीं? यहां ईमानदार सरेआम बेइज्जत हो रहे हैं। बेईमान इस कदर दंभी हो चुके हैं कि उन्हें अब किसी का डर भय नहीं रह गया है। तथ्यों के साथ हालिया कुछ मामलों का जिक्र करते हैं। दो दिन पहले दून मेडिकल कालेज के एक प्रोफेसर को एक मंत्री का पीए धमकाता है। मंत्री के सरकारी आवास में बुलाकर सरेआम जलील करता है और नियमविरुद्ध काम करने के लिए कहता है।

दूसरा वाकया – आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी, जिनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर की है, तीन महीने से पैदल चल रहे हैं। वे विजिलेंस में तैनाती चाहते थे ताकि भष्टाचार फैलाने वाले बड़े मगरमच्छों का गला पकड़ सकें, लेकिन सरकार ने उन्हें दिल्ली का रास्ता दिखा दिया। ये दो मामले सिर्फ बानगीभर हैं। अब दूसरे पहलू पर बात करते हैं। सुमेर सिंह यादव, मृत्युंजय मिश्रा, संजय चौधरी ये वो नाम हैं जिनसे न जाने कितने विवाद जुड़े हैं। इसके बावजूद प्रदेश में इन्हें हमेशा सर आंखों पर बिठाया गया। सरकार पलक पांवड़े बिछाकर इनका और इन जैसों का इस्तकबाल करती रही। इससे भी आगे की बात करें तो यह कहना पूरी तरह सही होगा कि प्रदेश में हमेशा ऐसों की पौ-बारह रही है जो ‘खेल’ के माहिर हैं।

आईएएस अधिकारियों की बात करें तो राकेश शर्मा का नाम कौन नहीं जानता? मीनाक्षी सुंदरम का नाम कौन नहीं जानता? और सरकार इन पर किस कदर मेहरबान रही, ये भी कौन नहीं जानता? फेहरिस्त यहीं पर नहीं रुकती। ये नाम भी महज बानगीभर हैं। हकीकत यह है कि जो भी अफसर किसी मलाईदार ओहदे पर बैठा है, उसकी योग्यता का पैमाना यही है कि उसमें भी शर्मा और सुंदरम जैसी ‘विलक्षणता’ होनी चाहिए।

कुल मिलाकर सौ बात की एक बात यही है कि सरकार यूं ही अफसरों को मलाईदार ओहदों पर नहीं बिठाती। इसके लिए उनमें छुपी हुई खास योग्यता होनी चाहिए। वरना आशीष जोशी, विनोद रतूड़ी तथा और भी तमाम ऐसे अफसर हैं जो काबिल और कर्तव्यपरायण होने के बावजूद कभी कलेक्टर तक नहीं बन पाए।

कुलमिलाकर जो इस वक्त के हालात हैं, वे यही बता रहे हैं कि आज उत्तराखंड में पूछ उसी की है जो बेईमान है, हेराफेरी का उस्ताद है और सिस्टम को सूट करता है। सवाल उठता है कि ऐसा माहौल आखिर बना कौन रहा है? क्या इसके लिए नेता, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री दोषी नहीं हैं? बिल्कुल हैं। इसके लिए प्रदेश की पालिटिकल लीडरशिप ही जिम्मेदार है।

बात किसी एक सरकार की नहीं है। पिछले सोलह सालों में हर सरकार ने इस बुराई को बढावा देने का ही काम किया है। हर सरकार का हर दौर में कोई न कोई प्रिय पात्र जरूर रहा है। इन प्रिय पात्रों के जरिए सरकार हर वो काम करवाती है जिससे उसके हित सधते हैं। चाहे ठेकों की बात हो, ट्रांसफर पोस्टिंग की बात हो या किसी भी तरह की बंदरबाट का मामला हो। सारे काम इन्हीं प्रियपात्रों के मार्फत अंजाम दिए जाते हैं। यदि ऐसे ही हालात रहे, तो फिर ईमानदारों के पास प्रदेश छोड़ने के अलावा कोई और चारा नहीं रह जाता है।