देहरादून। सोलह सावन देख चुके उत्तराखंड प्रदेश के पर्वतीय जिलों के विकास की जद्दोजहद, जो उत्तर प्रदेश के जमाने में थी वो आज भी जस की तस बनी हुयी रह गयी। 2017 के विधानसभा चुनाव प्रचार में भी कहीं राज्य के विकास के लिए कोई ब्लूप्रिंट किसी भी दल का नही दिखाई दिया, जो प्रचार हुए वो सिर्फ एक दूसरे की कमी गिनने ये दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने तक ही सीमित रहे चाहे पीएम का प्रचार रहा हो या सीएम का प्रचार रहा हो। भोली-भाली जनता को भ्रमित करने के अलावा कोई भी विकास का एजेंडा किसी भी पार्टी ने पेश नही किया।
सही मायने में उत्तरप्रदेश से अलग राज्य की मांग के पीछे ये अवधारणा थी कि प्रदेश के युवाओं को रोजगार की तलाश में पलायन नहीं करना होगा। उद्योग धंधो की जितनी छोटी इकाइयां होंगी विकास उतना ही तीळ्र गति से होगा, लेकिन उत्तरांचल राज्य के पहाड़ी जनपदों के हिस्से में शायद कठिनाइयां ही थी। राज्य बनने के बाद भी चुनिंदा जनपदों तक ही विकास सिमट के रह गया। 2002 से लेकर 2007 तक कांग्रेस की निर्वाचित सरकार के मुखिया के रूप में पण्डित नारायन दत्त तिवारी ने कुछ हद तक विकास की नीव रखी, साथ ही उत्तरांचल को उत्तराखंड नाम देने का कार्य भी कर दिया।
उत्तरांचल से उत्तराखंड नाम तो बदल गया लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए मची होड़ नहीं बदली, नतीजा बीजेपी के सरकार के पांच वर्ष के कार्यकाल में 2 मुख्यमंत्री बारी बारी से राज्य की बागडोर संभालते रहे, बीजेपी की सरकार गयी 2012 में कांग्रेस की सरकार ने वही दोहराया पहले 5 साल 2 मुख्यमंत्री बारी बारी से बदले गए। यानी की राज्य के विकास से ज्यादा ध्यान इन लोगों का सीएम पद को लेकर लबिंग करने में रहा जिसका खामियाजा राज्य के पर्वतीय भाग में निवास कर रहे लोगों को भुगतना पड़ा। बारी बारी से उत्तराखंड में सत्ता की कमान संभालने वाली भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनैतिक दलों ने सही मायने में सीएम-सीएम खेलने के चक्कर में विकास की तरफ कोई खास ध्यान नही दिया। नतीजा राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के लोग रोजगार की तलाश में या तो मैदानी क्षेत्रों में आ गए या दूसरे राज्यों में छोटी-छोटी नौकरी करने के लिए चले गए। पलायन रोकने के दावे भले ही राज्य सरकारें करती आ रही हों, मगर पर्वतीय क्षेत्रों से युवाओं का रोजगार के लिए पलायन जारी है और यह निर्विवाद सत्य है।